रंगनाथ का चरित्र चित्रण - रंगनाथ इतिहास में एम.ए. पास नवयुवक है। जो शोधकार्य में लगा हुआ है। वह वैद्यजी का भांजा है। स्वास्थ्य सुधारने और शोधकार्य के
रंगनाथ का चरित्र चित्रण - Rangnath Ka Charitra Chitran
रंगनाथ का चरित्र चित्रण - रंगनाथ इतिहास में एम.ए. पास नवयुवक है। जो शोधकार्य में लगा हुआ है। वह वैद्यजी का भांजा है। स्वास्थ्य सुधारने और शोधकार्य के लिए सोचने के लिए गाँव के प्राकृतिक वातावरण में रहना ठीक रहेगा, यही समझकर वे मामा के घर शिवपालगंज आ जाता है।
शिवपालगंज आते समय रंगनाथ को ड्राइवर कहने पर चपरासी के हाथ में रिश्वत के रूप में दो रुपए रखने पड़े। इस घटना की चर्चा होती है तो रंगनाथ को मालूम हो जाता है कि शिवपालगंज के गंजहों से सब डरते हैं। यहाँ गुंदागर्दी को सम्मान के साथ स्वीकार किया जाता है। धीरे-धीरे रंगनाथ व्यक्तियों, उनके कार्यकलापों से परिचित हो जाता है। उसे ग्रामीण परिवेश में फैली विसंगतियों और विकृतियों का पता चल जाता है। वह अपने को इस नीतिहीन परिवेश से समायोजना करना चाहता है। यहाँ की घटनाओं और उनके प्रति लोगों की मानसिकता से उसका मनोरंजन हो जाता है। पर जब जब गाँव की अनीति, धांधली, धूर्तता, गुंडागर्दी आदि स्पष्ट देखता है, तो उसे हार्दिक पीड़ा होती है। क्रोध भी होता है। पर वह कुछ कर नहीं पाता। इस विकृत परिस्थिति को सुधारने के लिए उसमें आत्म विश्वास की कमी है। इस स्थिति से निपटने के लिए जिस साहस, और कर्म-प्रेरणा के लिए आवश्यकता होती है, रंगनाथ में वह नहीं है, वह अन्याय का तो विरोध नहीं कर सकता, बल्कि उसका क्रांति का शंखनाद कर नहीं पाता उसका हिस्सेदार भी हो जाता है। अंत में विवश होकर वह वहाँ से पलायन करने की तैयारी कर लेता है। वह शिक्षित है किन्तु अकर्मण्य और दिशाहीन युवावर्ग का प्रतिनिधि है।
पहले वह अपना स्वास्थ्य सुधारने के लिए मामाजी के द्वारा निर्धारत कार्यक्रमों का अनुपालन करता है। वह कार्यक्रम में एक संशोधन करता है, जिसमें मामाजी को कोई एतराज नहीं होता। वह पढ़ाई में रुचि न लेकर बैठक में गँजहों की संगति में बैठता है। मामाजी को लगता है कि स्वास्थ्यरक्षा के लिए वीर्यरक्षा में इसमें कोई खतरा नहीं है। संतोष हुआ कि एक पढ़ालिखा व्यक्ति उनके पास हर समय बैठा रहता है और हर बाहरी आदमी के साथ परिचित कराने के लिए वह हर समय तैयार मिलता है। शिवपालगंज में रहते हुए रंगनाथ को अहसास हो जाता है कि महाभारत की तरह जो कहीं नहीं है, वह यहाँ है। जो यहाँ नहीं है, वह कहीं नहीं है। लेखक ने इस पर व्यंग्य किया है कि रंगनाथ दांवपेंच और पैंतरेबाजी की अखिलभारतीय प्रतिभा यहाँ कच्चे माल के रूप में फैली पड़ी हुई देखकर सोचता है कि भारत में सांस्कृतिक एकता हर जगह पाई जाती है।
रंगनाथ ऐसे विकृत समाज को न अपना सकता है न उसे बदलने की क्षमता और आत्मविश्वास रखता है। वह मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा करने में असमर्थ है । वह क्रांति का शंखनाद नहीं कर पाता। इस पर रुप्पन उससे कहते हैं- “ इसमें तुम्हारा दोष नहीं है। दोष तुम्हारी पढ़ाई का है।"
