द्वितीय अफीम युद्ध के कारण और परिणाम का वर्णन कीजिये। द्वितीय अफीम युद्ध: प्रथम अफीम युद्ध के पश्चात् ब्रिटेन के साथ-साथ अन्य यूरोपीय शक्ति...
द्वितीय अफीम युद्ध के कारण और परिणाम का वर्णन कीजिये।
द्वितीय अफीम युद्ध: प्रथम अफीम युद्ध के पश्चात् ब्रिटेन के साथ-साथ अन्य यूरोपीय शक्तियों ने भी चीन में कई व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त कर ली थी परन्तु कालान्तर में सन्धि कार्यान्वयन में कुछ ऐसे दोष प्रकट हुए जिन्हें विदेशी दूर करवाना चाहते थे। अंग्रेज सन्धियों में और अधिक विस्तार चाहते थे। अमेरिका के साथ ह्राँगिया एवं फ्रांस के साथ की गयी हवामपोआ सन्धियों में तो इस बात की व्यवस्था ही थी कि 10 वर्ष पश्चात् पुनः सन्धियों का पुनरीक्षण किया जायेगा। अतः जब इन विदेशी शक्तियों ने चीनी सरकार के समक्ष सन्धि पुनरीक्षण की माँग रखी तो उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। परिणामस्वरूप विदेशियों विशेषतः अंग्रेजों को स्पष्ट हो गया कि बिना शक्ति प्रयोग के सन्धि पुनरीक्षण नहीं हो सकता। अतः द्वितीय अफीम युद्ध 1856-60 ई. की परिस्थिति निर्मित हुई।
द्वितीय अफीम युद्ध के कारण (Causes of Seconf Opium war in Hindi)
(1) चीनी शासकों का भ्रम और अयोग्यता— चीनी मंचू शासक प्रथम अफीम युद्ध में हुई अपनी हार को अस्थायी एवं दुर्भाग्यपूर्ण मानते थे परन्तु इसे घातक कदापि नहीं। उन्हें अब भी यह विश्वास था कि वह विदेशियों को नियन्त्रण में रख सकते हैं एवं अपनी अखण्डता की रक्षा करने में सक्षम हैं जो उनका एक मिथ्या भ्रममात्र था । वस्तुतः प्रथम अफीम युद्ध की हार ने मंचू शासकों की अयोग्यता एवं अक्षमता को उजागर कर दिया था। देश में भ्रष्टाचार, शोषण, बेकारी, भुखमरी, षड्यन्त्र एवं अफीम की तस्करी के कारण स्थिति दुर्बल एवं अराजकतापूर्ण होती जा रही थी। इन परिस्थितियों से पश्चिमी शक्तियाँ लाभ उठाकर अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं को सन्तुष्ट करना चाहती थीं।
(2) चीन में नानकिंग की सन्धि से असन्तोष— चीनी लोग 1842 ई. की नानकिंग सन्धि तथा विदेशियों को 5 बन्दरगाह खोल दिया जाना अपमानजनक मानते थे। अतः वहाँ विदेशियों के प्रति तीव्र घृणा की भावना व्याप्त थी।
(3) चीनियों को बलपूर्वक मजदूर बनाया जाना— चीन में व्याप्त बेकारी और भुखमरी का लाभ उठाकर विदेशियों ने चीनियों को मजदूर के रूप में क्यूबा एवं पेरू आदि स्थानों पर भेजा एवं बल प्रयोग भी किया। मंचू शासन ने इसका विरोध किया।
(4) चीनी जहाजों से वसूली— विदेशियों ने जल डाकुओं को पकड़ने के बहाने चीनी जहाजों से उनकी रक्षा के नाम पर काफी धनराशि वसूल की।
(5) व्यापारिक सुविधाओं के विस्तार की इच्छा— ब्रिटिश व्यापारी नानकिंग की सन्धि पर पुनर्विचार एवं और अधिक विस्तार चाहते थे। फ्रांस व अमेरिका ने भी इसका समर्थन किया। उनकी प्रमुख माँगों में—
- चीन के आन्तरिक भागों में प्रवेश की सुविधा।
- पीकिंग में राजदूत रखने की सुविधा ।
- शुल्क दरें समाप्त करने की सुविधा आदि प्रमुख थीं। फरवरी, 1854 ई. में ब्रिटिश उच्चायुक्त लॉर्ड बोरिंग ने यह प्रस्ताव रखे।
चीनी प्रशासन ने इन माँगों की उपेक्षा की। अतः बल प्रयोग अपरिहार्य हो गया।
(6) फ्रांसीसी पादरी को फाँसी— फरवरी, 1856 ई. में चीन के क्वांगत्सी स्थित अधिकारियों द्वारा एक कैथोलिक पादरी ऑगस्टे चेपरी लेन को विद्रोह के आरोप में बन्दी बनाकर फाँसी दे दी गयी। फ्रांस इसके लिए चीन को दण्डित करना चाहता था।
(7) लोर्चा एरो जहाज की घटना— यह घटना द्वितीय अफीम युद्ध का तत्कालीन कारण बनी। लोर्चा एरो जहाज का मालिक एक चीनी था परन्तु उसका कप्तान एक अंग्रेज था। इस जहाज पर अंग्रेजी झण्डा फहराता था। चीनी अधिकारी जलदस्युओं को पकड़ना चाहते थे। अतः उन्होंने ऐसे जहाज की तलाशी ली तथा उसके 12 चालकों को बन्दी बना लिया। ब्रिटिश वाणिज्यदूत ने इसका विरोध किया तथा 2 माँगें रखीं—
