नर हो न निराश करो मन को पर निबंध : नर शब्द एक जातिवाचक संज्ञा है। किसका मुख्य अर्थ तो मनुष्य ही लिया जाता है परंतु इस संज्ञा का एक भाववाचक अर्थ भी लिया जाता है। एक आम प्रयोग में आने वाले वाक्य में इस भावात्मक अर्थ को ठीक से समझा जा सकता है। अक्सर बातचीत में किसी वीर, साहसी और क्रियाशील व्यक्ति के लिए कहा जाता है कि वह तो बड़ा नर आदमी है। साधारण अर्थ में नर और आदमी एक ही अर्थ हैं पर जब आदमी संज्ञा के साथ नर का विशेषण के तौर पर प्रयोग किया जाता है तब नर का अर्थ वीर, साहसी, कर्मशील व्यक्ति हो जाया करता है।
नर हो न निराश करो मन को पर निबंध
संसार में छोटे-बड़े अनेक प्राणी रहते हैं। उनकी वास्तविक संख्या का ज्ञान अभी तक शायद किसी को भी नहीं है। फिर भी हमारे देश की परंपरा में माना जाता है की 8400000 योनियों को भोगने के बाद अच्छे कर्म करने के बल पर, मनुष्य का जन्म मिला करता है। इस मान्यता का अर्थ हुआ कि संसार में जन्म लेने वाले प्राणियों की संख्या कम से कम 8400000 तो है ही। क्योंकि उन सबके कष्ट भोगने के बाद मनुष्य का जन्म मिल पाता है, इस प्रकार कहा जा सकता है कि मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। श्रेष्ठ प्राणी होकर भी यदि किसी कारणवश मनुष्य उदास या निराश हो जाता है तो इसे उचित और अच्छी बात नहीं कहा जा सकता। विषय से संबंधित शीर्षक पंक्ति का सामान्य अर्थ यही किया जा सकता है।
नर शब्द एक जातिवाचक संज्ञा है। किसका मुख्य अर्थ तो मनुष्य ही लिया जाता है परंतु इस संज्ञा का एक भाववाचक अर्थ भी लिया जाता है। एक आम प्रयोग में आने वाले वाक्य में इस भावात्मक अर्थ को ठीक से समझा जा सकता है। अक्सर बातचीत में किसी वीर, साहसी और क्रियाशील व्यक्ति के लिए कहा जाता है कि वह तो बड़ा नर आदमी है। साधारण अर्थ में नर और आदमी एक ही अर्थ हैं पर जब आदमी संज्ञा के साथ नर का विशेषण के तौर पर प्रयोग किया जाता है तब नर का अर्थ वीर, साहसी, कर्मशील व्यक्ति हो जाया करता है। हमारे विचार में इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि शीर्षक पंक्ति में कवि ने नर शब्द का प्रयोग आदमी या मनुष्य के अर्थ में तो किया ही है, ऊपर बताए गए विशेषणों के अर्थ में भी किया है। ऐसा मानकर ही हम कवि के कथन की गहराई तक पहुंच सकते हैं। कवि मनुष्यों से कहना चाहता है भाई, आप मनुष्य हो। आप रणवीर, साहसी, और बुद्धिमान व कर्मशील भी हो। ठीक है, अपना कर्म करने पर भी इस बार तुम्हें सफलता नहीं मिल सकती। साहस करके भी मनचाहा फल नहीं पा सके। वीरता और बुद्धिमानी से काम ले कर भी जो चाहते थे, वह नहीं कर पाए। फिर भी इसमें निराश होने की क्या बात है? अरे भाई, यदि इस बार मनचाहा फल नहीं प्राप्त हो सका, को क्या हो गया? निराश और उदास होकर बैठ जाने से काम थोड़े ही चलने वाला है। नहीं, निराशा और उदासी त्यागकर ही कुछ कर पाना संभव हुआ करता है।
