महर्षि कण्व का चरित्र चित्रण - Maharshi Kanva ka Charitra Chitran: कण्व ऋषि आश्रम के अधिष्ठाता हैं। उनका दूसरा नाम काश्यप है। कण्व नैष्ठिक ब्रह्मचारी
महर्षि कण्व का चरित्र चित्रण - Maharshi Kanva ka Charitra Chitran
महर्षि कण्व का चरित्र चित्रण: कण्व ऋषि आश्रम के अधिष्ठाता हैं। उनका दूसरा नाम काश्यप है। कण्व नैष्ठिक ब्रह्मचारी और श्रौत्र विधि से अग्निहोत्र करने वाले ब्राह्मण हैं। ये अपने तप के प्रभाव से भूत, वर्तमान और भविष्य को जानने वाले हैं। उनके तप के प्रभाव के कारण राक्षस उनके यज्ञ में विघ्न नहीं डालते हैं। शकुन्तला के कल्याणार्थ वह सोमतीर्थ जाते हैं। शकुन्तला का गान्धर्व विवाह हुआ है और वह गर्भिणी है, इसकी सूचना उनको आकाशवाणी के द्वारा प्राप्त होती है। शकुन्तला की विदायी के अवसर पर कण्व ऋषि के तपोबल के परिणामस्वरूप ही वृक्ष आभूषण, लाक्षारस और रेशमी वस्त्र आदि प्रदान करते हैं।
शकुन्तला कण्व ऋषि की धर्मपुत्री है। परित्यक्ता शकुन्तला का उन्होंने अपनी पुत्री के तुल्य पालन-पोषण किया है । शकुन्तला के प्रति उनका प्रेम निःस्वार्थ है । शकुन्तला के प्रति उनका प्रेम उसकी विदायी के अवसर पर देखने को मिलता है जहाँ वे गृहस्थ के समान व्याकुल होते हैं -
यास्यत्यद्य शकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया कण्ठः
स्तम्भितबाष्पवृत्तिकलुषश्चिन्ताजडं दर्शनम् ।
वैक्लव्यं मम तावदीदृशमिदं स्नेहादरण्यौकसः
पीड्यन्ते गृहिणः कथं नु तनयाविश्लेषदुःखैर्नवैः ।। 4/6।।
शकुन्तला की विदायी के पश्चात् वे अत्यन्त खिन्न हो जाते हैं। शकुन्तला के प्रति उनका प्रेम निःस्वार्थ और आदर्श भाव को व्यक्त करता है । महर्षि कण्व यद्यपि ऋषि हैं फिर भी उन्हें लौकिक लोकाचार का भली-भाँति ज्ञान है। उनके लौकिक व्यवहार का ज्ञान हमें उस समय होता है जब वह पतिगृह जाती हुई शकुन्तला को उपदेश देते हैं-
शुश्रूषस्व गुरून् कुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीजने .......... 14/18 ||
ऋषि कण्व अनसूया और प्रियंवदा को शकुन्तला के साथ नहीं भेजते हैं क्योंकि उन्हें उनका भी विवाह करना है।
मानव स्वभाव का भी उनको भली-भाँति ज्ञान है। उन्हें यह ज्ञात है कि अन्य कार्यों में
व्यस्त हो जाने पर व्यक्ति अपने दुःख को भूल जाता है । अतः वे शकुन्तला से कहते हैं कि राजा के यहाँ पहुँचने पर राजकार्य में व्यस्त होने के परिणामस्वरूप तुम इस दुःख को भूल जाओगी। महर्षि कण्व कन्या को धरोहर के समान समझते हैं। वह शकुन्तला को पतिगृह भेजकर आनन्दमिश्रित सन्तोष का अनुभव करते हैं -
अर्थो हि कन्या परकीय एव
तामद्य सम्प्रेष्य परिग्रहीतुः ।
जातो ममायं विशदः प्रकामं
प्रत्यीर्पतन्यास इवान्तरात्मा । | 4 / 22 ।।
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