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रामगुप्त का चरित्र चित्रण - Ramgupt Ka Charitra Chitran
रामगुप्त का चरित्र चित्रण: रामगुप्त 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक का प्रमुख पुरुष पात्र है। नाटक के केंद्रीय पात्र यानी ध्रुवस्वामिनी से संबंधित अधिकतर प्रश्न रामगुप्त से जुड़े हैं। ध्रुवस्वामिनी के जीवन की समस्याओं के मूल में रामगुप्त है, इसलिए संपूर्ण कार्य-व्यापार में उसकी भूमिका का महत्त्व है।
रामगुप्त के चरित्र में 'प्रसाद' जी ने कई तरह की प्रवृत्तियों का मेल किया है। ऊपर से देखने पर वह दुर्बल चरित्र, अयोग्य, अनुत्तरदायी और विलासी व्यक्ति प्रतीत होता है। किंतु रामगुप्त का चरित्र इतना ही नहीं, इसके अतिरिक्त कुछ और भी है। उसके चरित्र के बारे में जानकारी स्वयं उसके कार्यों और वचनों से तो मिलती ही है तथा अन्य पात्रों द्वारा उसके संबंध में कही गई बातों से भी मिलती है। नाटक के आरंभ में ध्रुवस्वामिनी के निम्नलिखित कथन पर ध्यान दें :
"राजा का मुझ पर कितना अनुग्रह है यह भी मैं आज तक न जान सकी, मैंने तो कभी उनका मधुर संभाषण सुना ही नहीं । विलासिनियों के साथ मदिरा में उन्मत्त, उन्हें अपने आनंद से अवकाश कहाँ।"
इससे हमें रामगुप्त के चरित्र की कई विशेषताओं का पता चलता है – (1) अपनी पत्नी के प्रति उसका व्यवहार उपेक्षापूर्ण और अमानवीय है (2) वह मद्यप (शराबी ) है ( 3 ) वह विलासप्रिय है, अपना सारा समय भोग-विलास में बिताता है।
खड्गधारिणी और प्रतिहारी से बात करते हुए हमें उसकी अन्य विशेषताओं का पता चलता हैं। वह शंकालु स्वभाव का है। उसे संदेह है कि उससे विवाह कर लेने के बावजूद ध्रुवस्वामिनी चंद्रगुप्त से प्यार करती है। ऐसी स्थिति में उसे यह शंका भी है कि कहीं ध्रुवस्वामिनी उसके विरुद्ध कोई षड्यंत्र तो नहीं रच रही।
प्रतिहारी से बातचीत के दौरान हमें पता चलता है कि उसमें राजकाज के प्रति उपेक्षा का भाव है। शकों द्वारा शिविर को घेर लिए जाने की सूचना का उस पर कोई असर नहीं होता। उसे केवल अपनी चिंता है। उसका कथन "दोनों ओर से घिरा रहने में शिविर और भी सुरक्षित है" कदाचित् उसकी मूर्खता का परिचायक हो सकता है। किंतु उसका अगला कथन पढ़ कर हमें पता चलता है कि वह काफी चालाक और आत्म-केंद्रित व्यक्ति है। अपने मार्ग को बाधा रहित बनाने में उसकी बुद्धि बड़ी तेजी से काम करती है -
"ध्रुवस्वामिनी को लेकर क्या साम्राज्य से भी हाथ धोना पड़ेगा ! नहीं तो फिर ? ( कुछ सोचने लगता है) ठीक तो, सहसा मेरे राजदंड ग्रहण कर लेने से पुरोहित, अमात्य और सेनापति लोग छिपा हुआ विद्रोह-भाव रखते हैं। (शिखर से ) हैं न? केवल एक तुम्हीं मेरे विश्वास पात्र हो । समझा न? यही गिरि-पथ सब झगड़ों का अंतिम निर्णय करेगा। क्यों अमात्य, जिसकी भुजाओं में बल न हो, उसके मस्तिष्क में तो कुछ होना चाहिए ?"
