भारत में नक्सलवाद पर निबंध: नक्सल आंदोलन की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी गांव से हुई थी, जहां कुछ किसानों ने जमींदारो
भारत में नक्सलवाद पर निबंध - Bharat mein Naksalwad par Nibandh
भारत में नक्सलवाद पर निबंध: भारत जैसे विविधतापूर्ण लोकतांत्रिक देश में जब हम आंतरिक सुरक्षा की बात करते हैं, तो नक्सलवाद एक ऐसी जटिल समस्या के रूप में उभरकर सामने आता है, जिसने दशकों से देश के अनेक क्षेत्रों में हिंसा, भय और अस्थिरता को जन्म दिया है। यह केवल एक कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक असमानताओं से उपजी गहरी पीड़ा की अभिव्यक्ति भी है। नक्सलवाद का प्रभाव मुख्यतः देश के पूर्वी, मध्य और दक्षिणी हिस्सों में महसूस किया गया, जिसे ‘लाल गलियारा’ कहा जाता है।
नक्सल आंदोलन की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी गांव से हुई थी, जहां कुछ किसानों ने जमींदारों और राज्य व्यवस्था के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह छेड़ दिया। चारु मजूमदार और कानू सान्याल जैसे विचारकों ने माओवाद की विचारधारा को भारतीय परिप्रेक्ष्य में लागू करने की कोशिश की। यह आंदोलन धीरे-धीरे देश के अन्य हिस्सों में फैल गया और समय के साथ एक सशस्त्र संघर्ष का रूप ले लिया, जिसका उद्देश्य राज्य सत्ता को उखाड़ फेंकना और जनक्रांति के माध्यम से एक वैकल्पिक शासन व्यवस्था स्थापित करना था।
नक्सलवाद की जड़ें दरअसल उन क्षेत्रों में मजबूत हुईं, जहां आदिवासी और हाशिए पर पड़े समुदायों को लंबे समय तक विकास से वंचित रखा गया। जमीन की मिल्कियत, वनाधिकार, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, और प्रशासन की उपेक्षा जैसे मुद्दों ने लोगों को राज्य से विमुख किया और नक्सली आंदोलन को समर्थन दिया। नक्सली समूहों ने इसी असंतोष का लाभ उठाते हुए स्थानीय आबादी को अपनी ओर आकर्षित किया और 'जन अदालतों' और 'जनमुक्त क्षेत्रों' की स्थापना कर अपनी सत्ता स्थापित करने की कोशिश की।
हालांकि, समय के साथ यह आंदोलन अपनी मूल वैचारिक धारा से भटक गया और अनेक क्षेत्रों में एक हिंसात्मक और अवैध समानांतर शासन का रूप ले लिया। पुलिस बल, सुरक्षाबलों, सरकारी संस्थानों, सड़क परियोजनाओं और स्कूलों पर हमलों ने यह स्पष्ट कर दिया कि यह आंदोलन अब आम जनता के अधिकारों की रक्षा नहीं बल्कि हिंसा और सत्ता के लिए संघर्ष का माध्यम बन गया है। कई नक्सली समूह अब संगठित अपराध, हथियारों की तस्करी और जबरन वसूली में लिप्त पाए गए हैं।
भारत सरकार ने नक्सलवाद से निपटने के लिए दोहरी रणनीति अपनाई है—सुरक्षा और विकास। एक ओर जहां केन्द्रीय और राज्य पुलिस बलों को प्रशिक्षित कर आधुनिक हथियारों और खुफिया तंत्र से लैस किया गया है, वहीं दूसरी ओर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में आधारभूत ढांचे के विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसरों को बढ़ाने पर भी जोर दिया गया है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, एकलव्य विद्यालय, वनाधिकार अधिनियम और जनजातीय उपयोजना जैसे उपाय इसी दिशा में उठाए गए कदम हैं।
फिर भी, चुनौतियाँ अभी भी बनी हुई हैं। अनेक क्षेत्रों में प्रशासनिक भ्रष्टाचार, विकास योजनाओं का सही कार्यान्वयन न होना, और स्थानीय लोगों की सहभागिता का अभाव नक्सल समस्या को जड़ से मिटाने में बाधक बने हुए हैं। इसके अतिरिक्त, यह आवश्यक है कि सरकार स्थानीय समुदायों की सांस्कृतिक पहचान और अधिकारों का सम्मान करे, और उन्हें निर्णय प्रक्रिया में भागीदार बनाए।
नक्सलवाद का समाधान केवल हथियारों से नहीं, बल्कि विश्वास से निकलेगा। यह जरूरी है कि हम इस समस्या को केवल ‘आंतरिक आतंकवाद’ के चश्मे से न देखें, बल्कि इसे उन गहरी सामाजिक असमानताओं के परिप्रेक्ष्य में समझें जो इसे पोषित करती हैं। जब तक अंतिम व्यक्ति तक विकास की रोशनी नहीं पहुंचेगी, तब तक ऐसी विचारधाराओं को समाप्त करना कठिन होगा।
इसलिए, नक्सलवाद से निपटने के लिए एक दीर्घकालिक, समावेशी और संवेदनशील दृष्टिकोण की आवश्यकता है। राज्य को केवल कठोर शक्ति का प्रयोग करने के बजाय संवाद, पुनर्वास, और सामाजिक न्याय को प्राथमिकता देनी होगी। तभी एक शांतिपूर्ण, न्यायपूर्ण और समतामूलक भारत की कल्पना साकार हो सकेगी।
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