आषाढ़ का एक दिन : पात्र योजना और चरित्र-चित्रण

आषाढ़ का एक दिन : पात्र योजना और चरित्र-चित्रण पात्र-योजना और चरित्र-चित्रण नाटक के अत्यंत महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं । इस इकाई में ' आ...

आषाढ़ का एक दिन : पात्र योजना और चरित्र-चित्रण

पात्र-योजना और चरित्र-चित्रण नाटक के अत्यंत महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। इस इकाई में 'आषाढ़ का एक दिन' नाटक की समीक्षा के क्रम में, हम इस नाटक की पात्र-योजना, चरित्र-विश्लेषण के विभिन्न आधारों, चरित्र-चित्रण की पद्धतियों एवं चरित्रों की मुख्य विशेषताओं का परिचय प्राप्त कर सकेंगे। 

    In this article, you will read character sketch and analysis of  all main characters of Ashad ka Ek Din such as KalidasMallika, Ambika, Matul and Vilom etc in Hindi. Read also : आषाढ़ का एक दिन नाटक का सारांश तथा उद्देश्य

    Ashad ka Ek Din Character Analysis - पात्र-विश्लेषण

    किसी भी नाटक के पात्रों का अध्ययन-विश्लेषण विभिन्न आधारों पर किया जा सकता है। पहला आधार है मुख्य पात्र और गौण पात्र। मुख्य पात्र वे होते हैं जो नाटक के नायक या नायिका होते हैं। संपूर्ण कथानक का केन्द्र बिंदु ये ही पात्र होते हैं और शास्त्रीय शब्दावली में कहें तो फल-प्राप्ति का सीधा संबंध इन्ही पात्रों से होता है। जबकि गौण पात्रों की स्थिति कथानक में मुख्य पात्रों की अपेक्षा कम समय के लिए होती हैं। ये मुख्य कथा के निर्वाह में सहायता प्रदान करते हैं। इस आधार पर यदि 'आषाढ़ का एक दिन' के पात्रों का अध्ययन करें तो स्पष्ट होता है कि कालिदास और मल्लिका इस नाटक के मुख्य पात्र हैं और शेष सभी गौण या सहायक पात्र। कालिदास और मल्लिका ही इस नाटक के कथा केन्द्र हैं। प्रथम अंक में कालिदास और मल्लिका के परस्पर प्रेम के संकेत हैं, मल्लिका कालिदास की अद्वितीय काव्य-प्रतिभा से सम्मोहित है. और इसी अंक में कालिदास को राजकवि का सम्मान स्वीकार करने का निमंत्रण स्वीकार कर लेता है। द्वितीय अंक में कालिदास की शारीरिक उपस्थिति नहीं है, परंतु उसकी छाया उस पूरे अंक पर दिखाई देती है। इसी अंक में यह सूचना मिलती है कि उसने 'ऋतुसंहार' के बाद और बहुत सी रचनाएँ की हैं और उनके बहुत से नाटकों का मंचन भी हो चुका है, कि उसने राजपुत्री प्रियंगुमंजरी से विवाह कर लिया है, कि उसने अब काश्मीर का राज्यभार संभाल लिया है और अब उसका नया नाम मातृगुप्त हो गया है, कि उसने अब स्वयं को नागरिक आचार-विचार के अनुसार ढाल लिया है, कि वह अपने इस ग्राम प्रांतर में अल्पावधि के लिए रुका हुआ है। रंगिनी-संगिनी, अनुस्वार-अनुनासिक तथा प्रियंगुमंजरी की उपस्थिति का कारण भी कालिदास ही है। इन सभी स्थितियों से मल्लिका का चरित्र और भी सक्षम रूप में हमारे सामने खुलता है। उसकी कोमलता, भावप्रवणता, एकनिष्ठ प्रेम, संयम और इच्छा शक्ति पाठकों को प्रभावित किये बिना नहीं रहती। तृतीय अंक में कालिदास का पुनः प्रवेश होता है और कालिदास तथा मल्लिका अनेक वर्षों बाद एक दूसरे के आमने-सामने होते हैं। इस अंक में मल्लिका के आत्मकथन से उसके संघर्षों और पीड़ा का ज्ञान पाठकों को होता है। कालिदास का लंबा व्यक्तव्य उसकी मानसिकता, विवशता और मल्लिका के साथ एक नये जीवन के आरंभ की चाह को स्पष्ट करता है। यद्यपि कालिदास और मल्लिका का पुनर्मिलन नहीं हो पाता और नायक या नायिका ‘फलागम' से वंचित रह जाते हैं। नाटककार का यह उद्देश्य था भी नहीं। शेष पात्रों को यदि गौण पात्र मानें तो वह भी ठीक नहीं। अंबिका और विलोम अपने आचरण व दृष्टिकोण से कालिदास और मल्लिका के मुकाबले कम प्रभावशाली नहीं हैं। अंबिका एक प्रकार से मल्लिका की प्रतिकृति है और विलोम कालिदास का। ये दोनों ही पात्र जब भी मंच पर आते हैं अपनी उपस्थिति से दर्शकों को झकझोर देते हैं। इसी प्रकार मातुल, निक्षेप, रंगिनी-संगिनी, अनुस्वार-अनुनासिक, प्रियंगुमंजरी की उपस्थिति अपेक्षाकृत कम समय के लिये है परंतु कालिदास और मल्लिका के व्यक्तित्व को विभिन्न कोणों से देखने-परखने में और नाटककार के अभीष्ट को पाठकों तक संप्रेषित करने में वे सहायक भूमिकाएँ निबाहते हैं। इन्हें भी गौण पात्र कहने की अपेक्षा सहायक पात्र कहना अधिक संगत होगा।

    पात्रों के वर्गीकरण का एक और आधार है प्रतिनिधि पात्र और सामान्य पात्र। प्रतिनिधि पात्र किसी वर्ग, वर्ण, समुदाय अथवा किसी विचारधारा विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं जबकि सामान्य पात्र अपनी वैयक्तिक विशेषताओं से समन्वित होते हैं। प्रस्तुत नाटक में सभी पात्र किसी न किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं। कालिदास आधुनिक रचनाकारों का प्रतिनिधि है जिन्हें अपनी प्रतिभा के विकास के लिए, अपनी पहचान बनाने के लिए राज्याश्रय लेना पड़ता है परंतु कलाकार और राजनीति के चरित्रगत अंतर के कारण या तो उन्हें समझौतों का मार्ग चुनना पड़ता है या अपनी दुनिया में वापिस लौट आने का । परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। वे न घर के रहते हैं न घाट के। विलोम कालिदास जैसे भावुक और आदर्शवादी रचनाकार के एकदम विपरीत व्यावहारिक दृष्टिकोण का व्यक्ति है। अम्बिका भी व्यावहारिक जीवन पद्धति की पक्षधर चरित्र है जो जानती है कि कोरी आदर्शवादिता और भावुकता क्षणिक आनंद भले ही दे दे, जीवन की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यावहारिक जीवन दृष्टि ही अपनानी होगी। मल्लिका कालिदास की प्रकृति के अनुकूल आदर्शवादी, भावुक चरित्र है। वह आधुनिक नारी का भी प्रतिनिधित्व करती है जो स्वतंत्र दृष्टि से सोचती है और जो सही समझती है वही करती भी है। दंतुल उन राजपुरुषों की मनोवृत्ति को व्यक्त करता है जो राज्याधिकारों की आड़ में किसी के भी दुःख-सुख, मान-अपमान की चिंता नहीं करते। मातुल अवसरवादी, चापलूस लोगों का प्रतिनिधि है जो अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के लिए अपने घर-द्वार, अपने परिवेश को भी त्याग सकते हैं। उनके लिये कला, प्रतिभा आदि का मूल्य इतना ही है कि उसके माध्यम से सम्मान और सुख अर्जित किया जा सके। प्रियंगुमंजरी भी सत्ता वर्ग की प्रतिनिधि पात्र है जो कृत्रिम जीवन जीते हैं, अपने दर्प के सम्मुख दूसरों की इच्छाओं-भावनाओं के सम्मान की उन्हें कोई चिंता नहीं । अनुस्वार-अनुनासिक उन राज-कर्मचारियों की मनोवृत्ति को दर्शाते हैं जो व्यवस्था को बदलने का दंभ करते हैं परंतु वास्तव में वे करना कुछ भी नहीं चाहते। रंगिनी-संगिनी आधुनिक काल की शोध वृत्ति पर प्रकाश डालती हैं जो समस्याओं की जड़ में न जाकर उनका सतही विश्लेषण करके ही संतुष्ट हो जाती हैं। इस पूरे नाटक मे केवल निक्षेप का चरित्र ही सामान्य चरित्र के रूप में उभरा है जो न अतिव्यावहारिक है, न अति आदर्शवादी। वही एकमात्र ऐसा चरित्र है जो कालिदास के उचित-अनुचित आचरण की परीक्षा संतुलित दृष्टि से करता है।

