वासवी का चरित्र चित्रण: मगध नरेश बिंबसार की बड़ी रानी वासवी को नाटककार ने सपात्र के रूप में परिस्थापित किया है। वह उच्चतर मानवीय मूल्यों में विश्वास र
वासवी का चरित्र चित्रण - Vasavi Ka Charitra Chitran
वासवी का चरित्र चित्रण: मगध नरेश बिंबसार की बड़ी रानी वासवी को नाटककार ने सपात्र के रूप में परिस्थापित किया है। वह उच्चतर मानवीय मूल्यों में विश्वास रखने वाली स्त्री पात्र के रूप में पाठकों एवं दर्शकों के समक्ष आती है। वासवी की चारित्रिक विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है ।
मात हृदय
नाटक के प्रारम्भ में वासवी जब अजातशत्रु से पूछती है कि कई दिनों से तुम मेरे यहाँ क्यों नहीं आए? तो छलना क्रोध में यह कहती है कि अब यह तुम्हारे पास नहीं आएगा। भले ही वासवी अजात की विमाता हो लेकिन फिर भी वह अजात को अपने पुत्र से ज्यादा प्यार करती है। वह दुखी होकर छलना से कहती है-
"छलना! बहिन! यह क्या कह रही हो? मेरा वत्स कुणीक ! प्यारा कुणीक! हा भगवान्! मैं उसे देखने न पाऊँगी? मेरा क्या अपराध । " शील और विनय का यह दुष्ट उदाहरण सिखाकर बच्चों की क्यों हानि कर रही हो?"
समुद्रदत्त के प्रति वासवी का प्रेम उस समय भी दिखाई पड़ता है जब अजातशत्रु प्रसेनजित द्वारा बंदी बना लिया जाता है तो वासवी ही प्रयास करके उसे छुड़ाती है- "न न, भाई! खोल दो। इसे मैं दुखी देखकर बात नहीं कर सकती। मेरा बच्चा कुणीक - ।" एक पुत्र ही अपनी माँ की वास्तविक पहचान कर सकता है क्योंकि जो माँ अपनी संतान के प्रति प्रत्येक क्षण न्यौछावर होने को तैयार रहे, अपना स्नेहांचल फैलाती रहे तो उसकी संतान भी उसे उतना ही प्यार करती है। अजातशत्रु भी अपनी वास्तविक माँ को पहचानते हुए कहता है-
"कौन विमाता ? नहीं, तुम मेरी माँ! इतनी ठंडी गोद तो मेरी माँ की भी नहीं है। आज मैंने जननी की शीतलता का अनुभव किया। मैंने तुम्हारा बड़ा अपमान किया है, माँ! क्या तुम क्षमा करोगी?"
वासवी अपने मन के उद्गारों को अजातशत्रु के समक्ष व्यक्त करते हुए कहती है-
"मैं तुम्हारी माँ हूँ। वह तो डायन है, उसने मेरे सुकुमार बच्चे को बंदी-गह में भेज दिया। भाई, मैं इसे शीघ्र मगध के सिंहासन पर भेजना चाहती हूँ...।"
वास्तुतः वासवी मात हृदय से मंडित स्त्री है ।
अटूट सेवा-भावना
महारानी वासवी के चरित्र की एक अन्य विशेषता उनकी अपने पति के प्रति अटूट-सेवा-भावना है। जब बिंबसार को राज्य-सिंहासन से च्युत किया गया तो बिंबसार के उपवन में जाने के निर्णय के साथ ही वह भी उनके साथ उपवन में जाने के लिए तत्पर हो जाती है। वहाँ वह अपने पति की सेवा-शुश्रुषा करके एक भारतीय नारी का कर्त्तव्य निभाना चाहती है-
