आकाशदीप कहानी का सार - मूल संवेदना: आकाशदीप कहानी की मूल संवेदना (सार) एक घटना से जुड़ी हुई है जिसके अनुसार दिखाया गया है कि प्रेम किस प्रकार कर्म पर विजय प्राप्त कर लेते है। जलदस्यु बुद्धगुप्त को दुर्दान्त बनाने में परिस्थितियों की अहम भूमिका थी, अन्यथा वह भी क्षत्रिय था। अब जलपोतों को लूटना और विरोध करने वालों की नृशंस हत्याकर देना है। उसका कर्म बन चुका था। चम्पा अपनी माँ की मृत्यु के बाद अपने पिता के साथ पोत में ही रहने लगी, जिसका उसने बार-बार उल्लेख भी किया है। एक बार जलदस्युओं ने उसके पिता के जलपोत पर हमला किया। अन्य प्रहरियों के साथ उसके पिता मणिभद्र की भी हत्या हो जाती है।
आकाशदीप कहानी का सार - मूल संवेदना
हिन्दी साहित्य के प्रमुख स्तंभ, कवि, नाटककार, उपन्यासकार एवं कहानीकार जयशंकर प्रसाद मानव-मन की भावनाओं को चित्रित करने में कुशल शिल्पी रहे हैं। उनके द्वारा लिखित कहानी आकाशदीप भी इस भावना से पृथक् नहीं है। कहानीकार ने बड़े ही नाटकीय ढंग से भाव तथा अनुभूतियों को साकार बनाने का सफल प्रयास किया है। बुद्धगुप्त को जलदस्यु आरै चम्पा को बंदिनी कहकर प्रसाद जी ने पाठक को उस मूल संवेदना के साथ जोड़ा है, जिससे पता चलता है कि मानव के आचरण और व्यवहार को प्रेम तथा त्याग के रास्ते पर चलाकर काफी बदला जा सकता है। वैसे भी प्रसाद जी इतिहास और कल्पना का सुन्दर समन्वय करने में सिद्धहस्त रहे हैं।
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आकाशदीप कहानी की मूल संवेदना (सार) एक घटना से जुड़ी हुई है जिसके अनुसार दिखाया गया है कि प्रेम किस प्रकार कर्म पर विजय प्राप्त कर लेते है। जलदस्यु बुद्धगुप्त को दुर्दान्त बनाने में परिस्थितियों की अहम भूमिका थी, अन्यथा वह भी क्षत्रिय था। अब जलपोतों को लूटना और विरोध करने वालों की नृशंस हत्याकर देना है। उसका कर्म बन चुका था। चम्पा अपनी माँ की मृत्यु के बाद अपने पिता के साथ पोत में ही रहने लगी, जिसका उसने बार-बार उल्लेख भी किया है। एक बार जलदस्युओं ने उसके पिता के जलपोत पर हमला किया। अन्य प्रहरियों के साथ उसके पिता मणिभद्र की भी हत्या हो जाती है। मणिभद्र की कुदृष्टि चम्पा पर पड़ती है और वह उसे बन्दी बना लेता है। उसी जहाज पर बन्दी बुद्धगुप्त भी था, जो मौका लगते ही चतुराई से बन्धनमुक्त हो जाते है। जैसे ही चम्पा बुद्धगुप्त को देखती है तो समझ जाती है यही जलदस्यु मेरे पिता की मौत का कारण है। बुद्धगुप्त से घृणा करने लगती है।
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इस बीच उनकी नाव एक सुनसान द्वीप से जा टकराती है। बुद्धगुप्त उस द्वीप का नाम चम्पाद्वीप रख देता है और चम्पा को समझाता है कि वह उसके पिता की मौत का कारण नहीं है। इससे चम्पा के प्रेम में और वृद्धि होती है। दोनों परिणय-सूत्र बंधते हैं। बुद्धगुप्त चाहता है कि परिणय के बाद दोनों स्वदेश वापस लौटें। लेकिन चम्पा इंकार कर देती है और बताती है कि वह संसार से विरक्त हो चुकी है। संसार की किसी वस्तु के प्रति उसके मन में कोई आकर्षण या लगाव नहीं है। इसी क्रम में एक दिन जब वह नीले समुन्द्र में जलते दीपों की परछाईं और उनकी चमक देखती है तो उसे अपनी माँ की याद आ जाती है। वह बुद्धगुप्त को जलते दीपक के सम्बन्ध में बताती है कि इसमें किसी के आने की उम्मीद भरी हुई है। चम्पा कहती है कि जब मेरे पिता समुन्द्र में जाया करते थे तो मेरी माँ ऊंचे खंभे पर दीपक जलाकर बांधा करती थी जिससे संदेश मिलता था कि कोई घर पर इंतजार कर रहा है इसलिए मैं भी निरन्तर आकाश के छितराये तारों की चमक समुन्द्र-जल में देखती हूँ।
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इन सभी उदाहरणों से स्पष्ट है कि ‘आकाशदीप’ कहानी की मूल संवदेना प्रेम और कर्तव्य के द्वन्द्व पर आधारित है। कहानीकार ने चम्पा के व्यक्तित्व एवं आचरण में प्रेम की जो झलक दिखायी है, वह कर्तव्य-बोध के सम्मुख फीकी पड़ जाती है। वह बुद्धगुप्त का प्यार छोड़ने के लिए तैयार हो जाती है लेकिन द्वीप के लोगों का विकास करने के लिए अपनी कर्तव्य-भावना पर अडिग रहती है। साथ ही कहानीकार प्रसाद ने द्वीप-निवासियो द्वारा उसके प्रति श्रद्धा एवं विश्वास का भाव दिखाकर उसे उत्साहित करने का प्रयास किया है। कहानी के अंत में प्रसाद जी द्वारा कहे गए वाक्य भी कहानी की मूल संवेदना को स्पष्ट करने में सक्षम हैं- “यह कितनी ही शताब्दियों पहले की कथा है। चम्पा आजीवन उस द्वीप-स्तम्भ में आलोक जलाती ही रही। किन्तु उसके बाद भी बहुत दिन, द्वीपनिवासी, उस माया-ममता और स्नेह-सेवा की देवी की समाधि-सदृश उसकी पूजा करते थे।”
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