    पात्रों के वर्गीकरण का एक अन्य आधार है उनके चरित्र की स्थिरता अथवा गतिशीलता अर्थात् जो पात्र अपनी कथनी और करनी में आरंभ से लेकर अंत तक एक ही प्रकार के दिखाई देते हैं वे स्थिर पात्र कहलाते हैं। परंतु जिनकी जीवन दृष्टि , आचरण में परिवर्तन होता रहता है वे गतिशील पात्र कहलाते हैं। 'आषाढ़ का एक दिन' में सभी पात्र स्थिर पात्रों की श्रेणी में आते हैं केवल एक पात्र मातुल के अतिरिक्त। मातुल आरंभ से ही अत्यंत अवसदवादी, स्वार्थी और चाटुकार के रूप में दिखाई देता है। अपनी इसी मनोवृत्ति के कारण वह कालिदास को उज्जयिनी जाने के लिए बाध्य करता है। स्वयं भी उसी के साथ राजधानी चला जाता है। दिन-रात पशुओं की देखभाल करने वाले मातुल को आज उनकी सुरक्षा की कोई चिन्ता नहीं। प्रियंगुमंजरी के ग्राम में आने पर उसकी चाटुकारिता करता है। परंतु अंतिम अंक में उसके किंचित् परिवर्तित रूप के दर्शन हमें होते हैं। उसे अब इस कृत्रिम जीवन से घृणा होने लगी है। कोई योग्यता न होते हुए भी कालिदास का संबंधी होने के कारण-मात्र से उसे भी जो सम्मान मिलता है वह अब उसे बोझ लगने लगा है। अपने गाँव का सहज परिवेश ही अब उसे आकृष्ट करता है इसलिए राजप्रसाद के फिसलन भरे चिकने फर्श पर से फिसल कर टाँग तुड़ाने के बाद वह वापिस लौट आया है। परंतु मातुल के अतिरिक्त शेष सभी पात्र स्थिर दिखाई देते हैं। कालिदास आरंभ से अंत तक भावुक, कल्पनाशील, उदात्त चरित्र के रूप में दिखाई देता है जो मल्लिका से अतिशत स्नेह करता है। यद्यपि द्वितीय अंक में मातृगुप्त के रूप में उसके गाँव में आने और मल्लिका से न मिलने की स्थिति में ऐसा प्रतीत होता है कि वह भी समय के साथ साथ बदल गया है, उसने भी सत्ताधारी वर्ग के गुण-अवगुण, जीवन-पद्धति को अपना लिया है। परंतु तृतीय अंक में उसके लंबे वक्तव्य से उसकी स्थिति स्पष्ट हो जाती है। मल्लिका, अंबिका और विलोम की चरित्रगत विशेषताएँ भी आद्योपान्त एक ही प्रकार की हैं। 

    आषाढ़ का एक दिन - पात्रों की संख्या

    चरित्र योजना करते समय लेखक ने पात्रों की संख्या का भी ध्यान रखा है। नाटक दृश्य विधा है इसलिए नाटककार को इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि पात्रों की संख्या इतनी कम न हो कि कथानक का विन्यास ही भली प्रकार न हो सके और लेखक का अभिप्रेत भी स्पष्ट न हो पाये, और इतनी अधिक भी न हो कि मंच पर पात्रों की भीड़ लग जाये, उनका चरित्र स्पष्ट न हो पाये और दर्शक उन्हें याद भी न रख सकें। मोहन राकेश ने 'आषाढ़ का एक दिन' में मात्र बारह पात्रों की ही योजना की है। इनमें से कुछ तो बहुत थोड़ी ही देर के लिये मंच पर आते हैं और कुछ अधिक समय के लिये। परंतु सभी पात्रों का व्यक्तित्व उनकी चारित्रिक विशेषताएँ पाठकों क सामने उभर आई हैं। 

    Ashad ka Ek Din Character Sketch in Hindi

    पात्रों का चरित्र-चित्रण करने के लिये नाटककार प्रधानतः दो शैलियों का आश्रय लेता है प्रथम, चरित्र-चित्रण की प्रत्यक्ष पद्धति है। इसमें नाटककार स्वयं अथवा विभिन्न पात्रों के मुख से संवादों के माध्यम से उनके गुण दोषों को स्पष्ट करता है। द्वितीय परोक्ष पद्धति है जिसमें पात्रों के क्रिया कलाप, उनका व्यवहार उनकी चारित्रिक विशेषताओं को स्पष्ट करता है। कला की दृष्टि से चरित्र चित्रण की परोक्ष पद्धति ही श्रेष्ठ मानी जाती है। 'आषाढ़ का एक दिन' में प्रत्यक्ष पद्धति का अनुसरण बहुत कम किया गया है। एकाध स्थल ही ऐसे हैं जहाँ किसी पात्र विशेष के विषय मे दो टूक राय दी गयी हो उदाहरणार्थ, विलोम के इस कथन से कालिदास की द्विविधाग्रस्त मनःस्थिति और विलोम की स्पष्ट वक्तृता स्पष्ट होती है “और कालिदास क्यों नहीं चाहता ? क्योंकि मेरी आँखों में उसे अपने हृदय का सत्य झाँकता दिखाई देता है। उसे उलझन होती है।....... किंतु तुम तो जानती हो अंबिका, मेरा एक मात्र दोष यह है कि मैं जो अनुभव करता हूँ, स्पष्ट कह देता हूँ,” परंतु इस प्रकार के स्थल बहुत कम हैं अधिकांशत पात्रों के वार्तालाप के ढंग, उनके कार्य-कलापों के आधार पर ही पाठकों को उनके चरित्र के संबंध में अनुमान लगाना पड़ता है। 

    कालिदास का चरित्र चित्रण

    कालिदास प्रस्तुत नाटक का प्रमुख पात्र है। नाटक का कथानक उसी के इर्द-गर्द घूमता है, सभी पात्रों की चर्चा का केंद्र बिंदु भी वही है और संपूर्ण नाटक में उसकी उपस्थिति भी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से अनुभव होती है। इन कारणों से उसे 'आषाढ़ का एक दिन' का नायक भी कहा जा सकता है।

