अंधेर नगरी के आधार पर गोवर्धन दास का चरित्र-चित्रण: भारतेन्दु कृत हास्य नाटक 'अंधेर नगरी' के प्रमुख तीन पात्रों में गोवर्धन दास एक महत्त्वपूर्ण पात्र
अंधेर नगरी के आधार पर गोवर्धन दास का चरित्र-चित्रण
भारतेन्दु कृत हास्य नाटक 'अंधेर नगरी' के प्रमुख तीन पात्रों में गोवर्धन दास एक महत्त्वपूर्ण पात्र है जिसकी कल्पना मुख्य उद्देश्यों को गति देने में की गई है। वह तत्कालीन ही नहीं बल्कि समकालीन ढोंगी साधु-सन्तों का भी प्रतिनिधित्व करता है और नाटक को यथार्थवादी रूप देने में सहायता देता है। वह भगवा वस्तु और कमण्डल इसलिए धारण नहीं करता कि वह भगत है बल्कि इसलिए करता है कि बिना कुछ काम किए हुए मजे से पेट भर सके। उसे समाज के किसी वर्ग के प्रति कोई चिन्ता नहीं है, वह तो हरदम अपने सुख और एशोआराम के बारे में ही सोचता है। उसकी चारित्रिक विशेषताओं को निम्नलिखित आधारों पर स्पष्ट किया जा सकता है—
1. लोभ-प्रवृत्ति: गोवर्धनदास लालाची और लोभी प्रवृत्ति का साधु है। सच्चा साधु लोभ-प्रवृत्ति में नहीं पड़ता जबकि ढोंगी साधु लोभ ही करता है। महन्त जी उसे भिक्षा लाने के लिए कहते हैं ताकि शालिग्राम जी का बाल भोग सिद्ध हो सके लेकिन वह अधिक से भीख पाना चाहता है ताकि वह अच्छा खा सके। वह स्पष्ट शब्दों में कहता है, “गुरु जी मैं बहुत-सी भिक्षा लाता हूं। यहां के लोग तो बड़े मालदार दिखाई पड़ते हैं। आप कुछ चिन्ता मत कीजिए।" महन्त जी के द्वारा लालच न करने का उपदेश देने पर भी वह भीख में सात पैसे इकट्ठे करता है और उससे साढ़े तीन सेर मिठाई खरीदता है, खाता है ओर अपनी लालची प्रवृत्ति प्रकट करता है।
2. अविश्वासी: गोवर्धन दास स्वभाव का अविश्वासी और अस्थिर है। बाज़ार में सामान बेचने वाले सभी गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहे थे कि हर सामान टके सेर है लेकिन फिर भी उसे विश्वास नहीं होता कि वह ठीक कह रहे हैं इसलिए वह बनिया, कुंजड़िन, हलवाई आदि सब के पास जाकर पूछता है कि क्या वास्तव में ही सब चीजें टके सेर की बिक रही हैं ?
3. जिह्वा-लोलूप: गोवर्धन दास पेटू है। उसे सिवाय खाने और जीवन में सुख उपभोग के कुछ नहीं सूझता। ऐसा लगता है कि जैसे उसका जीवन केवल खाने के लिए ही हुआ है। इसीलिए वह मिठाई खाते हुए प्रसन्नता भर कर गाता है और बगल बजाता है। जब महन्त जी ने उसे वह स्थान छोड़ देने के लिए कहा था तो उसने ऐसा करने से मना कर दिया था। वह वहीं रहना चाहता था जहां उसे बिना परिश्रम किए हुए हर रोज खाने को मिठाई मिले वह कहता भी है— “गुरु जी ने हम को नाहक यहाँ रहने को मना किया था। माना कि देस बहुत बुरा है, पर अपना क्या ? अपने किसी राजकाज में थोड़े हैं कि कुछ डर है, रोज मिठाई चाभना, मजे में आनन्द से राम भजन करना।"
4. अवज्ञाकारी: गोवर्धनदास पेट के सुख के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहता है। उसके गुरु जी ने अपने विवेक का परिचय देते हुए उसे सलाह दी थी कि वह अंधेर नगरी को छोड़कर उसके साथ अन्यत्र चले लेकिन पेटू गोवर्धनदास ने उनके साथ जाने से इन्कार कर दिया था। उसे लगा था कि कहीं और जाने से उसे खाने के लिए अच्छा भोजन ओर मिठाई नहीं मिल पायेगी। उसने गुरु जी से साफ शब्दों में कह दिया था—
गुरु जी, ऐसा तो संसार-भर में कोई देस ही नहीं है। दो पैसा पास रहने से ही मजे में पेट भरता है। मैं तो इस नगरी को छोड़कर नहीं जाऊँगा। और जगह दिन भर मांगों तो भी पेट नहीं भरता। वरचं बाजे-बाजे दिन उपास करना पड़ता है। सो मैं तो यही रहूंगा।
गोवर्धनदास घर बाहर त्याग चुका था। इसलिए उसका महन्त जी के अतिरिक्त अपना और कोई नहीं था लेकिन उसने उनकी आज्ञा को भी मानने से मना कर दिया था। आज्ञा न मानने के कारण उसे पछताना पड़ा था।
