Hindi Essay on “Bharat mein Bal Shram ki Samasya”, “भारत में बाल श्रम की समस्या हिंदी निबंध”, for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.

Hindi Essay on “Bharat mein Bal Shram ki Samasya”, “भारत में बाल श्रम की समस्या हिंदी निबंध”, for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations. बाल-श्रमिक समस्या का सम्बन्ध मुख्यतया गरीबी और दो जून रोटी जुटाने की प्रक्रिया के साथ है। भारत में बाल-श्रमिकों की समस्या कोई नयी चीज़ नहीं है। स्वतंत्रता-प्राप्ति से पहले भी घरों में इस प्रकार के श्रमिक बच्चे हुआ करते थे, जिन्हें 'मुण्डू' कहकर पुकारा जाता था। पुकारने के सम्बोधन विभिन्न प्रान्तों में अलग तथा और कुछ भी हो सकते हैं, पर तब ये बाल-श्रमिक अक्सर पहाड़ी ही अधिक हुआ करते थे। पहाड़ी प्रदेशों और ग्रामों की निर्धनता तो सर्वविदित है ही। तब गरीब घरों के बच्चे माता-पिता की इच्छा या प्रेरणा ही मैदानी शहरों-प्रदेशों में आकर घरेलू नौकर का काम किया करते थे।

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बाल-श्रमिक समस्या का सम्बन्ध मुख्यतया गरीबी और दो जून रोटी जुटाने की प्रक्रिया के साथ है। कितने दुःख और निराशा की बात है कि जिन नन्हें-मुन्नों के खेलने-खाने या पढ़-लिखकर अपना भविष्य संवारने के दिन होते हैं. उन्हें दिन में विषम एवं दयनीय परिस्थितियों में, कई बार तो भूखे-प्यासे या आधे पेट रहकर बारह-चौदह घण्टे काम करना पड़ता है। केवल काम ही नहीं करना पड़ता. निर्दय मालिकों की भद्दी गालियों,लातें, मुक्के और घूंसे तक खाने पड़ते हैं। वह भी तब, जबकि राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर प्रत्येक वर्ष बाल दिवस मनाये जाते हैं। बच्चों को भविष्य के नागरिक घोषित करके उनके उचित लालन-पालन को राष्ट्रीय एवं महत मानवीय कर्त्तव्य कहा जाता है। परन्तु वस्तु-स्थिति यह है कि बाल-श्रमिकों की समस्या और स्थिति सुधरने के स्थान पर और भी विडम्बनापूर्ण और भयावह होती जा रही है।
Hindi Essay on “Bharat mein Bal Shram ki Samasya”, “भारत में बाल श्रम की समस्या हिंदी निबंध”, for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.
भारत में बाल-श्रमिकों की समस्या कोई नयी चीज़ नहीं है। स्वतंत्रता-प्राप्ति से पहले भी घरों में इस प्रकार के श्रमिक बच्चे हुआ करते थे, जिन्हें 'मुण्डू' कहकर पुकारा जाता था। पुकारने के सम्बोधन विभिन्न प्रान्तों में अलग तथा और कुछ भी हो सकते हैं, पर तब ये बाल-श्रमिक अक्सर पहाड़ी ही अधिक हुआ करते थे। पहाड़ी प्रदेशों और ग्रामों की निर्धनता तो सर्वविदित है ही। तब गरीब घरों के बच्चे माता-पिता की इच्छा या प्रेरणा ही मैदानी शहरों-प्रदेशों में आकर घरेलू नौकर का काम किया करते थे। अन्य क्षेत्रों में बाल-श्रमिक प्रायः दिखाई नहीं ही दिया करते थे। परन्तु आज तो स्थिति में गणात्मक परिवर्तन आ गया है। आज केवल पहाड़ी क्षेत्रों के बाल-श्रमिक ही नहीं, प्रत्येक क्षेत्र केबाल-श्रमिक देखे जा सकते हैं। उनका कार्य-क्षेत्र भी अब केवल घरों तक ही सीमित नहीं रह गया होटलों, ढाबों, दुकानों, कल-कारखानों, भट्टियों, छोटी-बड़ी फैक्टरियों आदि सभी स्थानों पर उन्हें कठोर श्रम करके बचपन को गलाते, बाल-इच्छाओं और भावी जीवन-विकास का गला घोंटते हुए देख सकते हैं। यहाँ तक कि फुटपाथों पर छोटी-मोटी वस्तुएँ, सान्ध्य-समाचार-पत्र आदि बेचते हुए भी उन्हें देखा जा सकता है। एक अबोध विवशता उनके चेहरों पर सदा झॉक रही हुआ करती है। तभी तो कभी-कभी कोई वस्तु लेने का उनका आग्रह सहज-स्वाभाविक बाल-हठ की सीमाओं का भी अतिक्रमण कर जाता है। उन्हें यह कहते भी सुना जाता है कि यदि कुछ न बिका तो उन्हें भूखा रहना पड़ेगा, अमुक से मार खानी पड़ेगी आदि। सचमुच, कितनी दयनीय स्थिति है यह स्वतंत्र भारत के सुकुमार बचपन की!

