गयादीन का चरित्र चित्रण - Gayadeen Ka Charitra Chitran

गयादीन का चरित्र चित्रण - गयादीन शिवपालगंज के एक प्रतिष्ठित नागरिक हैं। पैसे और इज्जत के कारण थानेदार, स्थानीय एम.एल.ए. और जिलाबोर्ड के टैक्स कलेक्टर

गयादीन का चरित्र चित्रण - Gayadeen Ka Charitra Chitran

गयादीन का चरित्र चित्रण - गयादीन शिवपालगंज के एक प्रतिष्ठित नागरिक हैं। पैसे और इज्जत के कारण थानेदार, स्थानीय एम.एल.ए. और जिलाबोर्ड के टैक्स कलेक्टर की कृपा इन पर रहती थी। गयादीन जाति के बनिया थे। वे कपड़े की दुकान चलाते थे, लेकिन वहीं लेन-देन का महाजनी व्यापार आराम से चलाते थे। 

वे दुहरी जीवन-शैली अपनाते हैं। एक तरफ क्रोध आ जाने के डर से वे ऊड़द की दाल नहीं खाते। उनका मानना है कि क्रोध करने से स्वास्थ्य की हानि होती है और दुकानदारी नहीं चल पाती। वे कमजोर के गुस्से को बांझ मानते हैं। इससे वे अपनी विशुद्ध सात्विक प्रवृत्ति का प्रचार करते हैं। दूसरी तरफ सूदखोर के रूप में महाजनी व्यापार धड़ल्ले से चलाते हैं। 

गयादीन समझौतावादी व्यक्ति हैं। शोषक वैद्यजी का विरोध करने से पद से हाथ धोना पड़ेगा और परेशानी बढ़ जाएगी, यही सोचकर उनके अन्याय को जानते हुए भी उनका विरोध नहीं करते। वे छंगाल इंटर कॉलेज की प्रबंध समिति के अध्यक्ष रहते हुए भी अपने उत्तरदायित्व के प्रति सजग नहीं रहते। लेकिन समझौतावादी प्रवृत्ति के कारण अपना पद सुरक्षित रख पाते हैं। 

खन्ना और उनके गुट के अध्यापक जब उनसे कॉलेज में होनेवाले अन्याय का विरोध करने को उकसाते हैं तो गयादीन उनसे समझाते हैं- “ प्राइवेट स्कूल की मास्टरी - वह तो पिसाई का काम है। भागोगे कहाँ तक ?” कॉलेज की प्रबंध समिति की बैठक बुलाने को टालते हुए कहते हैं - सैकड़ों संस्थाएँ हैं, जिनकी सालाना बैठक नहीं होती। अपने यहाँ का जिलाबोर्ड .... देश भर में यही हाल है। किस-किस को ठीक करोगे ? इस झंझट से बचो, अपनी राह चलो।” 

गयादीन का सिद्धांत है कि अपने को सही सलामत रखने के लिए पानी की धार के साथ चलना चाहिए, धार के विपरीत तैरना खतरनाक है। वे कॉलेज की प्रबंध समिति की बैठक बुलाने के लिए रामाधीन को लगा दो ... वे ऐसे कामों के लिए अच्छे रहेंगे ... बस लगाए रहो, खिसकने न दो ।" जब वैद्यजी की ओर से रंगनाथ और रुप्पन गयादीन के पास पहुँचे तो गयादीन उन्हें आश्वस्त कर देते हैं कि मैनेजर तो वैद्य महाराज को रहना है। अपने उत्तरदायित्व से पल्ला झाड़ने के लिए वे रंगनाथ को उकसाते हैं -“ खन्ना मास्टर की गद्दी मैं नहीं पाऊँगा, पर तुम कर सकते हो। तुम बाहर के रहनेवाले हो। यहाँ वाले तुम्हारी असलियत जानते नहीं हैं, अब तुम्हीं लीडरी करके दिखाओ।" 

वे जानते हैं कि प्रिंसिपल वैद्यजी के समर्थक हैं और दोनों मिलकर कॉलेज का पैसा गबन करते हैं। उनका विरोध करना खतरे से खाली नहीं है । इसलिए जब मालवीय कहते हैं कि प्रिंसिपल कॉलेज का पैसा रुपया बरबाद कर रहा है, तब गयादीन अपना विचित्र तर्क रखते हैं - आप किस तरह चाहते हैं कि जनता का रुपया बरबाद किया जाए ? बड़ी इमारतें बनाकर ? सभाएँ बुलाकर ? दावतें लुटाकर ? उनका विचार है कि जनता के रुपए बरबाद ही होंगे। वे कहते हैं- “ जनता के रूपए पर इतना दर्द दिखाना ठीक नहीं, वह तो बरबाद होगा ही। .... जनता के रुपए के पीछे इतना सोच-विचार न करो । नहीं तो बड़ी तकलीफ उठानी पड़ेगी ।"

इस प्रकार खन्ना मास्टर कुनबापरस्ती की शिकायत करने पर गयादीन समझता है बुरा क्यों लगेगा भाई ? तुम्हीं तो कहते हो कि कुनबा परस्ती बोलबाला है। वैद्यजी के रिश्तेदारन मिले होंगे, बेचारे ने अपने ही रिश्तेदार लगा दिए। कहाँ ले जाए बेचारा अपने रिश्तेदारों को ?” 