"भगवन! हम लोगों के लिए एक छोटा-सा उपवन पर्याप्त है। मैं वहीं नाथ के साथ रहकर सेवा कर सकूँगी।"
वह अपने पति को एक क्षण के लिए भी दुखी नहीं देखना चाहती। वह अपने पति से पूछती है कि यहाँ उपवन में तुम्हें किसी बात का दुःख तो नहीं? प्रत्युत्तर में वे कहते हैं- “दुःख तो नहीं, देवि! ... किंतु कभी-कभी याचकों का लौट आना, मेरी वेदना का कारण होता है।” उनके इस दःख का समाधान करते हुए वासवी कहती है-
"नाथ! जो आपका है वही न राज्य का है, उसी का अधिकारी कुणीक है, और जो कुछ मुझे मेरे पिहर से मिला है, उसे जब तक मैं न छोडूं तक तक तो मेरा ही है ! ... काशी का राज्य मुझे, मेरे पिता ने, आँचल में दिया है, उसकी आय आपके हाथ में आनी चाहिये और मगध साम्राज्य की एक कौड़ी भी आप न छुएँ। नाथ! मैं ऐसा द्वेष से नहीं कहती हैं; किंतु केवल आपका मान बचाने के लिए।"
वह अपने पति को प्रसन्न देखने के लिए जीवक के प्रति भी आभार व्यक्त करती है कि तुम हमारे कल्याण के लिए अत्यधिक चिंतित हो। वह कहती है-
"जीवक, तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारी सद्बुद्धि तुम्हारी चिरसंगिनी रहे। महाराज को अब स्वतंत्र वृत्ति की आवश्यकता है, अतः काशी-प्रांत का राजस्व, जो हमारा प्राप्य है, लाने का उद्योग करना होगा । "
महाराज बिंबसार इस तथ्य का विरोध करते हैं कि वे राष्ट्रीय झगड़े में नहीं पड़ना चाहते लेकिन वासवी उन्हें ढांढस बंधाते हुए कहती है- "तब भी आपको भिक्षावृत्ति नहीं करनी होगी। अभी हम लोगों में वह त्याग, मानापमान-रहित अपूर्व स्थिति नहीं आ सकेगी। फिर जो शत्रु से भी अधिक घृणित व्यवहार करना चाहता हो उसकी भिक्षावृत्ति पर अवलंब करने का हृदय नहीं कहता।” वह अपने पति से यह भी नहीं छिपाती कि हम वानप्रस्थ आश्रम में भी स्वतंत्र नहीं रखे गये।
इस प्रकार वासवी अपने पति के साथ पूर्णतः समर्पित है। उसकी सौत भी इस तथ्य को स्वीकारती है। अतः वह एक सुसभ्य भारतीय नारी है।
सहनशीलता
वासवी के हृदय में सहनशील नामक प्रवत्ति प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। जब उसकी सौत छलना उस पर व्यंग्य उक्तियों की वर्षा करती है तो वह उसे धैर्यपूर्वक सहन करती रहती है। नाटक के प्रारम्भ में जब छलना क्रोध से उस पर इस उक्ति का प्रहार करती है- "वह सीधी और तुम सीधी। आज से कभी कुणीक तुम्हारे पास न जाने पावेगा, और तुम यदि भलाई चाहो तो प्रलोभन न देना।" तो वासवी सब कुछ सहन करते हुए सहज भाव से यही कह पाती है-
"छलना! बहिन! यह क्या कह रही हो? मेरा वत्स कुणीक ! प्यारा कुणीक हा भगवन! मैं उसे देखने न पाऊँगी? मेरा क्या अपराध-
X X X X X X
यह क्या मैं देख रही हूँ। छलना! यह गृह-विद्रोह की आग तू क्यों जलाना चाहती है? राजपरिवार में क्या सुख अपेक्षित नहीं?"
