दहेज प्रथा पर निबंध। Essay on Dowry System in Hindi : विवाह एक सामाजिक कार्य है। इसके द्वारा युवक और युवती पवित्र वैवाहिक बंधन में बँधकर पति और पत्नी का दर्जा प्राप्त करते है। तथा सृष्टि के रचियता परमात्मा को उसके रचनाकर्म में सहयोग प्रदान करने हेतु सन्नद्ध होकर परिवार बनाते और देश तथा समाज के लिए भावी पीढ़ी के निर्माण में जुट जाते हैं।
दहेज प्रथा पर निबंध। Essay on Dowry System in Hindi
विवाह एक सामाजिक कार्य है। इसके द्वारा युवक और युवती पवित्र वैवाहिक बंधन में बँधकर पति और पत्नी का दर्जा प्राप्त करते है। तथा सृष्टि के रचियता परमात्मा को उसके रचनाकर्म में सहयोग प्रदान करने हेतु सन्नद्ध होकर परिवार बनाते और देश तथा समाज के लिए भावी पीढ़ी के निर्माण में जुट जाते हैं।
हमारे देश में विवाह में कन्या दान की जाती है और विवाह के बाद पति का घर ही उसका अपना घर हो जाता है तथा मायके में वह मेहमान हो जाती है। इसके बावजूद माता-पिता और भाई-बंधु का वात्सलन्य तो ज्यों का त्यों रहता ही है। इसलिए पुरातन काल से देश में दहेज की प्रथा चली रही है और वात्सल्य-रस में डूब दुलहन के परिजन उपहार-स्वरूप उसको इतना कुछ देकर विदा करना चाहेत हैं जितना यदि वह घर की बेटी न होकर बेटा होती तो उसके हिस्से में आता। स्वेच्छा से तथा प्रेंम से अपनी-अपनी हैसियत से दिए जाने वाले इन उपहारों को देने की इस पुरातन प्रथा को ही दहेज-प्रथा कहते हैं।
परिजनों के प्रेम का प्रतीक दहेज आज लड़के वोलों के लालच के कारण अबिशाप बन चुका है। माँ-बाप अपनी प्यारी बिटिया को बड़े अरमान से सजाकर दुलहन बनाकर ससुराल भेजते हैं और दहेज के लालची ससुराल वाले उसे तहर-तहर की यातनाएँ देकर आतंकित किया करते हैं तथा दुल्हेराजाज किंकर्तव्यविमूढ़ बने चुपचाप सबकुछ देखते रहते हैं।
लड़के माता-पिता पने बेटे की पढ़ाई-लिखाई और पाल-पोषण का सारा खर्च लड़की वालो से ब्योज समेत वसूल कर लेना चाहते हैं। इस नाजायज वसूली के लिए लड़के वाले तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं। शादी के वक्त यदि दहेज में जरा-सी भी कमी रह जाती ह तो लड़की को उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। उस पर भाँति-भाँति के लांछन लगाए जाते हैं। हर समय खरी-खोटी सुनाई जाती है और हर अपमान उसे चुप होकर सहना पड़ता है। वह दिन-भर नौकररानियों की तरह घर का सारा काम-काज सँभालती रहती है पर कोई उससे प्रसन्न नहीं होता। वह प्यार से दो मीठे बोलों के लिए तरसकर रह जाती है। जिन लड़के वालो की स्वयं की बेटियाँ होती हैं वे भी दुलहन का दर्द नहीं समझते क्योंकि वह पराई बेटी होती अपनी नहीं। और सास जो स्वयं भी कभी घर में बहू बनकर आई थी वह-भी दुलहन का दर्द नहीं समझती और बहू पर जुन्म करने में सबसे आगे रहती है। अधिकांश घरों में होने वाले सास-बहू के झगड़ो का यही रहस्य है।