तुम नर अर्थात मनुष्य हो। फिर यह क्यों भूल जाते हो कि मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। आखिर इस श्रेष्ठता का कारण क्या है? यही ना कि मनुष्य के पास सोचने-विचारने के लिए बुद्धि होती है। भावना, कल्पना और दृढ़ता के लिए मन होता है। सुख-दुख के क्षणिक भावों से ऊपर और आनंद में लीन रहने वाली जागृत आत्मा रहती है। चलने और दौड़ कर आगे बढ़ने के लिए दो शक्तिशाली पैर होते हैं। कार्य करने के लिए दो मजबूत हाथ होते हैं। फिर वह इन सब का उचित ढंग से प्रयोग करना भी जानता है। इन्हीं सब बातों या विशेषताओं के कारण ही तो मनुष्य को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा गया है। नहीं तो खाना-पीना, सोना, डरना, कामवासना पूरी करके बच्चे पैदा करना आदि काम तो पशु भी कर लेते हैं। यदि जीवन का अर्थ इतना सब करना ही होता, तो फिर मनुष्य और पशु में क्या अंतर रह जाता? वही अंतर तो है ना कि जिनकी चर्चा हम ऊपर कर आए हैं। अर्थात मनुष्य के पास बुद्धि और भाव हैं। मनुष्य के पास मनुष्यता के धर्म का ज्ञान है। वह सोच-समझकर योजना बनाकर, लगातार परिश्रम करके काम कर सकता है। सफलता पा सकता है। जबकि पशु के पास यह सारी बातें नहीं होती और वह परिश्रम से सफलता के कार्य नहीं कर सकता। सोच-विचार और भाव की राह पर नहीं चल सकता। इतनी सारी विशेषताएं, गुणों और धर्मों के रहते हुए भी निराश होना। नहीं, ये नरता या मनुष्यता का गुण, धर्म या लक्षण नहीं माना जा सकता।
यह ठीक है कि जीवन के साथ तरह-तरह के सुख-दुख लगे हुए हैं। मनुष्य जीवन के साथ हार-जीत की अनेक कहानियां जुड़ी हुई है। बीमारियां महामारियां आकर भी पीड़ित तथा परेशान करती रहती हैं। प्रकृति के अनेक प्रकार के प्रकोप भी मनुष्य को सहने पड़ते हैं। परंतु इन सब का अर्थ यह कहां है कि निराश होकर बैठ जाओ और कर्तव्यों का पालन या कर्म करना क्या दो। नहीं, इसका यह अर्थ कदापि नहीं है। नरता या मनुष्यता हिम्मत हारकर, निराश होकर बैठ जाना नहीं है। बल्कि उस तरह की समस्त आपदाओं से लड़ने और संघर्ष करने में नरता है। मनुष्यता की भावना ने ही जागकर आज संसार में बड़े-बड़े और महान कार्य किए हैं। आज तक मनुष्य ने जितनी भी और जहां भी प्रगति की है, नए-नए अन्वेषण और आविष्कार किए हैं, वह सब नर की नरता का जीता-जागता उदाहरण है। सदियों का इतिहास बताता है कि निराशा त्यागकर मनुष्य ने जब जो कुछ करना चाहा वह उसमें अवश्य सफल हुआ। इसलिए यदि किसी कारणवश तुम सफलता नहीं पा सके, तो कोई बात नहीं। अभी भी निराशा छोड़कर कर्म पथ पर डट जाओ। सफलता अवश्य मिलेगी।
मनुष्य के लिए संसार में असंभव कभी कुछ भी नहीं रहा। उसने अपने कर्मों से सब कुछ संभव करके दिखाया है। राष्ट्र निर्माण की इस नवजागरण बेला में तुम्हें भी निराश होकर अपना समय, शक्ति और जीवन नष्ट नहीं करना चाहिए। निराशा और उदासी छोड़कर, लगातार परिश्रम करके उसे सार्थक बनाना चाहिए। नई ताजा मनुष्यता के माथे पर निराशा का कलंक नहीं लगने देना चाहिए। ऐसा सोचना, ऐसा करना ही नरता है।
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