अपने प्रति हर तरह के विरोध को समाप्त करने के लिए वह पूरी तरह से सक्रिय है और हर विद्रोह का दमन शक्ति से नहीं, बुद्धि कौशल से करना चाहता है । शक- अवरोध के संकट को दूर करने के बहाने सभी विरोधों को दूर करना चाहता है। शकराज के प्रस्ताव का विरोध न करके उसे स्वीकार कर लेना रामगुप्त की कई प्रवृत्तियों का सूचक है; वह पराक्रमी और साहसी नहीं है। युद्ध करने या प्राणों को संकट में डालने की वीरता भी उसमें नहीं है, किंतु नीति- अनीति, अच्छे-बुरे का विचार किए बगैर अपना स्वार्थ सिद्ध करने की धूर्तता और चालाकी उसमें है । वह शिखरस्वामी से कहता है।
"अमात्य, तुम्हारी राजनीतिज्ञता इसी में है कि भीतर और बाहर के सब शत्रु एक ही चाल में परास्त हों।"
अपनी चालाकी में वह मर्यादा और गौरव की सीमा लाँघ जाता है। निर्लज्जतापूर्वक ध्रुवस्वामिनी को शकराज के पास भेजने को तैयार हो जाता है। ध्रुवस्वामिनी उसे पति के रूप में उसके कर्त्तव्य का ध्यान दिलाती है, रक्षा की भीख माँगती है। किंतु स्वार्थी और आत्म-केंद्रित रामगुप्त निर्ममता पूर्वक कहता है :
"तुम्हारा नारीत्व - अमूल्य हो सकता है। फिर भी अपने लिए मैं स्वयं कितना आवश्यक हूँ, कदाचित् तुम यह नहीं जानती हो ।"
ध्रुवस्वामिनी की अनुनय-विनय रामगुप्त सुनना नहीं चाहता। वह आत्म सम्मान का ध्यान दिलाती है किंतु रामगुप्त को अपने आत्म-सम्मान की कोई परवाह नहीं। दूसरे व्यक्ति की भावनाओं, की, उनके सम्मान की उसे चिंता नहीं। उसके सामने केवल एक ही चीज है अपना स्वार्थ, अपनी राजसत्ता जो किसी भी कीमत पर बनी रहनी चाहिए। वह निर्लज्जतापूर्वक कहता है :
"तुम, मेरी रानी? नहीं, नहीं जाओ, तुमको जाना पड़ेगा। तुम उपहार की वस्तु हो । आज मैं तुम्हें किसी दूसरे को देना चाहता हूँ। इसमें तुम्हें क्या आपत्ति हो ?"
अपमान और आक्रोश से पीड़ित ध्रुवस्वामिनी जब आत्महत्या करना चाहती है तब भी रामगुप्त की ओर से हम किसी तरह की सहानुभूति अथवा करुणा के स्थान पर उसके नितांत स्वार्थ प्रेरित शब्द सुनते हैं :
" किंतु तुम्हारे मर जाने पर उस बर्बर शकराज के पास किसे भेजा जाएगा? नहीं-नहीं, ऐसा न करो।"
वह मान रहा है कि शकराज बर्बर है किंतु ध्रुवस्वामिनी को शकराज की बर्बरता से बचाने की उसमें किंचितमात्र भी इच्छा नहीं है। अपने शंकालु और पतित स्वभाव के कारण उसे हर समय लगता है कि सभी लोग उसके विरुद्ध षड्यंत्र कर रहे हैं, उसके प्राण लेने की कोशिश कर रहे हैं।
मानवीय गौरव और उदात्त गुणों का रामगुप्त में नितांत अभाव है। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए किसी भी लज्जाजनक कार्य को करते हुए भी वह स्वयं को लज्जित अनुभव नहीं करता। कपट उसके आचरण का अनिवार्य अंग है । स्वयं शिखरस्वामी के साथ योजना बना कर ध्रुवस्वामिनी के पास जाता है किंतु सिद्ध करना चाहता है कि शकराज के प्रस्ताव के विषय में उसे कोई जानकारी नहीं। चंद्रगुप्त जब अपने प्राणों की बाजी लगा कर गुप्त कुल की मर्यादा की रक्षा करने को तैयार हो जाता है तब भी वह शिखरस्वामी के इस प्रस्ताव से सहमत होता है कि चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी दोनों शक शिविर में जाएँ। ऐसा करके वह चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी दोनों से एक साथ छुटकारा पाना चाहता है।