रंगनाथ के चारों ओर गलत लोग गलत काम कर रहे हैं। वह किसी भी चुनौती का सामना नहीं करता। उसमें जीने को मजबूर हो जाता है। गुंडे छात्रों के नेता रुप्पन, घूसखोर फूड इंस्पेक्टर, गबन करने वाले कोऑपरेटिव सुपरवाइजर, कानून को किनारे पर रखकर काम करने वाले दारोगा, मेले की भीड़ में स्त्रियों से खिलवाड़ करने वाले सनीचर साजिश करने वाले शोषक प्रिंसिपल, छात्रों के साथ कुकर्म करने वाले मास्टर मालवीय, शोषित मास्टर खन्ना, अध्यापन को गौण मानने वाले अयोग्य मास्टर मोतीराम, एक छात्र सत्ताधिकारी धूर्त नेता वैद्यजी, बाप को पीटने वाले छोटे पहलवान - सभी को देखकर भी उनके सात जीना, फिर हारकर भाग जाना - रंगनाथ की दुर्बलताओं की ओर संकेत कर रहे हैं। उससे आशा की जाती है कि वह इस परिस्थितियों में तिलमिला उठे, सामना करने को कटिबद्ध हो जाए समाज को बदल डाले और मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा करें, पर वह कोई कारगर कदम नहीं उठाता, दिव्यद्रष्टा बनकर रह जाता है। उसे पहले शिवपालगंज आते समय झंझटों से निजात पाने के लिए स्टेशन वैगन के चपरासी को दो रुपए रिश्वत देने पड़ते हैं।
चूंकि रंगनाथ भारतीय पुरातत्व पर शोध कर रहा था, इसलिए वह मंदिर की पुरानी मूर्ति देखने गया। उसने देखा कि मूर्ति किसी देवी की न होकर एक सिपाही की मूर्ति थी। वह पुजारी को यह रहस्य बताता है, तो पुजारी विफर पड़ता है, धक्का देकर रंगनाथ को दूर फेंक देता है। रुप्पन स्थिति की बनती जा रही गंभीरता को भांपकर रंगनाथ को अलग ले लेता है। बात यहीं खतम होती है। रंगनाथ भी आगे इस पर नहीं सोचता।
क्राइसिस ऑफ कांशस : रंगनाथ बुद्धिजीवी होने के नाते 'क्राइसिस ऑफ कांशस' का शिकार बन गया है। ऐसे लोग मानसिक तनावग्रस्त रहते हैं और निराशावादी होते हैं, लेकिन लम्बे लम्बे भाषण देते हैं, जोर जोर से तर्क करते हैं। शिवपालगंज में कॉलेज के मैनेजर के चुनाव में वैद्यजी की धूर्ततापूर्ण विजय को देखकर उसे लगता है कि वह भी डकैतों के किसी गिरोह का सदस्य हो गया है। उसे लगता है कि यह यदि शहर होता तो काफी हाऊस में जाकर इस घटना पर वह लंबा चौड़ा भाषण देता, दिल का गुब्बार निकलता। वह सोचता है कि अपने दिल का दर्द अगर रूप्पन से कहे तो उसे 'क्राइसिस ऑफ कांशस' से छुटकारा मिल सकता है।
रंगनाथ आत्मसंकट रुप्पन के सामने रखता है। तो यह सब पालटिक्स में चलता है कहने के बावजूद वह खन्ना की सहायता करने और प्रिंसिपल को फोड़ने को राजी हो जाता है। रंगनाथ को अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए रुप्पन की सहायता मिलने की उम्मीद हो जाती है।
मानसिक व्यभिचार : रंगनाथ में प्रत्यक्ष रूप से कोई चारित्रिक खेल दिखाई नहीं देता। पर रात को अकेले सोते समय वह रुप्पन और बेला को लिखे गए प्रेम-पत्र की याद करता है। फिर पत्र से हटकर बेला के रूप-रंग यौवन - उभार आदि पर सोचता है। अगली रात को बेला छतों को पार करती हुई रुप्पन से शारीरिक मिलन के लिए पहुँचती है। रुप्पन समझकर रंगनाथ से लिपट जाती है । रंगनाथ की नींद खुल जाती है। और ‘वह कौन है' चिल्लाता है। बेला अपनी गलती समझकर भाग जाती है। तब अपनी मूर्खता पर रंगनाथ पछताकर सोचता है- “ श्रीमान, आप चुगद हैं, आपको बोलने की क्या जरूरत थी ? आप घबरा क्यों गए? आपने उसे कुछ और करने का मौका क्यों नहीं दिया ?"
