मदर टेरेसा का जीवन परिचय। Mother Teresa Biography in Hindi
नाम
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एग्नेस गोन्वस्हा
बोजाक्सिउ
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जन्म
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26 अगस्त 1910
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जन्म स्थान
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उस्कुब, उस्मान
साम्राज्य (मेसीडोनिया)
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माता
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ड्रेनफाईल बोजाक्सिउ
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पिता
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निकोलस बोजाक्सिउ
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राष्ट्रीयता
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भारतीय
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कार्य क्षेत्र
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रोमन केथोलिक नन
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मृत्यु
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5 सितम्बर 1997
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‘‘कक्षा में पढ़ाते-पढ़ाते उनकी नज़र खिड़की पर ठहर जाती थी। स्कूल के पीछे एक झोपड़ पट्टी थी जो कक्षा की खिड़की से साफ दिखाई पड़ती थी। उस झोपड़ पट्टी में दुःखी, अनाथ, फटेहाल तथा बहुत ही गरीब लोग रहते थे। वह रोज खिड़की से उनकी हालत देखती थीं। उनका मन पीड़ा से भर जाता था। उन लोगों की दयनीय दशा देखकर उनके हृदय में सेवामयी माँ का भाव उत्पन्न हुआ।’’
एग्नेस के बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था कि एक दिन वह ‘मदर टेरेसा’ के रूप में सम्पूर्ण विश्व की सेवा करेगी। मदर टेरेसा का पूरा नाम एग्नेस गोन्वस्हा बोजाक्सिउ था। जब एग्नेस मात्र नौ वर्ष की थी, उसके पिता का देहान्त हो गया। उस समय उनके परिवार के पास अपने मकान के अलावा कुछ नहीं बचा था। ऐसे कठिन समय में एग्नेस की माँ ने अद्भुत साहस का परिचय दिया। उन्होंने अपने परिवार का खर्च चलाने के लिए अपना व्यापार शुरू किया। ऐग्नेस को अपनी माँ से ही कठिन समय में साहस से काम लेने की प्रेरणा मिली।
एग्नेस के बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था कि एक दिन वह ‘मदर टेरेसा’ के रूप में सम्पूर्ण विश्व की सेवा करेगी। मदर टेरेसा का पूरा नाम एग्नेस गोन्वस्हा बोजाक्सिउ था। जब एग्नेस मात्र नौ वर्ष की थी, उसके पिता का देहान्त हो गया। उस समय उनके परिवार के पास अपने मकान के अलावा कुछ नहीं बचा था। ऐसे कठिन समय में एग्नेस की माँ ने अद्भुत साहस का परिचय दिया। उन्होंने अपने परिवार का खर्च चलाने के लिए अपना व्यापार शुरू किया। ऐग्नेस को अपनी माँ से ही कठिन समय में साहस से काम लेने की प्रेरणा मिली।
उनके मन में लोगों की सेवा करने का भाव पैदा हुआ और उन्होंने मात्र 12 वर्ष की उम्र में नन बनने का निश्चय किया। यह कोई ऊपरी भाव नहीं था। उनके इस फैसले से माँ बहुत दुःखी हुईं। माँ जानती थीं कि अगर एग्नेस नन बन गई तो उनसे दूर चली जाएगी। वे उसे दोबारा कभी नहीं देख पाएँगी। उन दिनों नन को अपने परिवार से मिलने की अनुमति नहीं थी। 18 वर्ष की उम्र में वह नन बनने का प्रशिक्षण लेने डबलिन, आयरलैण्ड चली गईं। वहाँ से उन्हें 1 दिसम्बर, 1928 ई0 को कोलकाता भेज दिया गया। 14 मई 1937 ई0 को एग्नेस ने नन बनने की अन्तिम महत्त्वपूर्ण शपथ ली। अब वे एक नन और सेन्ट मेरीज़ स्कूल, कोलकाता की प्रधानाचार्य थीं। एग्नेस अब सिस्टर टेरेसा के नाम से जानी जाती थीं।