चंद्रगुप्त के पराक्रम से शक - दुर्ग पर विजय के पश्चात् रामगुप्त जब वहाँ पहुँचता है तो कोमा, मिहिरदेव और शक सैनिकों की नृशंस हत्या करवाकर अपनी क्रूरता का परिचय देता है। अपने पाखंडपूर्ण और क्लीव आचरण के पश्चात् भी ध्रुवस्वामिनी पर पति के रूप में अपना अधिकार समझता है और उस पर लांछन लगाता है कि वह चंद्रगुप्त से प्रेम करती है :
"ध्रुवस्वामिनी, निर्लज्जता की भी एक सीमा होती है।"
"चुप रहो ! तुम्हारा पर-पुरुष अनुरक्त हृदय अत्यंत कलुषित हो गया है। तुम काल-सर्पिणी-सी स्त्री ! ओह तुम्हें धर्म का तनिक भी भय नहीं।"
उसके इन वचनों से स्पष्ट होता है कि ध्रुवस्वामिनी के प्रति अपने व्यवहार पर उसे तनिक भी लज्जा या खेद नहीं है, किसी तरह का पश्चाताप या ग्लानि नहीं है - उलटे वह ध्रुवस्वामिनी को ही लज्जित करने का प्रयास कर रहा है।
स्वार्थ प्रेरित निरंकुशता उसके चरित्र की एक अन्य विशेषता है। सामंत कुमार जब उसके कायरतापूर्वक व्यवहार की भर्त्सना करते हैं तो निरंकुशतापूर्वक आदेश दे कर वह सामंत कुमारों तथा चंद्रगुप्त को भी बंदी बनवा लेता है। ध्रुवस्वामिनी जब उसके कुकर्मों का ध्यान दिलाती हुई अपने लिए न्याय की माँग करती है और पुरोहित से अपना मत व्यक्त करने को कहती हैं तो रामगुप्त उसे भी बंदी बनाने का आदेश सैनिकों को दे देता है।
वह इतना दुस्साहसी है कि अपने हर कार्य को सही समझता है। राजा के रूप में अपने कर्त्तव्यों के पालन में असमर्थ तथा पति के रूप में अपने दायित्वों के निर्वाह में असफल रहने पर भी वह राजसिंहासन और ध्रुवस्वामिनी पर अपना वैध अधिकार समझता है। कायर और डरपोक होने के बावजूद अन्याय और अनाचार करने से नहीं चूकता। अंत में जब परिषद् के सदस्य उसे राज्य सिंहासन के अयोग्य घोषित करते हैं तथा पुरोहित निर्णय देता है कि ध्रुवस्वामिनी पर उसका कोई अधिकार नही तो भी वह इस निर्णय को चुपचाप स्वीकार नहीं करता, क्योंकि अपनी गलतियों के लिए उसमें किसी तरह का अपराध बोध नहीं है। सत्तालोलुप होकर वह चुपके से चंद्रगुप्त का वध करने का प्रयास करता है।
लेखक ने रामगुप्त के चरित्र का विकास बड़े ही मनोवैज्ञानिक और यथार्थ ढंग से किया है। अयोग्य व्यक्ति को जब सत्ता और अधिकार मिल जाता है तब उसका दुरुपयोग वह किस तरह करता है इसका जीता-जागता उदाहरण है, रामगुप्त। अपने अधिकार के खो जाने का भय उसे सदा लगा रहता है। अपने बाहुबल और विवेक का सहारा न होने के कारण वह सदैव सशंक और भयभीत रहता है। अपनी सारी बुद्धि इसी बात में लगाए रहता है कि किस तरह अपना अधिकार और सत्ता कायम रखी जाए। समस्त श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों को वह दूर फेंक देता है। मूल्यांधता की स्थिति (मूल्यों को अनदेखा करने की स्थिति) किस तरह सजीव हो उठती है यह रामगुप्त के चरित्र में देखा जा सकता है। मंदाकिनी के शब्द "सच है वीरता जब भागती है। तब उसके पैरों से छल-छंद की धूल उड़ती है" मूल्यांधता का बड़ा ही सजीव बिंब प्रस्तुत करते हैं।
रामगुप्त सामंतवादी पतनशील स्थितियों का प्रतीक चरित्र है। ध्रुवस्वामिनी के विरोध में खड़े होने के कारण खलनायक की भूमिका निभाता है। उसके धूर्त, मदोन्मत, आत्मसीमित, आत्म- केंद्रित और स्वार्थपरायण व्यक्तित्व में हर तरह की मर्यादा और गौरव का अभाव है। साथ ही उसमें परम्परागत खलनायक जैसी शक्ति और सामर्थ्य का भी अभाव है। नाटक के अन्य खलपात्र शकराज की तरह अपने बाहुबल का भरोसा भी उसे नहीं है।
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