    साहित्य के क्षेत्र में कालिदास का नाम विश्व प्रसिद्ध है। उज्जयिनी में सम्राट चंद्रगुप्त के राज्याश्रय में रहकर उन्होंने उत्कृष्ट रचनाएँ संस्कृत साहित्य को प्रदान की। पाश्चात्य आलोचकों ने उन्हें संस्कृत साहित्य के शेक्सपीयर का अभिधान दिया। परंतु कालिदास से साहित्य के पाठकों का परिचय केवल उनकी रचनाओं के माध्यम से ही है। वे सर्वश्रेष्ठ रचनाकार कैसे बनें, उनके प्रेरणास्रोत क्या थे, उन्हें कौन कौन सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा इत्यादि प्रश्नों का उत्तर कहीं से नहीं मिलता। कवि कालिदास और काश्मीर के शासक मातृगुप्त एक ही व्यक्ति थे जैसा कि प्रसाद जी ने चंद्रगुप्त नाटक में चित्रित किया है या अलग-अलग यह प्रश्न भी अनुत्तरित ही है। इतिहास के इस मौन का लाभ उठाकर मोहन राकेश ने अपनी कल्पना के सहारे कालिदास के चरित्र का सृजन किया है। प्रस्तुत नाटक में कालिदास का इतिहास से मात्र इतना ही संबंध है कि वे अपने समय के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार थे और संभवतः मातृगुप्त के नाम से उन्होंने कुछ समय के लिये काश्मीर का शासन भार संभाला। नाटककार ने अपनी कल्पना शक्ति के बल पर कालिदास के व्यक्तित्व को नया आयाम दिया है। उसके साहित्यकार बनने और राज्याधिकारी बनने की पृष्ठभूमि, उसके मानसिक द्वंद्व, उसकी दुविधा और पीड़ा-इन सबको नवीन ढंग से वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया है। इस संदर्भ में डॉ. गिरीश रस्तोगी का यह कथन अत्यंत सार्थक प्रतीत होता है"साहित्य इतिहास के समय से नहीं बँधता न ही समय में इतिहास का वस्तिार करता है। युग से युग को अलग नहीं करता, कई-कई युगों को एक साथ जोड़ देता है। इस तरह इतिहास के 'आज और कल', 'कल और आज' नहीं रह जाते समय की असीमता में कुछ ऐसे जुड़े हुए क्षण बन जाते हैं जो जीवन को दिशा-संकेत देने की दृष्टि से अविभाज्य हैं। इस तरह साहित्य में इतिहास अपनी यथा तथ्य घटनाओं में व्यक्त नहीं होता, घटनाओं को जोड़ने वाली ऐसी कल्पनाओं में व्यक्त होता है जो अपने ही एक नये और अलग रूप में इतिहास का निर्माण करती है। इसलिए जो ‘आषाढ़ का एक दिन' नाटक और उसके नायक कालिदास को ऐतिहासिक नाटक और ऐतिहासिक व्यक्तित्व समझ कर ही देखेंगे वह उनकी एक नितान्त भ्रामक दृष्टि होगी और उनका नाटक की आत्मा तक, मौलिकता तक पहुँचना ही मुश्किल होगा।” 

    नाटक के आरंभ में ही अत्यंत कोमल भावुक प्रकृति के कालिदास के दर्शन होते हैं जो राजपुरुष के बाण से आहत मृगशावक के प्राण बचाने के लिए उद्यत है। वह उसे आराम देने के लिए बिस्तर पर सुलाना चाहता है, उसे गर्म दूध पिलाना चाहता है और राजपुरुष दंतुल से वाद-विवाद करता है यह जानते हए भी कि राजकर्मचारियों के अधिकार का क्षेत्र बहुत विस्तृत होता है-"हम जिएँगे हरिणशावक! जिएँगे न ? एक बाण से आहत होकर हम प्राण नहीं देंगे। हमारा शरीर कोमल है तो क्या हुआ? हम पीड़ा सह सकते हैं। एक बाण प्राण ले सकता है, तो उँगलियों का कोमल स्पर्श प्राण दे भी सकता है। हमें नये प्राण मिल जाएँगे। हम कोमल आस्तरण पर विश्राम करेंगे। हमारे अंगों पर घृत का लेप होगा। कल फिर वनस्थली में धूमेंगे। कोमल दूर्वा खाएँगे।" (आषाढ़ का एक दिन, पृ० 15) वस्तुतः कालिदास के स्वभाव की यह कोमलता, यह सहृदयता ही है जो उसे गाँव के दूसरे लोगों से भिन्न व्यक्तित्व प्रदान करती है। उसकी भावुकता और संवेदनशीलता ही चरम पर पहुँच कर कविता के रूप में प्रस्फुटित होती है। इसी कारण उसकी प्रसिद्धि अव्यावहारिक और नासमझ व्यक्ति के रूप में और इसीलिए अंबिका को विश्वास नहीं हो पाता कि मल्लिका कालिदास के साथ सुखपूर्वक व्यतीत कर सकेगी और मातुल नाराज है कि वह अपने आदर्शों के कारण राज सम्मान के इतने अच्छे अवसर को हाथ से निकलने दे रहा है।

    कालिदास भावुक और अव्यावहारिक भले ही हों परंतु मूर्ख नहीं है। स्थितियों की गंभीरता को वह जानता है और अपने स्वभाव और सीमाओं को भी। उसे ज्ञात है कि मल्लिका का अनुराग उसके मन में काव्य-रचना की प्रेरणा जगाता है, गाँव का सहज-स्वाभाविक परिवेश और रमणीक प्राकृतिक दृश्य उसके अनुभवों को विस्तार देते हैं, अपनी निश्चिंत -निर्द्वन्द्ध जीवन-पद्धति के कारण वह साहित्य के प्रति समर्पित है। उसे आशंका है कि राज्य की सुख सुविधाएँ, कृत्रिम जीवन पद्धति और नये उत्तरदायित्व उसकी प्रतिभा को बाधित कर देंगे, इसलिए वह उज्जयिनी जाने के प्रति उत्साहित नहीं है। अभी तो वह जो चाहता है, जैसे चाहता है और जब चाहता है लिखता है परंतु राज्याश्रय स्वीकार करने के बाद तो दूसरों की रुचि और आवश्यकताओं के अनुरूप लिखना होगा। उसका यह वक्तव्य कि “मैं राजकीय मुद्राओं से क्रीत होने के लिये नहीं हूँ।''कालिदास की मानसिकता को स्पष्ट करने में पूर्णतः समर्थ है। वह समझौता नहीं करना चाहता। कालान्तर में उसकी आशंका भी सही सिद्ध होती है। वह न तो नये जीवन को स्वीकार पाता है और न अपने पुराने संबंधों और परिवेश से मुक्त हो पाता है। अंततः मातृगुप्त के कलेवर को त्याग अपने निजी परिवेश में लौट आने का मार्ग ही उसके पास बचता है। वह अपनी नवीन काव्य-कृतियों के कारण देश-विदेश में प्रसिद्धि भले ही पा रहा है परंतु वास्तव में वह नवीन कुछ नहीं लिख रहा। नयी रचनाएँ पुराने ही अनुभवों का पुनः सृजन हैं “लोग सोचते हैं मैंने उस जीवन और वातावरण में रह कर बहुत कुछ लिखा है। परंतु मै जानता हूँ कि मैने वहीं रहकर कुछ नहीं लिखा। जो कुछ लिखा है वह यहाँ के जीवन का ही संचय था। 'कुमार संभव' की पृष्ठभूमि यह हिमालय है और तपस्विनी उमा तुम हो। 'मेघदूत' के यक्ष की पीड़ा मेरी पीड़ा है और विरह विमर्दिता यक्षिणी तुम होयद्यपि मैंने स्वयं यहाँ होने और तुम्हें नगर में देखने की कल्पना की। ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम' में शकुन्तला के रूप में तुम मेरे सामने थीं। मैंने जब-जब लिखने का प्रयत्न किया तुम्हारे और अपने जीवन के इतिहास को फिर-फिर दोहराया और जब उससे हटकर लिखना चाहा तो रचना प्राणवान नहीं हुई।"

    'आषाढ़ का एक दिन' नाटक में कालिदास और मल्लिका का प्रेम आद्योपान्त व्याप्त है। स्थान-स्थान पर उनके इस प्रेम-भाव की अभिव्यक्ति भी हुई है। राज्य सम्मान को स्वीकार न कर पाने का एक कारण मल्लिका का संभावित वियोग भी है। “फिर एक बार सोचो, मल्लिका! प्रश्न सम्मान और राज्याश्रय स्वीकार करने का ही नहीं है। उससे कहीं बड़ा एक प्रश्न मेरे सामने है।" (पृ० 43-44) यह 'कहीं बड़ा प्रश्न' और कोई नहीं मल्लिका ही है। पत्नी प्रियंगुमंजरी से भी उसका यह भाव छिप नहीं सका है इसलिए वह स्वभाविक उत्सुकता और ईर्ष्यावश मल्लिका से मिलने पहुँचती है। नाटक के उत्तरार्द्ध में अपने जीवन को नये सिरे से आरंभ करने के लिए कालिदास सत्ता-वैभव सब कुछ छोड़-छाड़ कर मल्लिका के पास वापिस आ जाता है।