चाहे लड़की वाले लाख कर्ज के दलदल में फँसे पड़े हों पर इससे ससुराल वालों को कुछ लेना-देना नहीं होता। दहेज के मामनें में हमदर्दी दिखाना वे मुर्खता समझते हैं और नई-नई फरमाइशें कर-कर के बहू की नाक में दम कर देते हैं। नतीजा यह होता है कि निराश होकर या तो लड़की आत्महत्या कर लेती है या फिर ससुराल वाले दुलहन को मिट्टी का तेल जलाकर जिंदा जला देते हैं। कभी जहर देकर किस्सा खत्म कर देते हैं तो कभी मार-पीटकर घर सेनिकाल देते हैं। ऐसी सूरत में जब दुलहन माता-पिता की छाती का बोझ बनने के लिए तैयार नहीं हो पाती तो विवश होकर उसे आत्महत्या का रास्ता अपनाना पड़ता है। सर्वगुणसंपन्न अति सुंदर युवतियाँ घर की चारदीवारी में निरंतर अपमानित और प्रताड़ित दहेज प्रथा का अभिशाप झेलती रहती हैं और कुरूप चरित्रहीन तथा अयोग्य युवकों को आदर-सम्मान प्राप्त होता है। लड़की के माँ-बाप को भी लड़के वाले अक्सर अपमानित करते हैं और बेचारे लड़की वाले बेटी के सु की खातिर चुपचाप सिर झुकाकर सब अपमान पी जाते हैं। दहेज प्रथा के इस वीभत्स और भयानक रूप के पीछे हमारे समाज में कन्य की उपेक्षा एक प्रमुख कारण है। माता-पिता पुत्री से अधिक पुत्र को चाहते हैं तथा अधिकांश परिवारों में कन्य उपेक्षिता ही होती है। दहेजरूपी दानव का आतंक दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है। धन्नासेठों ने इस कुप्रथा को और बढ़ावा दिया है। वे अपनी अथाह संपत्ति के बूते वर को मानो खरीद ही लेते हैं। जिसे बिना परिश्रम किये धन प्राप्त हो वह और मिलने की आशा रखने लगता है और यह लोभ बढ़ता ही जाता है। कुछ माता-पिता भी अपनी सीमा से अधिक खर्च करके लड़के वालो की इस लोभवृत्ति को प्र्रोत्साहन देते हैं। इससे कितनी ही गरीब ललनाओं का जीवन दोजख बन जाता है।
हमारी शिक्षा में दोष है या संस्कारों में पर अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे परवार भी दहेज के मामले में नैतिकता को ताक पर रख देते हैं। दहेज-अपरारध में ज्यादातर पढ़े-लिख लोग ही संलिप्त पाए जाते हैं। गरीब और अनपढ़ तो संतोष कर लेते है। पर इन तथाकथित पढ़े-लिखे संभ्रंतों की दहेज-लिप्सा खत्म नहीं होती। वकील डॉक्र इंजीनियर अध्यापक कोई किसी से कम नहीं है। जिस बेटी के पिता के पास पर्याप्त पैसा नही होता वे अयोग्य युवकों के हाथ में बेटी का हाथ सौंप देते हैं तथा बेटी जीवन-भर आठ-आठ आँसू रोने के लिए मजबूर होती है।
जो युवतियाँ अत्याचारों का डटकर मुकाबला करती है उन्हें या तो तलाक लेकर पिता के घर लौटना होता है या फिर अविवाहित रहकर आजीवन एकाकी रहना होता है। हालाँकि इस कुप्रथा से निपटने के लिए कड़े कानून बनाए गए हैं जिनके अनुसार दहेज लेना व देना दोनों ही जुर्म करारा दिए गए हैं लेकिन लोग सरेआम इस कानून की धज्जियाँ उड़ाते हैं। शायद ही कभी कोई दहेज-लोभी कानून के शिकंजे में फँसता है। अधिकारी दहेज-लोभी कानून के शिकंजे से बचने की कोई न कोई राह निकाल ही लेते हैं।
इस कुप्रथा के विरूद्ध आंदोलन खड़ा करना जरूरी है। इसके लिए प्रगतिशील युवक-युवतियों का संगठन बनाना चाहिए तथा विजातीय विवाद को प्रोत्साहन देना चाहिए।
Very Helpful
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