कुर्सी की आत्मकथा पर निबंध / Kursi ki Atmakatha par Nibandh कुर्सी की आत्मकथा पर निबंध: मुझे लोग कुर्सी कहते हैं — लकड़ी, लोहे या प्लास्टिक...
कुर्सी की आत्मकथा पर निबंध / Kursi ki Atmakatha par Nibandh
कुर्सी की आत्मकथा पर निबंध: मुझे लोग कुर्सी कहते हैं — लकड़ी, लोहे या प्लास्टिक से बनी एक चीज, जिस पर बैठा जाता है। लेकिन मैं सिर्फ एक वस्तु नहीं हूँ, मैं सत्ता, आराम, अधिकार और कई बार षड्यंत्र की प्रतीक भी हूँ। मैंने समय के साथ इंसानों के रूप बदलते देखे हैं, मगर उनका मुझसे मोह कभी कम नहीं हुआ। कभी मैं राजा की राजगद्दी बनी, तो कभी गाँव के पंचायत में मुखिया जी की चौकी। कभी स्कूल में मास्टर जी की सीट बनी, तो कभी संसद में प्रधानमंत्री की कुर्सी। मेरा नाम भले ही मामूली लगे, पर मेरा किरदार बहुत बड़ा है।
मेरे जीवन की शुरुआत एक बढ़ई की दुकान से हुई थी। उसने मुझे बड़े जतन से तराशा, मेरी पीठ बनाई, मेरे पायों को मजबूती दी और मुझ पर सुंदर नक्काशी बनाई। जब पहली बार किसी ने मुझ पर बैठकर चैन की साँस ली, तब मुझे समझ आया कि मेरी असली पहचान क्या है — मैं वह हूँ जिस पर बैठकर लोग अपने अहम को महसूस करते हैं। लेकिन जैसे-जैसे मेरी यात्रा आगे बढ़ी, मैंने जाना कि मेरी उपस्थिति केवल आराम के लिए नहीं, बल्कि बहुत कुछ तय करने के लिए होती है।
राजनीति में तो मेरा दर्जा बहुत ऊँचा है। चुनाव आते ही मेरा नाम हर चर्चा में आने लगता है — “किसे मिलेगी कुर्सी?”, “कुर्सी की लड़ाई तेज़” या “कुर्सी बचाने की जद्दोजहद” जैसी खबरें अख़बारों की सुर्खियाँ बन जाती हैं। नेताओं के लिए मैं सिर्फ एक सीट नहीं, बल्कि उनके जीवन का सपना होती हूँ। लोग मेरे लिए सालों तक मेहनत करते हैं, गठबंधन करते हैं, झूठ बोलते हैं, और कभी-कभी तो अपनों को धोखा भी दे देते हैं। और जब उन्हें मैं मिल जाती हूँ, तो कई बार वे मुझे इतनी कसकर थाम लेते हैं कि फिर छोड़ने का नाम ही नहीं लेते।
लेकिन यह भी सच है कि मैं किसी की स्थायी नहीं हूँ। मेरी किस्मत हमेशा करवट लेती रहती है। आज किसी और की गोद में हूँ, तो कल किसी और की बाँहों में। मैंने राजाओं को सत्ता हासिल करते और तानाशाहों को ताज से गिरते भी देखा है। मुझे छीनने के लिए कई बार हिंसा हुई, संसदों में तू-तू मैं-मैं हुई, यहाँ तक कि अदालतों में मुकदमे चले। मगर मुझे परवाह नहीं। मुझे आदत है बदलते चेहरों की, बदलते युगों की। मैं केवल प्रतीक हूँ — सत्ता के उत्थान और पतन दोनों की।
मेरी एक और पहचान है — दफ्तरों की कुर्सी। इन कुर्सियों की भी अपनी राजनीति होती है। एक ही दफ्तर में मेरी ऊँचाई तय करती है कि किसकी कितनी इज्जत है। ऊँची पीठ और चकरी वाली कुर्सियाँ अधिकारी की होती हैं, जबकि साधारण कुर्सियों पर बाबू या आगंतुक बैठते हैं। मैंने देखा है कैसे लोग ऑफिस में मुझ पर टिके रहने के लिए चाटुकारिता से लेकर षड्यंत्र तक का सहारा लेते हैं। मेरी ऊँचाई, मेरी पकड़, मेरी जगह — सब कुछ मायने रखता है।
कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं एक साधारण वस्तु बनकर भी असाधारण महत्व पा गई हूँ। मैं चुपचाप सब कुछ देखती हूँ — सत्ता का लालच, पद की हवस, आराम की तृष्णा, और कभी-कभी एक वृद्ध का अकेलापन भी। मेरे ऊपर बैठा हर व्यक्ति मुझसे कुछ चाहता है, लेकिन कोई मेरे मन की बात नहीं पूछता। शायद मैं बोल पाती, तो दुनिया को बताती कि जिनके लिए मैं सपना हूँ, उनके लिए मैं कभी-कभी बोझ भी बन जाती हूँ।
आज भी मैं हर घर, दफ्तर, कोर्ट-कचहरी, संसद और मंत्रालय में मौजूद हूँ। लोग मेरे लिए लड़ते हैं, भागते हैं, गिरते हैं — मगर मैं वहीं बनी रहती हूँ, अपनी चार टांगों पर टिकी हुई, चुपचाप और स्थिर। मैं जानती हूँ, कोई भी व्यक्ति मुझे हमेशा के लिए नहीं पा सकता। शायद यही मेरा सौंदर्य है — मैं सबकी होकर भी किसी एक की नहीं हूँ।
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