रानी दुर्गावती की कहानी। Rani Durgavati ki Kahani
रानी दुर्गावती का नाम इतिहास में महान वीरांगना के रूप में बड़े आदर और श्रद्धा से लिया जाता है। उनका जन्म उत्तरप्रदेश के राठ (महोबा) नामक स्थान पर हुआ था। वे कालिंजर के अन्तिम शासक महाराजा कीर्तिसिंह चन्देल की इकलौती सन्तान थी। नवरात्रि की दुर्गाष्टमी को जन्म लेने के कारण पिता ने इनका नाम दुर्गावती रखा। बचपन में ही दुर्गावती की माता का देहान्त हो गया था। पिता ने इन्हें पिता के साथ-साथ माँ का प्यार भी दिया और इनका पालन-पोषण बड़े लाड़ प्यार से किया।
दुर्गावती बचपन से ही बड़ी बहादुर थीं। अस्त्र-शस्त्र चलाने में और घुड़सवारी करने में उनकी विशेष रुचि थी। राजकुमार के समान ही उन्होंने वीरता के कार्यों का प्रशिक्षण लिया। बड़ी होने पर वे अकेली ही शिकार को जाने लगीं। बन्दूक और तीर-कमान से अचूक निशाना लगाने में वे निपुण थीं। दुर्गावती वीर होने के साथ-साथ सुशील, भावुक और अत्यन्त सुन्दरी भी थीं। इन गुणों के साथ-साथ दुर्गावती में धैर्य, साहस, दूरदर्शिता और स्वाभिमान भी कूट-कूट कर भरा था।
दुर्गावती का विवाह गोंडवाना नरेश राजा दलपति शाह से सम्पन्न हुआ। राजा दलपतिशाह बड़े वीर, दानी और न्यायप्रिय शासक थे। दुर्गावती अब गोंडवाना की रानी बन गईं। इनका वैवाहिक जीवन बड़ी सुख-शान्ति से बीतने लगा। इसी बीच रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम वीर नारायण रखा गया। महाराजा दलपतिशाह अचानक बीमार पड़ गए। उनका स्वास्थ्य बिगड़ता ही गया। एक दिन राजा इस संसार से चल बसे। रानी की तो मानो दुनिया ही उजड़ गई। रानी और प्रजा पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा।
अपने पुत्र की खातिर रानी को यह आघात सहन करना पड़ा। वीरनारायण उस समय बहुत छोटा था। रानी ने उसका राजतिलक सम्पन्न कराया और गढ़मण्डला राज्य की संरक्षिका के रूप में रानी स्वयं शासन का कार्य देखने लगीं। रानी दुर्गावती बड़ी ही सूझ-बूझ तथा कुशलता से राज्य का संचालन करने लगीं। वीर नारायण की शिक्षा भी अच्छी तरह से चल रही थी। राज्य में धन-दौलत की कमी नहीं थी। प्रजा सुख-चैन की वंशी बजा रही थी। रानी ने अपनी प्रजा की भलाई के लिए अनेक योजनाएँ चलाईं। अनेक निर्माण कार्य किए। अपने राज्य में अनेक इमारतें, कुएँ, तालाब, बावड़ी आदि भी बनवाए। इनके शासनकाल को गोंडवाने का स्वर्णयुग कहा जाता है। प्रजा उनके कार्य और व्यवहार से प्रसन्न और सन्तुष्ट थी।
जबलपुर नगर में स्थित रानीताल, चेरीताल और मदनमहल आज भी रानी की स्मृति को बनाए हुए हैं। उस समय इनके राज्य में बावन गढ़ थे। रानी दुर्गावती ने सोलह वर्षों तक कुशलतापूर्वक अपने राज्य की देखभाल की। इस बीच रानी ने अपनी सेना को नए ढंग से संगठित किया। नारी-सेना बनाई और शत्रु राज्यों में गुप्तचरों का जाल बिछाया। इससे राज्य की शासन व्यवस्था में काफी सुधार आया और राज्य की शक्ति भी बढ़ी। गढ़मण्डला राज्य की सम्पन्नता देखकर अनेक राजाओं ने उनके राज्य पर आक्रमण किए पर रानी की वीरता के आगे उन्हें परास्त होना पड़ा।