आत्मसंतोष : मेले में देवी की मूर्ति को सैनिक की मूर्ति पहचानकर रंगनाथ को पुरातत्ववेत्ता होने का संतोष मिलता है । तीन गंजहों के मेले में दुकानदार से मिल मिठाई- चाट खाकर उल्टे पैसे देने की बात करने, और सिपाही का छोटे का पक्ष लेकर झगड़ा मिटाने और इससे दोनों पक्षों के असंतोष को देखकर रंगनाथ पांच रुपए का नोट निकालकर दुकानदार को देता है और कीमत काटकर बाकी पैसे वापस करने को कहता है। यद्यपि दुकानदार डर से पैसे नहीं लेता, पर ऐसा करके रंगनाथ को संतोष मिलता है।
रास्ते में काँस को फैलने से रोकने के लिए रंगनाथ उनको इकट्ठा करके गांठ लगाता है। पर दूसरे व्यक्ति से कहता है कि ऐसा करने से हनुमान जी प्रसन्न होते हैं। दूसरा आदमी और एक औरत उनकी देखादेखी गांठ लगाते जाते हैं। यह देखकर रंगनाथ को लगता है कि वह एक नए संप्रदाय का प्रवर्तक है। इससे उसे आत्म संतोष मिलता है।
रंगनाथ के बारे में बद्री का विचार इस प्रकार है। - " रंगनाथ चाहे जितनी गिचिर - पिचर करे उसको फिक्र क्या ? शहर का आदमी है। सूअर का लैंड - न लीपने के काम आए, न जलाने के। घबराकर वापस भाग जाएगा ।" रुप्पन के विचार से रंगनाथ ज्यादा पढ़ा-लिखा आदमी होने से कभी-कभी उल्टी-सीधी बातें करने लगता है।
अंत में रंगनाथ के बहाने बुद्धिजीवियों की निष्क्रियता की ओर संकेत करके लेखक पलायन संगीत सुना देते हैं। वे कहते हैं कि शिवपालगंज कीचड़ है। यहाँ कोई आदमी कीचड़ में फंस तो जाएगा, लेकिन कीचड़ से कमल खिला नहीं सकेगा।
लेखक ऐसे बुद्धिजीवियों को व्यंग्यात्मक सलाह देते हैं कि वे विदेशी मदद से बने हुए नए-नए शोध संस्थानों में चले जाएँ, जहाँ भारतीय प्रतिभा का निर्माण हो रहा है या भारत के अतीत में छिप जाएँ।
अंत में प्रिंसिपल आकर रंगनाथ को खन्ना की जगह पर नौकरी करने की सलाह देते हैं तो रंगनाथ तिलमिला उठते हैं। उन्हें प्रिंसिपल की अवसरवादी स्वार्थी स्वभाव से घृणा हो जाती है। इसी समय एक मदारी अपने बंदरों को नचाकर तमाशा दिखा रहा है। यह प्रतीकात्मक रूप से लेखक प्रतिष्ठित करना चाहते हैं कि यहाँ वैद्यजी जैसे मदारी हैं तो बाकी सभी को बंदर की तरह उनके इशारे पर कूदना - नाचना पड़ेगा। बंदर रूपी मध्यवर्ग का आदमी किसी आदर्श की प्रतिष्ठा कर नहीं सकेगा। यहाँ परिवर्तन का सपना धूमिल हो जाएगा।
रंगनाथ यहाँ पलायनवादी बुद्धिजीवी के रूप में एक वर्ग का प्रतिनिधित्व अच्छी तरह कर सका है।
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