अन्धायुग के धृतराष्ट्र का चरित्र चित्रण: धृतराष्ट्र अपने बड़े भाई पाण्डु के रोगग्रस्त होने के कारण अन्धे होते हुए भी शासनारूढ़ हुए। किन्तु युधिष्ठिर आ
अन्धायुग के धृतराष्ट्र का चरित्र चित्रण
अन्धायुग के धृतराष्ट्र का चरित्र चित्रण: धृतराष्ट्र अपने बड़े भाई पाण्डु के रोगग्रस्त होने के कारण अन्धे होते हुए भी शासनारूढ़ हुए। किन्तु युधिष्ठिर आदि के युवा होने के उपरान्त भी उन्होंने पद त्याग नहीं किया और व द्धावस्था होने के कारण अपने पुत्र दुर्योधन को शासन सौंप देना चाहा। युधिष्ठिर दुर्योधन से बड़े थे अस्तु इस अन्याय का पाण्डवों ने विरोध किया किन्तु अन्धे धृतराष्ट्र ने अपने पुत्रों की ममता के वशीभूत होकर फिर भी उचित मार्ग को नहीं माना। दुर्योधन आदि कौरवों ने पाण्डवों का अपमान किया, किन्तु धृतराष्ट्र जानते हुए भी अनजान बने रहे। महाभारत में चित्रित धृतराष्ट्र का यही चरित्र 'अन्धायुग' में भी चित्रित हुआ है। धृतराष्ट्र अपने पुत्रों की ममता में इतने लिप्त थे कि उन्हें उचित-अनुचित का कोई ध्यान न था और उनकी इसी असावधानी से प्रोत्साहित होकर दुर्योधन पाण्डवों का निरादर करता रहा और धृतराष्ट्र चुप रहे। किन्तु जब महाभारत का भीषण युद्ध प्रारम्भ हुआ और कौरव पराजित होने लगे तो सबसे पहले धृतराष्ट्र ही आशँकाग्रस्त व्यक्ति के रूप में हमारे सम्मुख आते हैं। कौरवों की पराजय ने उन्हें चिंताग्रस्त बना दिया है और वह अपनी आशंका को विदुर के सम्मुख इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-
"विदुर !
जीवन में प्रथम बार
आज मुझे आशंका व्यापी है।' (प० 16 )
किन्तु विदुर उन्हें बताते हैं कि आपको अब आशंका व्यापी है? वास्तव में जो आशंका आपको आज हो रही है वह तो सभी को वर्षों पहले हिला गई थी। भीष्म और गुरु द्रोण के कहने के साथ ही कृष्ण भी उनके समक्ष यही कह गये थे-
'मर्यादा मत तोड़ो
तोड़ी हुई मर्यादा
कुचले हुए अजगर सी
गुंजलिका में कौरव- वंश को लपेट कर
सूखी लकड़ी सा तोड़ डालेगी।'
धृतराष्ट्र विदुर के सामने स्पष्ट करते हैं कि मुझे सब कुछ याद है किन्तु तुम मेरी परिस्थिति को क्यों नही समझते ? मैं जन्म से अन्धा था, इसलिए इस समाज के बाहरी यथार्थ और उसकी मर्यादा को मैं कैसे ग्रहण कर सकता था । विदुर के यह कहने पर कि तुमने जिस प्रकार इस संसार को अपने अन्धेपन के बावजूद ग्रहण कर लिया उसी प्रकार मर्यादा और यथार्थ को भी ग्रहण कर सकते थे। इस पर अपना तर्क देते हुए धृतराष्ट्र कहते हैं-
'पर वह संसार
स्वतः मेरे अन्धेपन से उपजा था।
मैंने अपने ही वैयक्तिक संवेदन से जो जाना था
केवल उतना ही था मेरे लिए वस्तु-जगत
इन्द्र जाल की माया सष्टि के समान
घने गहरे अन्धियारे में
एक काले बिन्दु से
मेरे मन ने सारे भाव किए थे विकसित
मेरी सब व त्तियाँ उसी से परिचालित थीं।
मेरा स्नेह, मेरी घणा, मेरी नीति, मेरा धर्म।
बिल्कुल मेरा ही वैयक्तिक था ।'
इतना होते हुए भी धृतराष्ट्र को जब अपने स्वनिर्मित संसार और तज्जन्य सत्य का अनुभव हुआ और अपने एक-एक पुत्र की मत्यु का समाचार उन्हें मिलता रहा तब उन्हें यह ज्ञान हो गया कि उनके स्वनिर्मित सत्य के अतिरिक्त भी कोई सत्य हुआ करता है-
'आज मुझे भान हुआ ।
मेरी वैयक्तिक सीमाओं के बाहर भी
सत्य हुआ करता है
आज मुझे भान हुआ ।
सहसा यह उगा कोई बाँध टूट गया है
कोटि-कोटि योजन तक दहाड़ता हुआ समुद्र
मेरे वैयक्तिक अनुमानित सीमित जग को
लहरों की विषमय जिहाओं से निगलता हुआ
मेरे अन्तर्मन में बैठ गया
सब कुछ बह गया
मेरे अपने वैयक्तिक मूल्य
मेरी निश्चित किन्तु ज्ञानहीन आस्थाएँ ।' (प० 16 )