उस समय दिल्ली में सम्राट अकबर का राज्य था। गढ़मण्डला की सम्पन्नता और स्वतन्त्रता उसकी आँख की किरकिरी बनी थी। उसने सोचा कि स्त्री होने के कारण रानी दुर्गावती से उसका राज्य छीनने में कोई मुश्किल नहीं होगी। उसने सर्वप्रथम एक सन्देशवाहक भेजकर रानी दुर्गावती को यह पैगाम भेजा कि वह उसकी आधीनता स्वीकार कर लें। पैगाम पाते ही रानी आग बबूला हो गईं और उन्होंने बादशाह अकबर का पैगाम ठुकरा दिया। अकबर ने अपने सेनापति आसिफ खाँ को गढ़मण्डला पर अधिकार करने के लिए भेज दिया। सेनापति आसिफ खाँ एक बहुत बड़ी सेना और तोपखाना लेकर गढ़मण्डला की ओर चल पड़ा।
रानी को इस आक्रमण की सूचना मिली, तो उन्होंने अपनी प्रजा को संगठित कर उसका सामना करने का निश्चय किया। रानी दुर्गावती ने मुगल सेना से लड़ने के लिए अपने राज्य के सबसे मजबूत किले सिंगौरगढ़ को चुना। यह गढ़ आजकल दमोह जिले में है। आसिफ खाँ ने अपनी विशाल सेना के घमण्ड में सिंगौरगढ़ पर चढ़ाई कर दी।
किले के बाहर रानी से उसकी पहली मुठभेड़ हुई। शत्रु सेना के मुकाबले रानी की सेना बहुत कम थी, पर रानी दुर्गावती साक्षात् दुर्गा की तरह युद्ध में कूद पड़ी। रानी ने बड़ी बुद्धिमानी और चतुराई से मुगल सेना को विन्ध्य पर्वत की एक सँकरी घाटी में आने के लिए विवश कर दिया। घाटी में बसे नरही गाँव के पास रानी ने चट्टानों में छिपे अपने सैनिकों की सहायता से अकबर की सेना को आसानी से परास्त कर दिया।
मुगल सेना को हटना पड़ा, तभी उसका पीछे रह गया तोपखाना आ गया। मुगल सेना ने बड़ी-बड़ी तोपों से गोलों की झड़ी लगा दी। रानी के सैनिक तीर-कमान और तलवार से लड़ रहे थे। रानी भी हाथी पर सवार होकर अदम्य साहस के साथ दुश्मन से जूझ रही थीं। रानी की फौज के पीछे एक सूखी नदी थी। अचानक पानी बरसने से उसमें बाढ़ आ गई। सामने शत्रु का आग उगलता तोपखाना, पीछे बाढ़ आई नदी, रानी और उनकी सेना दोनों ओर से घिर गए। घमासान युद्ध होने लगा, परन्तु तोप के गोलों का मुकाबला तीर तलवार कब तक करते। फिर भी रानी दुर्गावती वीरतापूर्वक आसिफ खाँ की विशाल सेना से जूझती रहीं। यहाँ तक कि एक बार फिर मुगल सेना के सामने हार का खतरा उत्पन्न हो गया। तभी एक तीर रानी की बाँयीं आँख में आ लगा। बहुत प्रयास करने के बाद भी तीर का फलक आँख से नहीं निकला।
उसी समय शत्रु से लड़ते-लड़ते उनके पुत्र वीरनारायण की मृत्यु हो गई। इससे सारी सेना घबरा गई और उसमें हाहाकार मच गया। पुत्र को वीरगति प्राप्त होने पर भी रानी विचलित नहीं हुई। घायल होते हुए भी और अधिक वीरता के साथ मुगल सेना का सामना करने लगीं।
तभी एक और तीर रानी के गले में आकर लगा। यह तीर प्राणघातक सिद्ध हुआ। अब उन्हें अपने जीवन और जीत की आशा न रही। जीते जी शत्रु उनके शरीर को न छू सके, इसलिए उन्होंने अपनी कटार अपनी छाती में भोंक ली और स्वयं को समाप्त कर लिया। रानी दुर्गावती ने अन्तिम साँस तक अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अद्वितीय वीरता, अदम्य साहस और असाधारण रण कौशल का परिचय दिया। इस तरह रानी दुर्गावती अपनी मातृभूमि की आन-बान-शान पर मिटकर भी अमर हो गई। युगों-युगों तक उनका अलौकिक आत्म-त्याग प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा।
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