एग्नेस के सिस्टर टेरेसा बनने के पीछे भी एक कहानी है। प्रशिक्षण के दौरान उनकी मुलाकात एक फ्रांसीसी नन से हुई, जिसका नाम था टेरेसा। उस नन का विश्वास था कि ईश्वर को खुश करने के लिए बहुत महान या बड़ा कार्य करने की आवश्यकता नहीं है। प्रसन्नता और आत्मीयता से छोटे-छोटे साधारण कार्य करके भी ईश्वर को खुश किया जा सकता है। उन्होंने इसे ‘लिटिल वे’- का नाम दिया। एग्नेस भी इस बात से बहुत प्रभावित हुईं और उन्होंने अपना नाम बदल कर टेरेसा रख लिया। यही टेरेसा बाद में दीन-दुःखियों की सेवा के कारण ‘मदर टेरेसा’ के नाम से प्रसिद्ध हुईं। लोगों ने इनमें माँ का रूप देखा क्योंकि जिस लगन और अपनत्व की भावना से ये पीडि़तों की सेवा करती थीं वह कोई ममतामयी माँ ही कर सकती है।
सन् 1947 ई0 में देश के बँटवारे के बाद बांग्लादेश से लाखों शरणार्थी भारत आये। उनकी दीन-हीन दशा देखकर टेरेसा का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने स्कूल छोड़कर पीडि़तों की सेवा करने का निश्चय किया। काफी प्रयास के बाद सन् 1948 ई0 में पोप ने उन्हें स्कूल छोड़ने की आज्ञा दे दी। अब टेरेसा नन की परम्परागत वेशभूषा से मुक्त हो गई। उन्होंने नीली किनारी वाली साड़ी पहनना शुरू कर दिया। आगे चलकर यह पहनावा सेवाभावी नर्सों की पहचान बन गई।
कान्वेण्ट छोड़ने के बाद उन्होंने यह अनुभव किया कि केवल सांत्वना के कुछ शब्दों व मुस्कुराहट से झोपड़पट्टी के लोगों का भला नहीं होगा। अतः उन्होंने पटना जाकर नर्स की ट्रेनिंग ली। ट्रेनिंग के बाद उन्होंने कोलकाता को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। यहाँ उन्होंने यह भी अनुभव किया कि गरीब, असहाय व दुःखी लोगों की सेवा करने के लिए समर्पण के अतिरिक्त द्दन की भी आवश्यकता होती है। यदि मन में कोई अच्छा संकल्प हो, अपने काम के प्रति पूरी लगन तथा विश्वास हो तो ईश्वर भी किसी न किसी बहाने उसकी मदद करता है।
मदर टेरेसा ने जब कान्वेण्ट छोड़ा उनके पास पाँच रुपये थे। उन्होंने एक स्कूल की शुरुआत से अपना कार्य प्रारम्भ किया। यह खुले आकाश के नीचे था। मानव कल्याण की यह यात्रा उन्होंने अकेले ही प्रारम्भ की थी। धीरे-धीरे लोगों का सहयोग मिलता गया। अब बस्ती के लोग, चर्च के फादर और मदर टेरेसा के कई शिष्य उनके साथ थे। बस्ती में रहते हुए उन्होंने अनेक कार्य किए।
उल्लेखनीय-
- मदर टेरेसा और उनके सहयोगियों ने घरों व होटलों से बचा हुआ खाना इकट्ठा करके गरीबों को खाना खिलाने का प्रबन्ध किया।
- माता-पिता के नियंत्रण से बाहर या आपराधिक कार्यों में फँसे बच्चों का जीवन सँवारने के उद्देश्य से ‘प्रतिमा सेन’ विद्यालय की स्थापना की।
- मदर टेरेसा या उनके सहयोगियों को बस्ती या शहर में कोई असहाय व्यक्ति मिलता तो वे उसे अपने साथ ले आतीं और उनकी सेवा करतीं।
उन्होंने ‘निर्मल हृदय’ नामक घर की स्थापना की। यह घर क्या था एक जीर्ण-शीर्ण कमरा था, जिसमें दो पलंग रखे गए थे। जहाँ कहीं भी उन्हें कोई असहाय, लावारिस और बीमार व्यक्ति दिखता था या ऐसे व्यक्ति के विषय में सूचना कहीं से भी मिलती तो वे उसे ‘निर्मल हृदय’ संस्थान में ले आतीं। यहाँ स्नेह, सहानुभूति व प्यार के साथ उसकी सेवा व उपचार करतीं। उसके जीवन को बचाने का पूरा प्रयास किया जाता। इससे उस व्यक्ति को मानसिक संतोष की अनुभूति होती थी। मदर टेरेसा नहीं चाहती थीं कि कोई भी व्यक्ति सड़क पर तड़प-तड़प कर लावारिस मर जाए। यदि कोई बीमार जीवित न भी बच सके तो कम से कम शांतिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त हो।