    नाटक के आरंभ में कालिदास की असाधारण प्रतिभा, यश-प्रतिष्ठा, भावुकता, संवेदनशीलता-सहृदयता, आत्माभिमान के दर्शन होते हैं परंतु धीरे-धीरे उसके व्यक्तित्व की यह चमक क्षीण होती दिखाई देती है। जो कालिदास मल्लिका के प्रति स्नेह-भाव से बँधा होने के कारण उज्जयिनी जाने को तैयार नहीं था वह एक बार चले जाने के बाद फिर उसकी कोई खबर नहीं लेता। काश्मीर जाते हुए एक बार आता भी है तो उससे मिले बिना ही चला जाता है क्योंकि उसे डर है कि उसका अस्थिर मन कहीं और अधिक अस्थिर न हो जाये। जो अपनी भावना और अपने सिद्धान्त के प्रति समझौता करने को तैयार नहीं था वह सत्ता और अधिकर को “अभावपूर्ण जीवन की एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया' मान कर स्वीकार कर लेता है। इस स्वीकार के पीछे उन सब से प्रतिशोध का भाव भी था जिन्होंने उसकी भर्त्सना की थी, मजाक उड़ाया था। इन परिवर्तित परिस्थितियों में उसके अपने गाँव के निवासियों ने उसके आगमन को उत्सव की भाँति मनाया था, उसके राजकर्मचारियों ने गाँव के सहज-स्वाभाविक जीवन को छिन्न-भिन्न कर दिया था, वे लोग एक-एक वस्तु की अनुकृति बनाते फिर रहे थे, वहाँ के पत्थरों-जीव जंतुओं यहाँ तक कि गरीब-अनाथ बच्चों को अपने साथ ले जाना चाहते थे जिससे कालिदास को अपनी जड़ों से उखड़ने का खेद न हो, उसकी पत्नी ने मल्लिका की भावनाओं की चिंता न करते हुए उसके घर की दीवारों के परिसंस्कार और किसी राजकर्मचारी से विवाह करने का अनुचित प्रस्ताव रखा था। किन्तु कालिदास इन अनुचित
    और हास्यास्पद उपक्रमों का कहीं विरोध करता दिखाई नहीं देता। तीसरे अंक में वह वापिस आता भी है तो इसलिए कि वह अपने 'उस' जीवन से असंतुष्ट था। अपने लंबे वक्तव्य में वह अपने जीवन, क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं, मानसिकता का तो स्पष्टीकरण करता है, अपनी यह इच्छा भी स्पष्ट कर देता है कि वह मल्लिका के साथ अपने जीवन को पुनः अथ से आरंभ करना चाहता है। परंतु एक बार भी यह जानने की कोशिश नहीं करता कि मल्लिका पर इस दौरान क्या बीती? उसे कैसे-कैसे कष्टों का सामना करना पड़ा, कैसे-कैसे व्यंग्य बाणों को झेलना पड़ा। मल्लिका के अभाव की संतान' को देखकर वह बिना कुछ कहे वहाँ से वापिस चला जाता है परंतु उसकी इच्छा-अनिच्छा जानने का प्रयत्न वह नहीं करता। इन प्रसंगों से कालिदास एक अत्यंत आत्मकेंद्रित, खंडित और दुर्बल मनःस्थिति वाले चरित्र के रूप में हमारे सामने आता है। अंबिका ने उसके व्यक्तित्व का आकलन ठीक ही किया है “वह व्यक्ति आत्मसीमित है संसार में अपने सिवा उसे और किसी से मोह नहीं है।" (पृ० 23) असाधारण प्रतिभा के स्वामी कालिदास के व्यक्तित्व के साथ इन दुर्बलताओं का मेल नहीं बैठता। इसीलिए कालिदास के व्यक्तित्व को आधार बनाकर आलोचक आपत्तियाँ उठाते रहे हैं। वस्तुतः मोहन राकेश का अभिप्रेत कालिदास के माध्यम से एक सृजन-प्रतिभासंपन्न साहित्यकार, एक आधुनिक मानव की मानसिकता, उसकी विवशता, उसके द्वन्द्व, उसकी पीड़ा को उभारना रहा है और इसमें लेखक सफल रहा है। 

    मल्लिका का चरित्र चित्रण

    'आषाढ़ का एक दिन' नाटक में मल्लिका की स्थिति नायिका की है नायक कालिदास की प्रेयसी और प्रेमिका होने के कारण भी और नाटक की मुख्य कथा से प्रत्यक्षतः संबद्ध होने के कारण भी। नाटक की प्रत्येक घटना का प्रभाव मल्लिका पर पड़ता है। कालिदास से प्रेम करने के कारण अंबिका के गुस्से और लोकापवाद का सामना उसे ही करना पड़ता है, विलोम और मातुल के व्यंग्य बाणों को वही झेलती है, कालिदास के उज्जयिनी जाने, दूसरे अंक में वापिस आकर भी न मिलने और तीसरे अंक में कालिदास के आकर फिर वापिस चले जाने की घटनाओं का भी सीधा प्रभाव उसी पर पड़ता है, यहाँ तक कि प्रियगुमंजरी के अपमानजनक और हास्यास्पद प्रस्तावों को भी वह अत्यंत धैर्यपूर्वक सहन कर जाती है। वह कालिदास से प्रेम करती है और कालिदास उसे। नाटक के आरंभ में ही भीगे वस्त्रों में मल्लिका का प्रवेश होता है और आते ही उसे अपनी माँ अम्बिका के रोष को झेलना पड़ता है कारण आज वह कालिदास के साथ आषाढ़ के पहले दिन की वर्षा में भीगती रही है। परंतु वह अपने इस अनुभव पर इतनी मुग्ध है कि उसे किसी की नाराजगी की परवाह नहीं। यहाँ यह बात महत्त्वपूर्ण है कि मल्लिका के प्रेम का आधार कालिदास की दैहिक सुंदरता अथवा उसकी प्रतिष्ठा या उसका सामाजिक स्तर नहीं। वरन् उसके प्रेम का आधार है कालिदास की सृजनशीलता, उसके व्यक्तित्व की सहजता, आत्मीयता, भावुकता और संवेदनशीलता। मनुष्य को मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले ये ही गुण मल्लिका को कालिदास से बाँधे रखते हैं। उसके लिए भावना महत्वपूर्ण है, भौतिक सुख-सुविधाएँ नहीं। इसीलिए वह कहती है मैंने भावना में एक भावना का वरण किया है। मेरे लिए वह संबंध और सब संबंधों से बड़ा है। मैं वास्तव में अपनी भावना से प्रेम करती हूँ जो पवित्र है, कोमल है, अनश्वर है....."