रंगनाथ जब अध्यापकों का पक्ष लेकर प्रिंसिपल के अनाचार - अत्याचार का विरोध करने के लिए गयादीन से अनुरोध करते हैं और अपने पद के अधिकार का उपयोग करने को कहते हैं, तब गयादीन कहते हैं - “लौंडे की दोस्ती जी का जंजाल .... मैं लीडरी नहीं करूंगा। अधिक आग्रह करने पर वे रंगनाथ से कहते हैं - अब तुम लीडरी करके दिखाओ।

नैतिकता के प्रसंग पर वे खन्ना मास्टर से कहते हैं-" नैतिकता का नाम न लो मास्टर साहब, किसी ने सुन लिया तो चालान कर देगा।” नैतिकता और कुर्सी की तुलना करते हुए वे कहते हैं - “नैतिकता समझ लो कि यही चौकी है, एक कोने में पड़ी है। सभा-सोसाइटी के वक्त इस पर चादर बिछा दी जाती है, तब बड़ी बढ़िया दिखती है । इस पर चढ़कर लेक्चर फटकार दिया जाता है। यह उसी के लिए है।

गयादीन भाग्यवादी हैं। अपनी भैंस के गाभिन न होने पर वे भाग्य को दोष देते हैं - "नहीं, कसूर इस माल का नहीं, मेरी किस्मत का है। तीन भैंसों को पिचकारी दी जाती है तो किसी न किस एक भैंस पर वह बेकार हो जाती है, कुछ ऐसा है कि हर बार वह एक भैंस पर मेरी ही होती है।" 

गयादीन निराशावादी हैं। उनके घर से चाँदी हो जाती है। गवाही देते सभय छोटे पहलवान ने उनकी बेटी पर अदालत में बदचलन लड़की का आरोप लगाता है। दारोगाजी जब गयादीन के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हैं गयादीन दुःखी मन से कहते हैं - “ यह तो होना ही था दारोगाजी। मैं पहले ही समझ गया था कि मेरे घर के अब किसी की भी इज्जत बच नहीं सकती ।" यह तो अपने देश का चलन है। जब कचहरी का मुँह देखा है तो सभी कुछ झेलना पड़ेगा। जिसे यहाँ आना पड़े, समझ लो उसका करम ही फूट गया।”

अपनी बेटी बेला को लेकर उनकी एक बड़ी समस्या है। बेला स्वस्थ, सुन्दर और गृहकार्य में निपुण होते हुए भी दहेज के कारण उसका विवाह नहीं हो सका है। उस पर रुप्पन और बद्री दोनों भाइयों की नजर है।

बद्री के लिए विवाह प्रस्ताव लेकर वैद्यजी गयादीन के घर आते हैं तो गयादीन इस बारे में अनजान का व्यवहार दिखाते हैं। फिर वैद्यजी जब बात स्पष्ट कर देते हैं गयादीन इसे ठुकराकर कहते हैं। कि उन्होंने अपनी लड़की का विवाह नौकरी लगे शहर के एक लड़के से तय कर दिया है और विवाह पंद्रह दिन में होने वाला है। बेटी की बदनामी होने से रुष्ट होकर वे वैद्यजी से कहते हैं - " मेरी बिटिया पर कलंक लगाओगे तो तुम चाहे जितने बड़े नेता हो, नरक में कीड़े-मकोड़े की तरह जाकर घिसटोगे।” छोटे, रुप्पन और सनीचर को चुप कराने के लिए वैद्यजी से कहते हैं - " अब महाराज, यही बिनती है कि तुम खुद अपना मुँह बंद कर लो और अपने इन साँडों को हटक दो।” गयादीन ने अपनी व्यवहार कुशलता दिखाकर बद्री का विवाह टाल दिया।

वे सौदेबाजी में भी निपुण हैं। परिवार नियोजन विभाग में नौकरी करने वाले नवयुवक को अपनी बेटी के लिए उपयुक्त वर समझकर उसके साथ वे आत्मीयता से बातचीत करते हैं। उसके पिता को दहेज में पंद्रह हजार की जगह सात-आठ हजार पर राजी करने का प्रयत्न करते हैं। यद्यपि उस मामले में पूरी सफलता नहीं मिल पाती।

गयादीन एक ऐसे व्यक्ति हैं, जो अपने को सुरक्षित रखने के लिए समाज के अत्याचारी गुट से दूर रहते हैं, उनके अन्याय -अनाचार का विरोध करने से डरते हैं, लेकिन वे अपने को सुरक्षित रख नहीं पाते। उनके घर से वे ही लोग चांदी करते हैं, उनकी लड़की की बदनामी करते हैं, उनका मौन समर्थन करने का कोई फायदा नहीं होता।

लेखक गयादीन के माध्यम से स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि अवसरवादी बनकर अन्याय का विरोध नहीं करोगे तो वे ही अत्याचारी लोग अधिक से अधिक अन्याय करेंगे और अंत में अपने समर्थकों को भी तबाह कर देंगे। अतः पलायनवादी न बन कर छाती तानकर मुसीबतों से, अन्याय से संघर्ष करो।

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