बाल-श्रमिकों के स्रोत क्या और कौन-से हैं, इस बात पर भी विचार कर लेना चाहिए।प्रायः तीन-चार प्रकार के बच्चे और किशोर घरों से दर पहँच बाल-श्रमिक बनने को विवशहुआ करते हैं। यहाँ यह बात भी देखने की. याद रखने की है कि अक्सर बाल-श्रमिकदूर-दराज के देहातों से आये हए ही होते हैं। स्थानीय बाल-श्रमिक बहुत कम मात्रा में पायेजाते हैं। बाल-श्रमिकों के मूल में घोर दरिद्रता तो प्राय: कारण-रूप रहती ही है। कुछ बच्चेमाँ-बाप के कठोर व्यवहार से तंग आकर भी घरों से भागकर भिखारी या बाल-मजदूर बननेको विवश हो जाया करते हैं। कई बार उचित वातावरण के अभाव में बच्चों का पढ़ाई-लिखाईमें मन नहीं लगता। स्कूल जाने पर मास्टरों और घर आने पर अभिभावकों से मार याझिड़की पड़ती है। तब इस स्थिति से हमेशा के लिए छुटकारा पाने के लिए वे घरों सेभाग खड़े होते हैं। पिता द्वारा दूसरा विवाह कर लेने और विमाता के व्यवहार से पीडितहोकर घरों से भागकर श्रम के लिए विवश होने वाले बच्चों की भी कमी नहीं है। इसीप्रकार कुसंगति में पड़कर भी कई बार बच्चों को घरों से भाग आना पड़ता है। कई बारअत्यधिक निर्धनता और अभावों की स्थिति में जीने वाले माता-पिता अबोध बच्चों को स्वयंभी श्रम करने को लगा देते हैं। इस प्रकार निर्धनता, दुर्व्यवहार और कुसंगति ही वे मुख्यस्रोत एवं कारण कहे जा सकते हैं, जो बाल-श्रम को बढ़ावा दे रहे हैं।

बाल-श्रम के कुछ परम्परागत कारण भी हैं। जैसे मोची, बढ़ई, कुम्हार, लोहार आदि परम्परागत धन्धों में लगे लोग स्वभाव से ही श्रमजीवी होते हैं। उनके बच्चे जैसे हीपाँच-सात साल के हुए कि उन्होंने उनसे अपने धन्धे का छोटा-मोटा काम लेना शरू कर दिया। उनकी पढ़ाई-लिखाई की ओर स्वयं अनपढ़-अशिक्षित होने के कारण उनका ध्यानही नहीं जाता। परिणामस्वरूप कुछ चुस्त-चालाक होने पर ऐसे बच्चे भी स्वतंत्र श्रम करने लगते हैं। ध्यान देने की मुख्य बात यह है कि ऐसे बच्चे स्वतंत्र धन्धे अपनाने के कारण स्वालम्बी होते हैं। जैसे पालिश आदि करने वाले बच्चे, तमाशगीरों के बच्चे। इनकी हालत और परिस्थितियाँ उतनी दयनीय नहीं हुआ करतीं, जितनी कि दूसरों के यहाँ काम करने वाले बाल-श्रमिकों की हुआ करती हैं। हाँ, अनेक प्रकार की अपराधों-बुराइयों के शिकार इस प्रकार के बच्चे भी देर-सवेर अक्सर अवश्य ही हो जाया करते हैं।