    “जीवन की स्थूल आवश्यकताएँ ही तो सब कुछ नहीं हैं, माँ! उनके अतिरिक्त भी तो बहुत कुछ है।"

    मल्लिका का यह निःस्वार्थ प्रेम ही उसे वह शक्ति देता है जो अपने प्रेमास्पद को बाँधती नहीं वरन् उसके विकास की कामना से उसे मुक्त कर देती है। कालिदास की उन्नति ही मानों उसके जीवन का एकमात्र ध्येय है इसीलिए वह कालिदास को उज्जयिनी जाने के लिए प्रेरित करती है क्योंकि उसे आशा है और कालिदास की क्षमता पर विश्वास भी कि नयी जीवन-स्थितियाँ कालिदास की प्रतिभा को नयी ऊँचाइयाँ प्रदान करेंगी। वह अपने जीवन को तपस्विनी की भाँति व्यतीत करती है, अनेक कष्ट झेल कर भी उसकी रचनाओं को मँगाती और पढ़ती है। उसे अपने अभाव ग्रस्त जीवन से कोई शिकायत नहीं और लोकापवाद की कोई चिंता नहीं। कालिदास के जाने, उससे मिलने न आने और आकर चले जाने का उसे दुःख तो होता है किंतु शिकायत नहीं। कालिदास से जुड़े अपवाद हों या उसका राजकन्या से विवाह - हर एक घटना को वह तार्किक संगति दे देती है “व्यक्ति उन्नति करता है तो उसके नाम के साथ कई तरह के अपवाद जुड़ने लगते हैं।”

    “उनके प्रसंग में मेरी बात कहीं नहीं आती। मैं अनेकानेक साधारण व्यक्तियों में से हूँ। वे असाधारण हैं। उन्हें जीवन में असाधारण का ही साथ चाहिए था।..... सुना है राजदुहिता बहुत विदुषी हैं।” 

    “इसके विपरीत मुझे अपने से ग्लानि होती है, कि यह, ऐसी मैं, उनकी प्रगति में बाधा भी बन सकती थी। आपके कहने से मैं उन्हें जाने के लिए प्रेरित न करती, तो कितनी बड़ी क्षति होती ?” 
    “उनके संबंध में कुछ मत कहो, माँ कुछ मत कहो...... ।”

    मल्लिका में जितना समर्पण का भाव है उतना ही आत्मविश्वास और दृढ़ता भी है। इसलिए कालिदास के संबंध से उसे कोई अपराध बोध नहीं है। उसके लिए जीवन में मूल्यों की महत्ता है इसलिये वह कालिदास को पंसद करती है, भौतिक सुख-सुविधाएँ उसके लिए महत्वहीन हैं और व्यावहारिकता अनावश्यक, इसलिए विलोम का उसके हृदय में कोई स्थान नहीं। विशेष बात यह है कि वह अपने विचारों और सिद्धान्तों के प्रति इतनी स्पष्ट है कि उसे कहने या कार्यान्वित करने में उसे कोई दुविधा नहीं होती। उसकी यह दृढ़ता कालिदास को उज्जयिनी जाने के लिए तैयार करने में भी दिखाई देती है और विलोम के प्रति भी। वह कालिदास को समझाती है “यह क्यों नहीं सोचते कि नयी भूमि तुम्हें यहाँ से अधिक सम्पन्न और उर्वरा मिलेगी। इस भूमि से तुम जो कुछ ग्रहण कर सकते थे, कर चुके हो। तुम्हे आज नयी भूमि की आवश्यकता है, जो तुम्हारे व्यक्तित्व को अधिक पूर्ण बना दे।” (पृ० 45) विलोम को डाँट कर उसे उसकी वास्तविक स्थिति का बोध कराना चाहती है “आर्य विलोम, आप अपनी सीमा से आगे जाकर बात कर रहे हैं। मैं बच्ची नहीं हूँ अपना भला-बुरा सब समझती हूँ।... आप संभवतः यह अनुभव नहीं कर रहे आप यहाँ इस समय एक अनचाहे अतिथि के रूप में उपस्थित है।” (पृ० 42) मल्लिका का आत्माभिमान उस समय भी स्पष्ट होता है जब उसे ज्ञात होता है कि कालिदास इस ग्राम प्रदेश में आये हुए हैं। वह धैर्यहीन होकर उससे स्वयं मिलने की चेष्टा नहीं करती वरन् उसके आने की प्रतीक्षा करती है। रंगिनी-संगिनी और अनुस्वार-अनुनासिक का व्यवहार भी उसे विचित्र और हास्यास्पद लगता है किंतु उसके अपने व्यवहार से कहीं अधीरता का बोध नहीं होता। वह अपने और कालिदास के स्नेह-संबंध की गहनता से भी परिचित है और कालिदास तथा प्रियंगुमंजरी के विवाह-संबंध से भी। किंतु उसे अपनी मर्यादा का ज्ञान है इसलिए प्रियंगुमंजरी के अशिष्ट और अनुचित प्रस्तावों को बिना नाराज हुए अस्वीकार कर देती है। विवाह-प्रसंग के संदर्भ में वह स्वयं को स्वतंत्र मानती है। इसीलिए उसे लोकापवाद का भय नहीं है। उसके अनुसार किसी को भी उसके व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है “क्या कहते हैं ? क्या अधिकार है उन्हें कुछ भी कहने का ? मल्लिका का जीवन उसकी अपनी संपत्ति है। वह उसे नष्ट करना चाहती है तो किसी को उस पर आलोचना करने का क्या अधिकार है ?” (पृ० 12) वस्तुतः मल्लिका के माध्यम से मोहन राकेश ने आधुनिक युग की सवतंत्र चेता नारी को प्रस्तुत किया है जो स्नेहशील है, आत्मभिमानी और दृढ़ है, सोचने-समझने और स्वयं निर्णय लेने में सक्षम है। बल्कि कालिदास का चरित्र उसके सम्मुख दुर्बल नज़र आने लगता है। डॉ० गिरीश रस्तोगी ने उसके चरित्र का विश्लेषण करते हुए ठीक ही लिखा है जहाँ तक मल्लिका का संबंध है, उससे संबंधित सारे स्थल निर्विवाद हैं....। मतलब मल्लिका अपने सारे निर्णयों, उलझनों और भावों में बहुत स्पष्ट है। लगता है मल्लिका राकेश की आकांक्षा है केवल कल्पना नहीं, एक ऐसा नारी रूप जो रचनाकार के लिए प्रेरक हो, उसकी रचनात्मक शक्ति का विस्तार करने में सहायक हो, कही बाधक न बनता हो।" 

    विलोम का चरित्र चित्रण

    'आषाढ़ का एक दिन' का नायक कालिदास है परंतु विलोम की स्थिति भी उससे कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। उसे प्रतिनायक का दर्जा दिया जा सकता है। नाटक में उसकी उपस्थिति प्रत्येक अंक में है। उसका सीधा संबंध कालिदास और मल्लिका से है। कालिदास की भाँति वह भी मल्लिका से प्रेम करता है यद्यपि वह यह भली-भाँति जानता है कि मल्लिका के जीवन और हृदय में उसका कोई स्थान नहीं है। मल्लिका सदा ही उसके प्रवेश को अनधिकार प्रवेश ही मानती है और कालिदास भी उससे मिलकर कभी सहज नहीं हो पाता। मल्लिका कहती है कि “आर्य विलोम, मैं इस प्रकार की अनर्गलता क्षम्य नहीं समझती।” (पृ. 40) और इसी क्रम में कालिदास कहता है “तुम दूसरों के घर में ही नहीं, उनके जीवन में भी अनधिकार प्रवेश कर जाते हो।”

    वस्तुतः कालिदास अतिभावुकता, कोमलता और अव्यावहारिकता का चरम बिंदु है तो विलोम व्यावहारिक दृष्टिकोण का। उसकी प्रकृति कालिदास की प्रकृति से नितान्त विपरीत है इसीलिए लेखक ने उसे विलोम नाम दिया है। कालिदास भी स्वंय को और विलोम को विपरीत ध्रुव ही मानता है “वर्षों का व्यवधान भी विपरीत को विपरीत से दूर नहीं करता।” (पृ० 39) इन दोनों पात्रों के मध्य संघर्ष की जो स्थिति निरंतर बनी रहती है उसका मुख्य कारण स्वभाव की यह विपरीतता ही है।