वह यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं कि अपने पुत्रों का विनाश स्वयं उन्होंने अपनी अदूरदर्शिता के कारण किया। किन्तु आज उनकी वह धारणा नष्ट-भ्रष्ट हो गयी है कि बाह्य संसार से उनका कोई सम्बन्ध न था। इतना होने पर भी धृतराष्ट्र के चरित्र में गाँधारी की भाँति अन्ध ममता नहीं है वरन् वह उससे अधिक विवेकी, धैर्यवान और आत्मसजग हैं। उन्हें अपनी स्थिति और अपनी भूल का परिज्ञान हो चुका है, इसीलिए वह विदुर को प्रताड़ित करती हुई गाँधारी से कहते हैं-
'शान्त रहो, शान्त रहो,
गांधारी शान्त रहो
दोष किसी को मत दो
अन्धा था मैं......' (o 20-21)
गांधारी की भाँति पुत्र शोक से त्रस्त और दुःखी होने पर भी धृतराष्ट्र विक्षुब्ध नहीं दिखाई देते। वास्तव में उनका शोक अन्तर्मुखी है जो उन्हें अन्दर ही अन्दर छलनी किए जाता है। किन्तु जब युद्ध के अन्तिम दिन की संध्या में उन्हें दुर्योधन की पराजय का समाचार मिलता है और दूसरे दिन वह अपंग सैनिकों को टटोल-टटोलकर उनसे युद्ध की विभीषिका का अनुमान लगाते हैं तब उनके आन्तरिक दुःख और उनकी मर्मान्तक पीड़ा का अनुमान सहज हो जाता है-
'देख नहीं सकता हूँ,
पर मैंने धू-धूकर
अङ्ग भङ्ग सैनिकों को
देखने की कोशिश की
बाँह के पास से
हाथ जब कट जाता है।
लगता है वैसा जैसे मेरे सिंहासन का
हत्या है।
सिर्फ मैं संजय के शब्दों से
सुनता आया था जिसे
आज उसी युद्ध को हाथों से छू-छूकर
अनुभव करने का अवसर पाया है।' (प० 48 )
उनकी मर्मान्तक व्यथा उस समय और भी अधिक बढ़ जाती है जब गूंगे सैनिक के संकेत को समझकर विदुर उनसे कहते हैं कि वह संकेत से धृतराष्ट्र की जय बोल रहा है। उस समय धृतराष्ट्र की मानसिक व्यथा विद्रूप बनकर इन शब्दों में अभिव्यक्त होती है-
'गूंगों के सिवा आज
और कौन बोलेगा मेरी जय ।' (प० 49 )
इतना विनाश देख चुकने पर भी जब विपक्ष से मिला हुआ उनका एक पुत्र युयुत्सु पुनः उनके पास लौट आता है तो उनके खण्डित हृदय को जैसे एक सहारा मिल जाता है और वह उसे खोना नहीं चाहते-
'मेरा है केवल एक पुत्र शेष
खोकर उसे कैसे जीवित रहूँगा? (प० 89)
यहाँ तक कि जब उन्हें यह ज्ञात होता है कि अश्वत्थामा ने गर्भिणी उत्तरा के गर्भ और पाण्डव कुल के उत्तराधिकारी को नष्ट करने के लिए ब्रह्मास्त्र फेंक दिया है, तो उनकी ममता फिर जाग्रत हो उठती है और अपने निहित स्वार्थ को ध्यान में रखते हुए अत्यन्त हर्षित होकर युयुत्सु से कहते हैं-
'वत्स, तुम मेरी आयु लेकर भी
जीवित रहो
अश्वत्थामा का ब्रह्मास्त्र
यदि गिरा है उत्तरा पर
तो कौन जाने एक दिन युधिष्ठिर
सब राजपाट तुमको ही सौंप दें।' (प० 95)
किन्तु अन्त में उन्हें इसका पूर्ण ज्ञान हो जाता है कि जिस ममता और स्वार्थ ने उन्हें अब तक अन्धा बना रखा था वह निरर्थक थे। मनुष्य के जीवन में ये केवल एक भटकाव बनकर रह जाते हैं और वह समझता है कि उसी ने सिद्धि पायी है। वन की धधकती आग में कुन्ती को जलती और गांधारी को विवश हो बैठती देख धृतराष्ट्र वास्तविकता का साक्षात्कार करते हैं और संजय के सुरक्षित स्थान की ओर चलने के प्रस्ताव को ठुकराते हुए कहते हैं-
'संजय
अब सब प्रयत्न व्यर्थ हैं। छोड़ दो तुम मुझे यहीं,
जीवन भर मैं
अंधेपन के अंधियारे में भटका हूँ
अग्नि है नहीं, यह है ज्योति वत्त
देख कर नहीं यह सत्य ग्रहण कर सका तो आज
मैं अपनी व द्ध अस्थियों पर
सत्य धारण करूँगा
अग्निमाला सा ।' (प० 113 )
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यद्यपि धृतराष्ट्र स्वार्थी हैं और तन से ही नहीं मन से भी अंधे हैं अर्थात् अविवेकी हैं, अपने पुत्रों की ममता को ही अपना अन्तिम सत्य मान बैठे हैं किन्तु इतना होने पर भी उनके चरित्र में सपाट-बयानी, सहजता और दुर्बलताओं को निस्संकोच स्वीकार कर लेने की महानता भी है। वह जो कर चुके हैं उसके प्रति अपने अज्ञान और भूल को भी स्वीकार कर लेते हैं। अपने कर्मों के दुष्परिणामों को ग्रहण करने की यह क्षमता ही उनमें पाठकीय संवेदना जगाती है और पाठक अथवा दर्शक उनके चरित्र से अत्यधिक प्रभावित होते हैं।
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