- जहाज चालकों को मुक्त करें,
- घटना के लिए क्षमा माँगें।
चीनी शासन ने बन्दियों को मुक्त कर दिया किन्तु क्षमा माँगने से इन्कार कर दिया। अंग्रेजों के लिए युद्ध का बहाना मिल गया ।
युद्ध की घटनाएँ— इस युद्ध में अंग्रेजों का साथ फ्रांसीसियों ने दिया। अमेरिका तथा रूस युद्ध से अलग रहे। 30 मई, 1858 को आंग्ल-फ्रांसीसी सेनाएँ पीकिंग के निकट तीत्सिन में घुस गयीं। चीनी सेनाएँ विदेशी सेनाओं का सामना करने में असमर्थ थीं। अतः उन्हें सन्धि को बाध्य होना पड़ा। 1858 ई. में लार्ड एल्गिन के नेतृत्व में अंग्रेजों ने चीनी प्रतिनिधियों के साथ तीनत्सिन की सन्धि कर ली।
तीनत्सिन सन्धि की शर्तें (Conditions of Teentsin Treaty)
- ग्यारह नये बन्दरगाहों को विदेशियों के साथ व्यापार के लिए चीन ने खोलना स्वीकार कर लिया।
- हैकाऊ नदी को विदेशी जहाजों के आवागमन हेतु खोलने की अनुमति दी गयी।
- अफीम के व्यापार को वैधता प्रदान की गयी।
- ईसाई धर्म प्रचारकों को चीन के किसी भी भाग में आने-जाने की छूट दी गयी ।
- पीकिंग में स्थायी विदेशी दूतावास खोलने की अनुमति दी गयी और विदेशी राजनयिकों को सम्राट के आगे झुकने जैसी अपमानजनक प्रथाओं से छूट दी गयी।
- चीन ने युद्ध क्षति पूर्ति देने का वचन दिया।
तीनत्सिन की सन्धि के बाद रूस व अमेरिका को पीकिंग में दूतावास खोलने की अनुमति दे दी गयी, जबकि अन्य देशों को इस सुविधा से वंचित रखा गया। इससे रुष्ट होकर अंग्रेजी व फ्रांसीसी सेनाओं ने पीकिंग पर अधिकार कर लिया। चीन को अधिकारियों ने जनता के कष्टों को ध्यान में रखकर तीनत्सिन की सन्धि को स्वीकार कर लिया। पाश्चात्य देशों के साथ एक बार पुनः 1860 ई. में पीकिंग की सन्धि करनी पड़ी।
द्वितीय अफीम युद्ध के परिणाम (Results of Second Opium War in Hindi)
तीनत्सिन की सन्धि एवं पीकिंग में सम्पन्न समझौते के पश्चात् चीन की प्रतिष्ठा व सम्प्रभुता को गम्भीर आघात पहुँचा तथा अब वह पश्चिमी देशों द्वारा की जाने वाली लूट-खसोट को तैयार था। चीन की आर्थिक व व्यापारिक नीतियाँ पश्चिमी देशों के हितों के अनुरूप प्रभावित की जाने लगीं, इससे चीन के उद्योगों का विकास रुक गया तथा आय के स्रोत सिमटते चले गये।
युद्ध, अशान्ति, भ्रष्टाचार व अराजकता जैसे कारणों से चीनी राजकोष व केन्द्रीय प्रशासनिक नियन्त्रण खोखला होता चला गया। चीन के 17 बन्दरगाहों को विदेशी व्यापारियों के लिए खोला जा चुका था । जहाजों का निरीक्षण, ढुलाई तथा तटकर वसूली आदि कार्य विदेशियों के हाथों में आ गये थे।
चीन की कमजोरियों के कारण विदेशी ताकतों का लोभ, लालच निरन्तर बढ़ता चला गया और वे चीन के आन्तरिक मामलों में लगातार हस्तक्षेप करने लगे । अब विदेशी ताकतों का ध्यान चीन के भूभागों पर नियन्त्रण स्थापित करने की दिशा में आकृष्ट हुआ। रूस ने तीनत्सिन सन्धि व पीकिंग समझौते के समय चीन के साथ सहानुभूति दर्शाकर कुछ चीनी भू-भाग हासिल करने में सफलता प्राप्त कर ली थी जिससे उसकी सीमाएँ प्रशान्त महासागर के उत्तरी तटवर्ती भागों तक विस्तारित हो चुकी थीं। रूस की सफलता ने अन्य यूरोपीय देशों को भी चीनी भू-भाग हथियाने के लिए प्रेरित किया।
चीनी पराजय के बावजूद चीनी जनता का यूरोपियों के प्रति घृणापूर्ण दृष्टिकोण परिवर्तित नहीं हुआ था। चीन की प्रतिष्ठा को लगे आघातों, अपमान एवं विदेशियों की लूटपाट व अत्याचार की स्मृतियाँ चीनवासियों के मस्तिष्क में स्थायी रूप से जम चुकी थीं। नानकिंग व तीनत्सिन जैसी सन्धियों को चीनवासी अपने ऊपर जबरदस्ती थोपी गयी व्यवस्थाओं के रूप में देखते थे और वे इन व्यवस्थाओं को भंग करने का हर अवसर व बहाना खोजने लगे। इसी कारण चीन में विदेशियों के प्रति उस सौहार्द्रपूर्ण वातावरण का निर्माण नहीं हुआ जो जापान में निर्मित हुआ था।
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