    नायक के विपरीत प्रकृति का होते हुए भी विलोम को खलनायक नहीं माना जा सकता यद्यपि उसकी उपस्थिति खलनायक की ही भाँति है। खलनायक उस दुष्ट पात्र को कहते हैं जो कथानक में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न करे, नायक-नायिका को सहयोग करने के स्थान पर उनके मार्ग की बाधा बने परंतु विलोम ऐसा कुछ भी नहीं करता। मल्लिका के प्रति स्नेह के कारण कालिदास के प्रति उसके मन में ईर्ष्या और प्रतिद्वंद्विता का भाव है जिससे प्रेरित होकर वह जब-तब उन दोनों का सामना करता है और अपने पक्ष को सिद्ध करने का प्रयास करता है। उसे मल्लिका की भावनाओं का ज्ञान है, उसके भविष्य के प्रति वह चिंतित भी है। कालिदास के व्यक्तित्व को भी वह भली-भाँति पहचानता है इसीलिए उसके उज्जयिनी जाने से पूर्व अपनी आशंकाओं को स्पष्ट कर देता है। उसे मालूम है कि कालिदास के साहचर्य के कारण मल्लिका और अंबिका को अनेक प्रकार के लोकापवाद का सामना करना पड़ता है, करना पड़ सकता है, कालिदास यदि राजधानी चला जाएगा तो मल्लिका का क्या होगा और राजकीय सुख-सुविधाओं के बीच ऐसे बहुत से कारण होते है जिनके सम्मुख व्यक्ति विवश हो जाता है निम्नलिखित उद्धरण विलोम के व्यक्तित्व को समझने में सहायक होंगे “यह अनुभव करने की मैंने आवश्यकता नहीं समझी। तुम मुझसे घृणा करती हो, मैं जानता हूँ। परंतु मैं तुमसे घृणा नहीं करता। मेरे यहाँ होने के लिए इतना ही पर्याप्त है।”

    “आज तक ग्राम-प्रांतर में कालिदास के साथ मल्लिका के संबंध को लेकर बहुत कुछ कहा जाता रहा है। उसे दृष्टि में रखते हुए क्या यह उचित नहीं कि कालिदास यह स्पष्ट बता दे कि उसे उज्जयिनी अकेले ही जाना है या ..... ।”

    “सुना है वहाँ जाकर व्यक्ति बहुत व्यस्त हो जाता है वहाँ के जीवन में कई तरह के आकर्षण हैं रंगशालाएँ, मदिरालय और तरह-तरह की विलास भूमियाँ!”

    विलोम की इन शंकाओं को कोई समाधान नहीं होता और उसकी आशंका अंततः सही सिद्ध होती है। कालिदास नये वातावरण में मल्लिका को भूलता तो नहीं परंतु उसे पास भी नहीं आ पाता। विलोम अपने विषय में बहुत स्पष्ट है अपनी प्रकृति के विषय में, अपनी योग्यता और आकांक्षाओं के विषय में। इसीलिए वह कहता है “विलोम क्या है ? एक असफल कालिदास और कालिदास ? एक सफल विलोम। हम कहीं एक दूसरे के बहुत निकट पड़ते हैं।” विलोम और कालिदास दोनों मल्लिका से प्रेम करते हैं और यश-लाभ के आकांक्षी भी हैं। परंतु कालिदास को मल्लिका से प्रेम भी मिला है और यश भी। जबकि विलोम इन दोनों ही उपलब्धियों से वंचित रह गया है। विलोम के स्वभाव की यह स्पष्टता उसकी वाणी में भी झलकती है वह जो कुछ सही सोचता है उसी सच को कहने का साहस भी रखता है। उसकी इस स्पष्टवादिता के कारण ही नाटक में बार-बार द्वन्द्व और संघर्ष की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है। विलोम नाटक का नायक भले ही न हो परंतु नाटक में अनेक ऐसे प्रसंग हैं जब उसका चरित्र कालिदास की अपेक्षा अधिक दृढ़ दिखाई देता है। दूसरे अंक में कालिदास के मिलने भी न आने से वह भी क्षुब्ध है क्योंकि इससे मल्लिका और अंबिका दुःखी हैं। तीसरे अंक में भी यही संकेत मिलता है कि अंबिका की मृत्यु के उपरान्त उसी ने मल्लिका को आश्रय दिया है।

    अंबिका का चरित्र चित्रण

    अंबिका गाँव की एक वृद्धा स्त्री और मल्लिका की माँ है। परंतु इन दोनों का स्वभाव और मान्यताएँ परस्पर विपरीत हैं। वह मल्लिका की भाँति मात्र भावनाओं में विश्वास नहीं रखती। उसके लिये लोकाचार, भौतिक आवश्यकताएँ और सांसारिक सुख भी महत्वपूर्ण हैं इसीलिए वह अन्य सामान्य माँओ की भाँति मल्लिका का विवाह कर देना चाहती है जिससे वह लोकापवाद से बच सके और लौकिक दृष्टि से सामान्य जीवन बिता सके। यथार्थ से आँखे मूंदकर मात्र भावनाओं के सहारे जीवन नहीं जिया जा सकता। वह मल्लिका और कालिदास के संबंध को इसीलिए नापसंद करती है। कालिदास के उज्जयिनी जाने के भी पक्ष में भी वह नहीं है"तुम जिसे भावना कहती हो वह केवल छलना और आत्म प्रवंचना है।..... भावना में भावना का वरण किया है।..... मैं पूछती हूँ भावना में भावना का वरण क्या होता है? उससे जीवन की आवश्यकताएँ किस तरह पूरी होती हैं ?" (पृ० 13)

    मल्लिका की जीवन दृष्टि से असहमत होते हुए भी उसका ममत्व छिप नहीं पाता। हालाँकि उसकी प्रकट अभिव्यक्ति कहीं नहीं दिखाई देती। परंतु उसकी खीझ, गुस्सा, चिंता और अस्वस्थता सब उसी के लक्षण हैं। यह वात्सल्य मल्लिका- कालिदास-संबंधी प्रवाद को लेकर भी झलकाता है, मल्लिका को छोड़कर कालिदास के राजधानी जाने को लेकर भी और प्रियंगुमंजरी के अशोभनीय प्रस्तावों पर भी। इसके मन में यह कल्पना नहीं है क्योंकि यह भावना के स्तर पर जीती है।” (पृ० 74)

    अम्बिका आत्माभिमानिनी भी है। अन्य सामान्य माँओं की भाँति वह भी मल्लिका का घर बसा देखना चाहती है किन्तु अपमान का मूल्य देकर नहीं। सारे अभावों और विवशता के बावजूद वह प्रियंगुमंजरी के दर्प-भरे व्यवहार से आहत होती है और निडर होकर उसकी ही भाषा में उत्तर भी देती है। यह घर सदा से इस स्थिति में नहीं है राजवधू मेरे हाथ चलते थे, तो मैं प्रतिदिन इसे लीपती-बुहारती थी। यहाँ की हर वस्तु इस तरह गिरी-टूटी नहीं थी। परंतु आज तो हम दोनों माँ बेटी भी यहाँ टूटी-सी पड़ी रहती हैं।” (पृ० 75)

    अम्बिका को मानव-स्वभाव का भी अच्छा ज्ञान है। वह कालिदास के आत्मलीनता के स्वभाव को पहचान लेती है। मल्लिका और कालिदास के संबंध के पक्ष में वह जो नहीं है उसका एक कारण यह भी है कि वह जानती है कि यह आत्मलीनता मनुष्य को आत्मकेंद्रित और स्वार्थी बना देती है और ऐसा व्यक्ति कभी किसी को सुख नहीं दे सकता वह व्यक्ति आत्मसीमित है। संसार में अपने सिवा उसे और किसी से मोह नहीं है।" (पृ० 23) उसका यह निष्कर्ष पूर्णतः गलत भी नहीं है।

    इस प्रकार हम देखते हैं कि अंबिका का चरित्र यद्यपि सहायक चरित्र के रूप में नियोजित हुआ है परंतु अपनी ममता और खरेपन के कारण वह पाठकों को प्रभावित किये बिना नहीं रहती।

