दो कलाकार कहानी में अरुणा का चरित्र चित्रण: अरुणा एक मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की है जो संस्कारों से परोपकारी तथा कर्म के प्रति समर्पित है। वह समाज सेव
दो कलाकार कहानी में अरुणा का चरित्र चित्रण
अरुणा का चरित्र चित्रण: अरुणा एक मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की है जो संस्कारों से परोपकारी तथा कर्म के प्रति समर्पित है। वह समाज सेवा के लिए हमेशा तैयार रहती है। कभी अरुणा आस-पास के बच्चों को पढ़ाती है तो कभी बाढ़ पीड़ितों के लिए चंदा इकट्ठा करने में व्यस्त रहती है। इन कार्यों की वजह से वह अपनी पढ़ाई की भी उपेक्षा कर देती है इसलिए उसकी सहेली चित्रा उसे पढ़ाई के प्रति सचेत करते हुए कहती है 'तेरे इम्तिहान सिर पर आ रहे हैं कुछ पढ़ती-लिखती तू है नहीं, सारे दिन बस भटकती रहती है।' अरुणा के हृदय में समाज-सेवा के लिए इतना उत्साह है कि वह प्रधानाचार्य से स्वयंसेवकों के दल के साथ जाने के लिए अनुमति पा लेती है। संवेदनशील अरुणा बाढ़ पीड़ितों की सेवा में दिन-रात एक कर देती है और भूख-प्यास की परवाह किए बिना समाज सेवा में लगी रहती है। परिणाम यह होता है कि मात्र पंद्रह दिन में ही वह ऐसी लगती है मानो छह महीने से बीमार हो।
दरअसल अरुणा के स्वभाव में रोगियों, दुखियों के लिए अपार प्रेम है। जब वह फुलिया दाई के बच्चे की बीमारी के बारे में सुनती है तो फौरन उसकी सेवा में तत्पर हो जाती है। सेवा करने के बावजूद वह बच्चे को नहीं बचा पाती। इस घटना से वह इतनी दुखी होती है कि दिन-भर भूखे रहने के बाद भी वापस हॉस्टल लौटने पर भोजन नहीं करती। वह इतनी करुणाशील है कि चित्रा जब इस संबंध में उससे कुछ पूछती है तो वह उत्तर तक नहीं दे पाती और उसकी आँखें छलछला जाती हैं। बच्चे की मत्यु के दुःख से अरुणा इतनी व्यथित हो उठती है कि वह कई दिनों तक उदास रहती है और आखिर चित्रा को कहना ही पड़ता है 'जो होना था हो गया अब भूखे रहने से क्या होगा, थोड़ा-बहुत खा ले।'
यद्यपि कहानी के आरंभ में अरुणा की उपहास व त्ति का पता चलता है किंतु वास्तविकता यह है कि स्वभाव से वह गंभीर है इसलिए चित्रा के यह कहने पर कि 'क्या सोचने लगी रूनी, मनोज की याद आ गई क्या' वह उसे झिड़कते हुए कहती है कि 'हर समय का मजाक अच्छा नहीं लगता। जीवन के उपयोगी और रंजक पक्षों में से अरुणा को उपयोगी पक्ष ही बेहतर लगता हैं। वह लोगों के दुख-दर्द को हर लेने में ही जीवन की सार्थकता समझती है । वह चित्रा से कहती है, 'कागज़ पर निर्जीव चित्रों को बनाने की बजाय दो चार की जिंदगी क्यों नहीं बना देती। तेरे पास सामर्थ्य भी है और साधन भी किस काम की ऐसी कला जो आदमी को आदमी न रहने दे।' वह कला और जीवन को लेकर कई बार चित्रा से बहस करती दिखाई देती है।
अरुणा न केवल समाज सेविका है बल्कि अपने संबधों के प्रति भी पूर्णतः जागरूक है। वह अपनी सखी चित्रा का बराबर ध्यान रखती है। जब वह चित्रा के विदेश जाने की बात सुनती है तो उसके साथ बिताए छह वर्षों के चित्र उसकी आँखों के सामने घूमने लगते हैं। वह उन्हीं में खो जाती है और कहती है, 'छह साल तेरे साथ रहते-रहते मैं तो ये भूल गई कि एक दिन हमको अलग होना पड़ेगा। तू चली जाएगी तो मैं कैसे रहूँगी।' विदेश गमन के समय चित्रा तो अन्य छात्राओं से मिलने चली जाती है किंतु अरुणा उसका सारा सामान तैयार करती है। जब चित्रा गुरु जी के पास से वापिस नहीं लौटती तो उसे बेचैनी होती है और उसे देखने जाने के लिए तत्पर हो उठती है।
अरुणा के हृदय में दूसरों के लिए इतना दर्द है कि वह हर परिस्थिति में उसकी सहायता करना चाहती है। 'गर्ग स्टोर' के सामने वाले पेड़ के नीचे बैठने वाली भिखारिन की घटना सुनते ही वह अपनी सखियों को छोड़ उसे देखने चली जाती है। वहाँ भिखारिन के बच्चों को सँभालने में वह इतनी तल्लीन हो जाती है कि अपनी प्रिय सखी को विदा करने के लिए स्टेशन पर भी नहीं जा पाती। वह भिखारिन के रोते-चीखते दोनों बच्चों को सँभालती है और उन्हें अपने पास रख कर भरण-पोषण करके नया जीवन देती है।
अरुणा के इस प्रेम भाव से चित्रा भी चकित रह जाती है। जब अरुणा चित्रा की चित्र प्रदर्शिनी में अपने साथ मत भिखारिन के दोनों बच्चों को लाती है और चित्रा को पता चलता है कि ये दोनों बच्चे वे ही हैं जिनकी वजह से उसे इतनी प्रसिद्धि मिली है तो विस्मय से उसकी आँखें फैली की फैली रह जाती हैं। वस्तुतः उसी दिन उसे इस बात का अहसास होता है कि वास्तविक कला तो दूसरों को जीवन देना है जिसे उसकी सखी अरुणा ने इन दो बच्चों को दिया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अरुणा के हृदय में सच्ची संवेदना है। दया, करुणा, मैत्री, परोपकार तथा सहानुभूति से भरा उसका हृदय कर्म के प्रति अनुप्रेरित करता रहता है।
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