बाल-श्रमिक युवकों-प्रौढों की तुलना में सस्ते मिल जाते हैं। फिर उनसे कोई धौंस-धक्काया खतरा भी मालिकों को नहीं रहता। इस कारण भी होटलों. ढाबों, छोटी-मोटी फैक्टरियों आदि में बाल-श्रमिकों को प्रमुखता के साथ रखा जाता है। कम दाम और मनमाना काम,यह मनोवृत्ति इन बेचारों के शोषण के पीछे साफ-स्पष्ट देखी जा सकती है। यों भारत मेंऔर अन्तर्राष्ट्रीयता के स्तर पर भी चौदह वर्ष से कम आयु के बच्चे से काम न लेने का कानून बना हुआ है; पर अन्य कानून की ही यहाँ कौन परवाह करता है, जो इसकी ही की जाये! फिर कई बार गरीबी और भुखमरी की स्थिति में स्वयं माँ-बाप अमीरों,जमींदारों, ठेकेदारों के हाथों बच्चों को या तो बेच देते हैं या फिर बन्धक रख देते हैं। तब उनकी स्थिति बंधुआ जैसी हो जाती है और उनसे बेपनाह श्रम कराया जाता है। उनके साथ आम व्यवहार अमानवीय ही किया जाता है। ग्रामों, खदानों में पाये जाने वाले बाल-श्रमिकों कीअधिकांश संख्या इसी प्रकार की होती है। जो हो, जहाँ और जैसा भी रूप क्यों न हो, विकासोन्मुख बच्चों के पालन-पोषण, उनकी शिक्षा-दीक्षा और उचित विकास की ओर ध्यान न देकर,किसी स्तर पर और किसी भी रूप में कठोर काम करवाना एक घोर अपराध और अमानवीय कार्य है। इसका यथासम्भव निराकरण परम आवश्यक है।

बच्चे राष्ट्र की सम्पत्ति और भविष्य के नागरिक हुआ करते हैं। अत: प्रत्येक राष्ट्र कायह पहला कर्तव्य हो जाता है कि अपनी इस चल सम्पत्ति की रक्षा और विकास की तरफ उचित ध्यान दे। बाल-श्रमिक बनने को बाध्य होने की जो स्थितियाँ और परिस्थितियाँ हैं। या हो सकती हैं, उन्हें दूर करना राष्ट्र का राष्ट्रीय एवं सहज मानवीय दोनों प्रकार का कर्तव्य है। राष्ट्र के भविष्य को सुरक्षित रख उसे उन्नत और समृद्ध बनाने के लिए इस कर्तव्य का निर्वाह बहुत आवश्यक है। राष्ट्र की ओर से सभी प्रकार के बच्चों के भरण-पोषण, शिक्षा-दीक्षा आदि की उचित व्यवस्था होनी चाहिए। जो बच्चे अपने बचपन को किन्हीं कारणों से खोकर श्रम या अन्य प्रकार की विषम परिस्थितियों में फँस चुके हैं. उन्हें उन परिस्थितियों से निकाल उनका उचित पुनर्वास भी हमारे स्वतंत्र राष्ट्र का पुनीत कर्तव्य है। यदि इस ओर तत्काल ध्यान न दिया गया, तो बाल-श्रमिकों के रूप में मानवता तो पिसती ही रहेगी. हमारा भविष्य भी खतरे में पड़ जायेगा। अपनी इस अमानवीय लापरवाही के कारण इतिहास हमें कभी माफ न करेगा।
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