    प्रियंगुमंजरी का चरित्र चित्रण

    प्रियंगुमंजरी की भी नाटक में स्थिति सहायक पात्र के रूप में ही है। वह उज्जयिनी के यशस्वी सम्राट की पुत्री है। उसकी विद्वत्ता चर्चा का विषय बन चुकी है"उन्हें जीवन में असाधारण का ही साथ चाहिए था।... ... सुना है राजहिता बहुत विदुषी हैं।" (पृ० 52) कालिदास से उसका विवाह हआ है। मल्लिका उसे 'असाधारण' कह कर भले ही संतोष कर ले परंतु अपने आचारण से वह एक साधारण स्त्री ही प्रतीत होती है। उसने अत्यंत प्रतिभाशाली कालिदास से विवाह अवश्य किया परंतु कालिदास के प्रेम की स्वामिनी शायद वह नहीं बन पाई है। उसे भली-भाँति ज्ञात हो गया है कि कालिदास के हृदय में मल्लिका और अपने ग्रामीण परिवेश का जो स्थान है उसे न तो वह प्राप्त कर सकती है न ही उज्जयिनी और काश्मीर की सत्ता, सुख और वैभव। उसके मन में स्त्री-सुलभ जिज्ञासा और ईर्ष्या भी है कि मल्लिका और उस ग्राम प्रांतर की ऐसी कौन सी विशेषता है जिसके सम्मुख राज्याधिकार और वैभव-विलास भी प्रभावहीन प्रतीत होते हैं। अपनी इस जिज्ञासा की शांति के लिए ही वह काश्मीर जाते हुए कुछ समय के लिये उस गाँव में आती है और विशेष रूप से मल्लिका से मिलती है। परंतु उसका कोई संवाद, हाव-भाव, क्रिया-प्रतिक्रिया ऐसी नहीं है जिससे यह आभास होता हो कि वह वहाँ की सादगी और सहजता से प्रभावित हुई हो। राजकन्या होने का दर्प उसके प्रत्येक हाव-भाव से झलकता रहता है। वह अपने आप को और लोगों से भिन्न और ऊँचा मानती है और उसका पति होने के कारण कालिदास की स्थिति भी गाँव के अन्य लोगों के समकक्ष नहीं है। वह अब पर्वतों-उपत्यकाओं में विचरने वाला, वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य का आस्वादन करने वाला, सीधी-सादी मल्लिका से प्रेम करने वाला पुराना कालिदास नहीं बल्कि काश्मीर का शासक मातृगुप्त है। इसीलिए मल्लिका द्वारा 'कालिदास' पुकारा जाना उसे सहन नहीं होता“अब वे मातृगुप्त के नाम से जाने जाते हैं।” 

    वह मल्लिका के सहज सौंदर्य की प्रशंसा करती है और उस ग्राम प्रदेश के सौंदर्य की भी“सचमुच वैसी ही हो जैसी मैंने कल्पना की थी।” “इस सौंदर्य के सामने जीवन की सब सुविधाएँ हेय हैं। इसे आँखों में व्याप्त करने के लिए जीवन भर का समय भी पर्याप्त नहीं।” परंतु प्रशंसा का यह भाव स्थायी नहीं है। शीघ्र ही इस सबसे भिन्न और महान होने का अहंकार उसे घेर लेता है “आज इस भूमि का आकर्षण ही हमें यहाँ खींच लाया है। अन्यथा दूसरे मार्ग से जाने में हमें अधिक सुविधा थी।” “एक प्रदेश का शासन बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है।...... यूँ वहाँ के सौन्दर्य की ही इतनी चर्चा है, परन्तु हमें उसे देखने का अवकाश कहाँ रहेगा ? सत्ता और अधिकार का मद प्रायः लोगों को संवेदनहीन बना देता है। प्रियंगुमंजरी भी मल्लिका की भावनाओं को जानते हुए भी उसकी चिंता नहीं करती। इसीलिए वह उसके घर की दीवारों को गिरा कर उसका ‘परिसंस्कार' कराने, अनुस्वार-अनुनासिक जैसे मूर्ख राजकर्मचारियों से विवाह करने, अपनी सहचरी बनाकर उसे अपने साथ ले चलने का प्रस्ताव रखती है। ये सभी प्रस्ताव हास्यास्पद भी हैं और अपमानजनक भी और विदुषी राजकुमारी की गरिमा के प्रतिकूल भी। प्रियंगुमंजरी एक ओर विचित्र बात कहती है कि वह यहाँ का कुछ वातावरण अपने साथ ले जाना चाहती है जिससे कालिदास को यहाँ का अभाव अनुभव न हो। इस ‘वातावरण' के अंग हैं कुछ हरिणशावक, यहाँ की औषधियाँ, यहाँ के कुछ घर, मातुल और उनका परिवार गाँव के कुछ अनाथ बच्चे। राजकुमारी की यह सोच कितनी सतही है। वह अपनी हर बात से अपने और मल्लिका के स्तर के अंतर को रेखांकित करना चाहती है। वह प्रकारान्तर से जताना चाहती है कि कालिदास भी अब उससे बहुत दूर, बहुत आगे निकल चुके हैं और अब मल्लिका को कालिदास के प्रति मोह या उसके प्रत्यागमन की प्रतीक्षा छोड़ देनी चाहिए जिससे कि कालिदास का मन भी स्थिर हो सके, वह स्वयं को राज्यकार्य और साहित्य रचना में निर्द्वन्द्वभाव से संलग्न कर सके “मैंने तुमसे कहा था कि मैं यहाँ का कुछ वातावरण साथ ले जाना चाहती हूँ। यह इसलिए कि उन्हें अभाव का अनुभव न हो। उससे कई बार बहुत क्षति होती है। वे व्यर्थ में धैर्य खो देते हैं, जिसमें समय भी जाता है, शक्ति भी। उनके समय का बहुत मूल्य है। मैं चाहती हूँ उनका समय उस तरह नष्ट न हुआ करे।” 

    वस्तुतः नाटककार ने प्रियंगुमंजरी और मल्लिका दोनों को आमने-सामने रखकर दोनों के चरित्रों के मूलभूत अंतर को स्पष्ट किया है। सारे दर्प, अहंकार और वाकपटुता के बावजूद प्रियंगुमंजरी का चरित्र मल्लिका के चरित्र के सम्मुख निस्तेज प्रतीत होता है।

    मातुल का चरित्र चित्रण

    मातुल कालिदास के अभिभावक हैं इसलिए कालिदास पर अपना पूर्ण अधिकार समझते हैं। 'आषाढ़ का एक दिन' नाटक में उनकी उपस्थिति एक अवसरवादी, चापलूस और अतिव्यावहारिक चरित्र के रूप में दिखाई देती है। प्रथम अंक में उनका प्रवेश होता है। वे कालिदास से नाराज हैं क्योकि वे राजकीय सम्मान के प्रति अपनी तत्परता नहीं दिखा रहे बल्कि उससे उदासीन हैं। उन्हें इस बात से प्रसन्नता नहीं है कि कालिदास इतना प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें राजकीय सम्मान के योग्य समझा गया है। वे इस बात से नाराज हैं कि वे अपनी इस प्रतिभा का उपयोग अधिकार और वैभव की प्राप्ति के लिये क्यों नहीं कर रहे बल्कि हाथ में आये अवसर को भी अपनी मूर्खतापूर्ण जिद के कारण खो रहे हैं “मेरी समझ में नहीं आता कि इसमें क्रय-विक्रय की क्या बात है। सम्मान मिलता है. ग्रहण करो। नहीं. कविता का मूल्य ही क्या है ?" .........लोकनीति में निपुण मातुल की यह स्थूल बुद्धि है जो साहित्य और कला के सौंदर्य को, उसके मर्म को समझने में असमर्थ है। मातुल के स्वभाव की अधीरता उन्हें पाठकों दर्शकों के समक्ष हास्यास्पद रूप में भी ले आती है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि वे सारी दुनिया से नाराज हैं। राजकीय सम्मान के प्रति कालिदास की उदासीनता पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं "सुनकर रुके! रुक कर जलते अंगारे की-सी दृष्टि से मुझे देखा। मैं राजकीय मुद्राओं से क्रीत होन के लिय नहीं हूँ।"ऐसे कहा जैसे राजकीय मुद्राएँ आपके विरह में घुली जा रही हों, और चल दिये।” निक्षेप से इसलिए नाराज हैं कि वह अतिथियों को घर में छोड़कर उनके आदेशों की अवहेलना करता हुआ यहाँ आ गया है “यह भी कहा था। किंतु वह भी तो कहा था। यह कहाँ तुम्हारी समझ में आ गया, वह नहीं आया?"

