हिंदी लोककथा बदी का फल। Lok Katha In Hindi : किसी गांव में दो मित्र रहते थे। बचपन से उनमें बड़ी पक्की दोस्ती थी। उनमें से एक का नाम था पापबुद्धि और दूसरे का धर्मबुद्धि । पापबुद्धि कोई भी गलत काम करने में हिचकिचाता नहीं था। कोई भी ऐसा दिन नहीं जाता था, जब वह कोई गलत काम न करे, यहां तक कि वह अपने सगे-सम्बंधियों के साथ भी बुरा व्यवहार करने में नहीं चूकता था। दूसरी ओर धर्मबुद्धि सदा अच्छे-अच्छे काम किया करता था। वह किसी भी जरूरतमंद की मदद करने के लिए सदैव तन, मन, धन से पूरा प्रयत्न करता था। वह अपने इसी चरित्र के कारण प्रसिद्द था।
हिंदी लोककथा बदी का फल। Lok Katha In Hindi
किसी गांव में दो मित्र रहते थे। बचपन से उनमें बड़ी पक्की दोस्ती थी। उनमें से एक का नाम था पापबुद्धि और दूसरे का धर्मबुद्धि । पापबुद्धि कोई भी गलत काम करने में हिचकिचाता नहीं था। कोई भी ऐसा दिन नहीं जाता था, जब वह कोई गलत काम न करे, यहां तक कि वह अपने सगे-सम्बंधियों के साथ भी बुरा व्यवहार करने में नहीं चूकता था।
एक दिन पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि के पास जाकर कहा, "मित्र ! तूने अब तक किसी दूसरे स्थानों की यात्रा नहीं की। इसलिए तुझे और किसी स्थान की ज़रा भी जानकारी नहीं है। जब तेरे बेटे-पोते उन स्थानों के बारे में तुझसे पूछेंगे तो तू क्या जवाब देगा ? इसलिए मित्र, मैं कहता हूं कि तू मेरे साथ दूर देशों की यात्रा पर चल।"
धर्मबुद्धि ठहरा निष्कपट। वह छल-फरेब नहीं जानता था। उसने पापबुद्धि की बात मान ली। ब्राह्राण से शुभ मुहूर्त निकलवा कर वे यात्रा पर चल पड़े। चलते-चलते वे एक सुदूर सुन्दर नगरी में पहुंचे और फिर वे वहीँ रहने लगे। पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि की सहायता से बहुत-सा धन कमाया। जब अच्छी कमाई हो गई तो वे अपने गाँव की ओर रवाना हुए। रास्ते में पापबुद्धि मन-ही-मन सोचने लगा कि यदि मैं किसी प्रकार इस धर्मबुद्धि का सारा धन हथिया लूं, तो मैं रातोंरात धनवान बन जाऊँगा। इसका उपाय भी उसने खोज लिया।
दोनों गांव के निकट पहुंचे। पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि से कहा, "मित्र, यह सारा धनगांव में ले जाना ठीक नहीं।" यह सुनकर धर्मबुद्धि ने पूछा, "इसको कैसे बचाया जा सकता है? "
पापबुद्धि ने कहा, "सारा धन अगर गांव में ले गये तो इसे भाई बटवा लेंगे और अगर कोई पुलिस को खबर कर देगा तो जीना मुश्किल हो जायगा। इसलिए इस धन में से आवश्यकता के अनुसार थोड़ा-थोड़ा लेकर बाकी को किसी जंगल में गाड़ दें। जब जरुरत पड़ेगी तो आकर ले जायेंगे।"
यह सुनकर धर्मबुद्धि बहुत खुश हुआ। दोनों ने वैसा ही किया और घर लौट गए।
कुछ दिनों बाद पापबुद्धि उसी जंगल में गया और सारा धन निकालकर उसके स्थान पर मिट्टी के ढेले भर आया। उसने वह धन अपने घर में छिपा लिया। तीन-चार दिन बाद वह धर्मबुद्धि के पास जाकर बोला, "मित्र, जो धन हम लाये थे वह सब खत्म हो चुका है। इसलिए चलो, जंगल में जाकर कुछ धन और लें आयें।"
धर्मबुद्धि उसकी बात मान गया और अगले दिन दोनों जंगल में पहुंचे। उन्होंने गुप्त धन वाली जगह गहरी खोद डाली, मगर धन का कहीं भी पता न था। इस पर पापबुद्वि ने बड़े क्रोध के साथ कहा, " धर्मबुद्धि, यह धन तूने ले लिया है।"
धर्मबुद्धि को बड़ा गुस्सा आया। उसने कहा, "मैंने यह धन नहीं लिया। मैंने अपनी जिंदगी में आज तक ऐसा नीच काम कभी नहीं किया ।यह धन तूने ही चुराया है।"
पापबुद्वि ने कहा, "मैंने नहीं चुराया, तूने ही चुराया है। सच-सच बता दे और आधा धन मुझे दे दे, नहीं तो मैं न्यायधीश से तेरी शिकायत करूंगा।"
धर्मबुद्धि ने यह बात स्वीकार कर ली। दोनों न्यायालय में पहुंचे। न्ययाधीश को सारी घटना सुनाई गई। उसने धर्मबुद्वि की बात मान ली और पापबुद्धि को सौ कोड़े का दण्ड दिया। इस पर पापबुद्धि कांपने लगा और बोला, "महाराज, वह पेड़ पक्षी है। हम उससे पूछ लें तो वह हमें बता देगा कि उसके नीचे से धन किसने निकाला है।"
यह सुनकर न्यायधीश ने उन दोनों को साथ लेकर वहां जाने का निश्यच किया। पापबुद्धि ने कुछ समय के लिए अवकाश मांगा और वह अपने पिता के पास जाकर बोला, "पिताजी, अगर आपको यह धन और मेरे प्राण बचाने हों तो आप उस पेड़ की खोखर में बैठ जांए और न्यायधीश के पूछने पर चोरी के लिए धर्मबुद्धि का नाम ले दें।"
पिता राजी हो गये। अगले दिन न्यायधीश, पापबुद्धि और धर्मबुद्धि वहां गये। वहां जाकर पापबुद्धि ने पूछा, "ओ वृक्ष ! सच बता, यहां का धन किसने चुराया है।" खोखर में छिपे उसके पिता ने कहा, " धर्मबुद्धि ने।"
यह सुनकर न्यायधीश धर्मबुद्धि को कठोर कारावास का दण्ड देने के लिए तैयार हो गये। धर्मबुद्धि ने कहा, "आप मुझे इस वृक्ष को आग लगाने की आज्ञा दे दें। बाद में जो उचित दण्ड होगा, उसे मैं सहर्ष स्वीकार कर लूंगा।"
न्यायधीश की आज्ञा पाकर धर्मबुद्धि ने उस पेड़ के चारों ओर खोखर में मिटटी के तेल के चीथड़े तथा उपले लगाकर आग लगा दी। कुछ ही क्षणों में पापबुद्धि का पिता चिल्लाया "अरे, मैं मरा जा रहा हूं। मुझे बचाओ।"
पिता के अधजले शरीर को बाहर निकाला गया तो सच्चाई का पता चल गया। इस पर पापबुद्धि को मृत्यु दण्ड दिया गया। धर्मबुद्धि खुशी-खुशी अपने घर लौट गया।
इस कहानी का श्रेया श्री शशिप्रभा गोयल जी को जाता है।
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