5. भीरु: गोवर्धनदास स्वभाव से डरपोक और भीरु है। वह शरीर से तो भारी है। लेकिन मन से कमज़ोर हैं और विपरीत परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाने पर वह उनका सामना नहीं कर पाता और वह स्वयं को असहाय अवस्था में मानने लगता है। उसमें साहस की कमी है। विरोध की क्षमता न होने के कारण ही वह राजा चौपट के चार प्यादों से अपनी रक्षा नहीं कर पाया था। उन चार प्यादों से यह जान कर कि उसे फांसी पर लटकाया जाएगा, वह भय से कांप उठा था, “फाँसी ! अरे बाप रे फाँसी ! मैंने किस की जमा लूटी है कि मुझ को फाँसी। मैंने किस के प्राण मारे कि मुझ को फाँसी।" वह उन प्यादों के सामने रोता है, गिड़गिड़ाता है लेकिन बचने की न तो उसे कोई युक्ति सूझती है और न ही वह कोई तर्क दे पाता है। संकट की घड़ी में उसे बस अपने गुरु ही याद आते हैं।
6. ढोंगी साधु: गोवर्धनदास न तो साधु है और न ही कोई महात्मा। वह तो मात्र पेट भरने के लिए साधुओं का ढोंग करने वाला है। उसके भगवे वस्त्र और कमण्डल केवल दिखावे के लिए हैं। उसका ज्ञान और अध्ययन थोथा है। महन्त जी के समान उसे पद, दोहे, सूक्तियां आदि याद नहीं है। वह जंगलों - पहाड़ों में अकेले रहकर तपस्या करने की बजाय गली बाज़ारों में भटकता फिरता है ताकि पेट की आग को बुझा सके। अंधेर नगरी के वैभव को देख कर वह सब कुछ भूल जाता है— उसे अपने गुरु की याद नहीं रहती। उसे केवल टके सेर वाली मिठाइयां दिखायी देती हैं जिन्हें खा-खाकर वह मोटा हो जाता है और वही मोटापा उसे फाँसी के फंदे तक ले जाता है। भगवान के भजन के नाम पर कीर्तन करना उसका पेशा है, न कि स्वभाव। उसका स्वभाव तो ढोंगी साधुओं की तरह खाना, डकारना और सोना है। वह वर्ग विशेष का प्रतिनिधि है इसलिए भारतेन्दु ने उसमें उन सभी गुणों-अवगुणों को प्रकट किया है जो तब और अब के साधुओं में दिखायी देते हैं।
7. आत्मकेन्द्रित: गोवर्धनदास पूर्ण रूप से आत्मकेन्द्रित है। वह केवल अपने बारे में ही सोचता है। उसके लिए गुरु, राजा, समाज, परिवार आदि सब व्यर्थ है। उसके लिए यदि कुछ भी महत्त्वपूर्ण है तो वह अपने शरीर की रक्षा करना है। आत्मकेन्द्रित होने के कारण ही वह अकेला चोपट्ट राजा की अंधेर नगरी में रहने का निर्णय करता है। आत्मकेन्द्रित होने के कारण ही वह सदा अपने सुख की बात सोचता है।
8. असंयमी: गोवर्धन दास में एक गुण अवश्य विद्यमान है कि वह अपने द्वारा किए जाने वाली गलती को स्वीकार कर लेता है। जब अपने गुरु जी की आज्ञा को न मानकर वह अंधेर नगरी में रह जाता है और मिठाई खा-खाकर मोटा हो जाता है तब राजा के प्यादे उसकी मोटी गर्दन को फंदे में फंसाने के लिए ले जाने लगते है। तो वह पश्चाताप करता है। अपने जीवन पर आए संकट को देखकर वह रोता है, चिल्लाता और गिड़गिड़ाता है। तब वह कहता है, “हाय ! मैंने गुरु जी का कहना न माना, उसी का यह फल है। गुरु ने कहा था कि ऐसे नगर में नहीं रहना चाहिए, यह मैंने न सुना ! अरे ! इस नगर का नाम ही अंधेर नगरी और राजा का नाम चौपट है, तब बचने की कौन सी आशा है। अरे ! इस नगर में ऐसा कोई धर्मात्मा नहीं है। जो इस ! फकीर को बचाएं। गुरु जी ! कहां है ? बचाओं - गुरु जी - गुरु जी।" वास्तव में उसका पश्चाताप भी उसकी आत्मकेन्द्रित प्रवृत्ति का परिचायक है।
वस्तुतः गोवर्धनदास का चारित्रिक विकास कथावस्तु के विकास में सहायक है। लेखक ने नाटक के उद्देश्य की प्रस्तुति के लिए ही उसे नियोजित किया है लेकिन उसके माध्यम से आज के युग के हज़ारों लाखों भगवा धारण किए साधुओं की पोल खोलने में उन्हें पूर्ण सफलता मिली है। यह युग सापेक्ष है इसलिए इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है।
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