    यही मातुल प्रियंगुमंजरी के सम्मुख चिकनी-चुपड़ी बातें करता, आसे आगे-पीछे घूमता, उसकी खुशामद करता दृष्टिगत होता है “आपके कारण मैं थकूँगा? मुझे आप दिन-भर पर्वत-शिखर से खाई में और खाई से पर्वत-शिखर पर जाने को कहती रहें, तो भी मैं नहीं थकूँगा। मातुल का शरीर लोहे का बना है, लोहे का। आत्मश्लाघा नहीं करता, परंतु हमारे वंश में केवल प्रतिभा ही नहीं, शरीर-शक्ति भी बहुत है।” वस्तुतः उसका स्वर समय और अवसर के अनुकूल बदलता रहता है। कालिदास अकिंचन है, अनाथ है, दुनियादारी से बहुत दूर है, उससे रुखाई से पेश आने में कोई खतरा नहीं। किंतु प्रियंगुमंजरी राजपुत्री है, सत्ता और अधिकारों की स्वामिनी है, उसकी नाराजगी से हानि हो सकती है। एक व्यवहार कुशल महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति की भाँति उसकी भी लालसा है कि वह अभाव पूर्ण जीवन से मुक्ति पाकर विलासपूर्ण जीवन जिये, दूसरे लोग उसके प्रभाव और अधिकार के समक्ष नतमस्तक हों। इसी लालसा से प्रेरित होकर वह कालिदास पर उज्जयिनी जाने के लिए दबाव डालता है बिना इस बात की चिन्ता किये हुए कि कालिदास की मानसिकता पर इसका क्या और कितना प्रभाव पड़ेगा। वह स्वयं भी अपना घर-द्वार-पश आदि छोडकर राजधानी में जा बसता है। हालाँकि कछ समय के अनन्तर उसका मोहभंग हो जाता है। पहाड़ो की खुरदरी भूमि पर पशु चराने वाला मातुल राज प्रसाद के चिकने संगमरमर पर फिसल कर अपनी टाँग तुड़ा बैठता है। उसे इस बात में भी कोई औचित्य नहीं दिखता कि कोई विशेष योग्यता न होते हुए भी लोग उसके आगे-पीछे क्यों घूमते हैं। वस्तुतः प्रथम प्रकार का आचरण उसकी महत्त्वाकांक्षाओं से प्ररित है और दूसरे प्रकार का आचरण कृत्रिम जीवन से मोहभंग और अंतर्मथन का परिणाम।

    दन्तुल का चरित्र चित्रण

    दन्तुल एक राजपुरुष है। नाटक में उसके दर्शन हमें अपने बाण से आहत हरिणशावक के अधिकार के लिये कालिदास से तर्क-वितर्क करते हुए होते हैं। सत्ता का अंग होने के कारण उसके व्यक्तित्व में उद्धतता, है, दर्प और अहंकार है। इन प्रवृतियों की अभिव्यक्ति उसके तर्कों और वार्तालाप में होती है। राजपुरुष होने के कारण उसे सामान्य जनों से अधिक अधिकार प्राप्त हैं और उसके अधिकारों को कोई चुनौती नहीं दे सकता। प्रजा का सुख-दुःख, उनकी भावनाएँ राजपुरुषों की दृष्टि में महत्त्वहीन हैं। ग्रामीण-अशिक्षित-निर्धन जनों की सादगी उन्हें उनकी मूर्खता का पर्याय प्रतीत होती है। दन्तुल की दृष्टि में वन्य पशु जीवन नहीं है, केवल उनका शिकार हैं या फिर उनकी संपत्ति। निम्नाकिंत उद्धरण दन्तुल की मानसिकता के स्पष्ट संकेत देते हैं।
    “परंतु यह हरिण शावक, जिसे बाहों में लिये हैं, मेरे बाण से आहत हुआ है। इसलिए यह मेरी संपत्ति है।"
    "तो राजपुरुष के अपराध का निर्णय ग्रामवासी करेंगे। ग्रामीण युवक, अपराध और न्याय का शब्दार्थ भी जानते हों।"
    “समझदार व्यक्ति जान पड़ते हो। फिर भी यह नहीं जानते हो कि राजपुरुषों के अधिकार बहुत दूर तक जाते हैं?"

    निक्षेप का चरित्र चित्रण

    निक्षेप एक ग्रामीण युवक है जो संवेदनशील है छल-छदम् से रहित मितभाषी और मृदुभाषी है। कालिदास की प्रतिभा और उसकी सामर्थ्य के प्रति वह आश्वस्त है इसीलिए वह मल्लिका से कालिदास को राजकीय सम्मान स्वीकार करने के लिये राजी करने का आग्रह करता है। वह जानता है कि केवल योग्यता पर्याप्त नहीं होती। उस योग्यता को प्रमाणित करने के अवसर भी अपेक्षित हैं और राज्य की भूमिका इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है। “योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है।”

    कालिदास और मल्लिका के स्नेह-संबंध से भी वह भली-भाँति परिचित है। कालिदास को मिलने वाले राजकीय सम्मान से वह उत्साहित है परंतु इस बात से दुःखी भी है कि मल्लिका को उसके वियोग में अकेले ही रहना पड़ेगा। दूसरे अंक में भी वह कालिदास से संबंधित प्रवादों से आहत अनुभव कर रहा है। उसे मल्लिका का त्याग और तपस्या निरर्थक सी प्रतीत होती है।

    इस प्रकार निक्षेप का चरित्र गौण होते हुए भी अपनी संवेदनशीलता और समझदारी के कारण प्रभावशाली बन पड़ा है।

    रंगिणी-संगिनी का चरित्र चित्रण

    नाटककार ने इन दोनों स्त्री पात्रों का परिचय 'नागरी' रूप में दिया है। ये दोनों कालिदास के परिवेश पर शोध करने के उद्देश्य से वहाँ आई हैं। किंतु शोध के लिये जिस सतह-भेदी की आवश्यकता होती है वह उनके पास नहीं है। कालिदास जैसी असाधारण प्रतिभा की भूमि, उनका परिवेश भी असाधारण ही होगा ऐसी उनकी परिकल्पना है। परंतु सब कुछ ‘साधारण' देखकर वे निराश होकर चली जाती हैं। ये दोनों पात्र आधुनिक शोध-प्रक्रिया का उपहास सा करने लगती हैं।

    अनुस्वार-अनुनासिक का चरित्र चित्रण

    ये दोनों राजकर्मचारी हैं जो प्रियंगुमंजरी के आगमन से पूर्व मल्लिका के घर की व्यवस्था में यथोचित परिवर्तन करने के लिये आए हैं। परंतु वास्तव में कुछ भी परिवर्तन किये बिना वापिस लौट जाते हैं। परिवर्तन के उद्देश्य के प्रति उनका तर्क था राजकुमारी की सुविधा-असुविधा और परिवर्तन न करने के पीछे उनका तर्क है आपसी असहमति, धैर्य का अभाव और सबसे महत्त्वपूर्ण इच्छा शक्ति का अभाव। ऐसी स्थिति में वे केवल खानापूरी करके चले जाते हैं। ये दोनों राजकर्मचारी हमारी व्यवस्था के प्रतीक हैं। जो करना कुछ नहीं चाहते परंतु बहुत कुछ करने का दंभ करते हैं।

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    HindiVyakran: आषाढ़ का एक दिन : पात्र योजना और चरित्र-चित्रण
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