इस प्रकार वह कहीं भी क्रोध से काम नहीं लेती। एक अन्य स्थान पर जब छलना उन पर यह अभियोग लगाती है कि काशी में तुमने ही जान-बूझकर विप्लव खड़ा किया है तो वासवी शांत स्वर में कहती है-
“जिसनेदिया था, यदि वह ले ले, तो मुझे क्या अधिकार है कि मैं उसे न लौटा हूँ। तुम्ही बतलाओ कि मेरा अधिकार छीनकर जब आर्यपुत्र ने तुम्हें दे दिया तब भी मैंने कोई विरोध नहीं किया था ।" वह उसे शांत भाव से यह भी सलाहदेती है-
"बहिन जाओ, सिंहासन पर बैठकर राजकार्य देखो, व्यर्थ झगड़ने से तुम्हें क्या सुख मिलेगा। और अधिक तुम्हें क्या कहूँ, तुम्हारी बुद्धि ।"
क्षमाशील प्रवत्ति
वासवी हृदय से किसी के साथ भी घृणा भाव नहीं रखती, भले दूसरे उसे कितनी ही कटु उक्तियों से घायल क्यों न कर दें। वह दूसरों द्वारा किये गये अपराध को भी शीघ्र ही क्षमा कर देती है । छलना वासवी पर अनेक बार कटुक्तियों से प्रहार करती है लेकिन फिर भी वह उसे क्षमा कर देती है और इतना ही नहीं वह अपने पति बिंबसार से भी छलना को माफ करने की प्रार्थना करती है-
‘“आर्य-पुत्र! अब मैंने इसको दंड दे दिया है, यह मात त्व-पद से वंचित की गयी है, अब इसको आपके पौत्र की धात्री का पद मिला है। एक राजमाता को इतना बड़ा दंड कम नहीं है, अब आपको क्षमा करना ही होगा।"
इसी प्रकार वह अजातशत्रु को भी इसके किए हुए क त्यों के लिए माफ कर देती है। अतः वासवी मल्लिका को छोड़कर अन्य स्त्री पात्रों में अत्यधिक सहनशील है।
वसुधैव कुटुम्बकम की भावना
वासवी संपूर्ण विश्व को एक कुटुंब बनाने में विश्वास रखती है। नाटक के अंत में विरुद्धक और उसकी बहन बाजिरा आपसी गिले-शिकवे दूर करते हैं, तब वासवी अपने पूरे परिवार के विषय में सोचती हुई कहती है-
"अहा! जो हृदय विकसित होने के लिए है, जो मुख हँसकर स्नेह-सहित बातें करने के लिए है, उसे लोग कैसा बिगाड़ लेते हैं। भाई प्रसेन, तुम अपने जीवन भर में इतने प्रसन्न कभी न हुए होंगे, जितने आज कुटुंब के प्राणियों में स्नेह का प्रचार करके मानव इतना सुखी होता है, यह आज ही मालूम हुआ होगा। भगवन! क्या कभी वह भी दिन आवेगा जब विश्व भर में एक कुटुंब स्थापित हो जाएगा और मानव-मात्र स्नेह से अपनी गृहस्थी सम्हालेंगे?"
बुद्ध शिक्षा में अटूट विश्वास
वासवी महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं की अनुगामिनी है। वह अहिंसा में विश्वास करती है। वासवी नाटक के प्रारम्भ में छलना के झगड़े को शांत करते हुए कहती है- ‘‘यह क्या मैं देख रही हूँ। छलना! यह गृह विद्रोह की आग तू क्यों जलाया चाहती है? राजपरिवार में क्या सुख अपेक्षित नहीं?"
इसी प्रकार वह शांति, स्नेह एवं करुणा का संदेश देते हुए यह गीत गाती है-
"बच्चे बच्चों से खेलें, हो स्नेह बढ़ा उनके मन में,
कुल- लक्ष्मी हो मुदित, भरा हो मंगल उनके जीवन में।
बंधुवर्ग हो सम्मानित, हॉ सेवक सुखी, प्रणत अनुचर,
शांतिपूर्ण हो स्वामी का मन, तो स्प्रहणीय न हो क्यों घर ?"
द्वितीय अंक से छठे द श्य में भी वासवी इसी प्रकार के गीत द्वारा मानव हृदय में करुणा का संचार करने के पक्ष में है-
"दाता सुमति दीजिये!
मानव-हृदय-भूमि करुणा से सींचकर
बोधन- विवेक-बीज अंकुरित कीजिये ।
दाता सुमति दीजिये।"
निष्कर्षत
हम कह सकते हैं कि वासवी का मन अत्यंत पवित्र और शांत है, जो किसी के प्रति ईर्ष्या या द्वेष भाव नहीं रखता। उसके हृदय में अधिकार की लालसा नहीं है। यह कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर होते हुए सबका कल्याण करने में विश्वास रखती है। वह करुणा एवं ममता की साक्षा प्रतिमूर्ति है।
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