मदर टेरेसा के काम से प्रभावित होकर कोलकाता नगर निगम ने उन्हें काली घाट के पास एक पुराना मकान इस काम के लिए दे दिया। उन्होंने थोड़े समय में जो कार्य किए उनसे ‘आर्क विशप’ बहुत प्रभावित हुए। अन्ततः 7 अक्टूबर, सन् 1950 को कैथोलिक चर्च द्वारा उनकी संस्था ‘मिशनरीज ऑफ चैरेटीज’ को मान्यता मिल गई। माँ की सेवा का यह मिशन विस्तार पाकर भारत के बाहर भी सारे विश्व में फैल गया है। जहाँ भी गरीबी है, रोग है, भूख है वहाँ विशेष रूप से ‘मिशनरीज़ ऑफ चैरिटीज’ काम कर रहीं हैं।
ऐसा नहीं है कि मानव सेवा की उनकी यात्रा बहुत सरल रही हो। मदर टेरेसा को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उनका कहना था कि ‘‘अगर लोगों के विरोध के कारण मेरी मृत्यु भी हो जाए तो मुझे संतोष होगा कि मानवता की सेवा करते हुए मुझे प्राण त्यागने पड़े।’’
‘‘मदर टेरेसा द्वारा संचालित कुछ संस्थाएं’’
निर्मल हृदय:- यहाँ वृद्धों, अपाहिजों, अनाथों तथा बीमारों की सेवा तथा शेष जीवन बिताने की व्यवस्था है।
शिशु सदन:- यहाँ अनाथ, अपंग, समाज तथा माँ-बाप के द्वारा त्यागे गए अवांछित बच्चों का पालन-पोषण होता है, उनकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध होता है, अगर कोई बच्चा गोद लेना चाहे तो जाँच पड़ताल कर संतुष्ट होने पर बच्चा गोद देते हैं।
प्रेमघर, शान्तिनगरः- कुष्ठ रोगियों के पुनर्वास के लिए ये बस्तियाँ बसाई गई हैं। यहाँ रोगी अपना इलाज कराते हुए शान्तिपूर्वक प्यार भरे वातावरण में रहते हैं और स्वास्थ्य लाभ करते हैं। स्वस्थ होने पर उन्हें दस्तकारी सिखाई जाती है जिससे उनमें आत्मनिर्भरता तथा आत्मसम्मान की भावना पैदा हो।
मदर टेरेसा सारे काम अपने हाथ से करती थीं। उन्हें किसी काम में कोई शर्म नहीं थी। मदर टेरेसा रोगियों का मल-मूत्र भी साफ करने के लिए किसी अन्य को नहीं कहती थीं। वे स्वयं अपने हाथों से करती थीं। उनका जीवन सादा और सरल था तथा वे बहुत परिश्रमी थीं। कभी-कभी वह सुबह आठ बजे बाहर निकलतीं और शाम चार या पाँच बजे लौटती थीं। अक्सर इस बीच एक बूँद पानी भी नहीं पीती थीं। यहाँ तक की सत्तर वर्ष की आयु में भी वे दिन के इक्कीस घंटे काम करती थीं। वे बहुत दृढ़ और निर्भीक महिला थीं।
पवित्र हाथ : अमरीकी सीनेटर कैनेडी ने एक बार भारत स्थित शरणार्थी शिविरों का दौरा किया। एक शिविर में उन्होंने देखा कि मदर टेरेसा एक असहाय बीमार व्यक्ति की सेवा में लगी हुई हैं। रोगी, उल्टी, दस्त व खून से लथपथ पड़ा था। मदर टेरेसा पूरी तन्मयता से उसकी सेवा सफाई में लगीं थीं , कैनेडी यह दृश्य देखकर बहुत प्रभावित हुए। वे मदर टेरेसा के निकट जाकर श्रद्धापूर्वक झुककर बोले-‘क्या मैं आपसे हाथ मिला सकता हूँ?’’
मदर टेरेसा अपने हाथों को देखकर बोलीं-‘ओह ! अभी नहीं, अभी मेरे हाथ साफ नहीं हैं।’’
कैनेडी ने भाव विह्वल होकर उनके हाथ अपने हाथ में ले लिए और कहा-‘नहीं, नहीं, इन्हें गंदे कहकर इनका अपमान मत कीजिए। ये बहुत पवित्र हैं। इन पवित्र हाथों को अपने सिर से लगाना मेरा सौभाग्य होगा।’’
यह कहते हुए कैनेडी ने माँ टेरेसा के हाथों को अपने सिर पर रख लिया।
5 सितम्बर, सन् 1997 को लम्बी बीमारी के बाद मदर टेरेसा ने सदा के लिए अपनी आँखें मूँद लीं। सम्पूर्ण विश्व में शोक की लहर दौड़ गई। उस दिन विश्व ने अपनी करुणामयी माँ खो दी। कोलकाता की सड़कों पर लोग फूट-फूट कर रो रहे थे। उनकी अन्तिम यात्रा में भारत ही नहीं विश्व के अनेक देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया।
मदर टेरेसा को उनके सेवा भाव तथा निःस्वार्थ कार्यों के लिए भारत तथा विश्व के कई देशों और संस्थाओं ने उन्हें बड़ी-बड़ी धनराशियाँ दीं और अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया । मदर टेरेसा को जो भी दान, पुरस्कार मिलता वह सबका सब सेवा कार्यों पर लगाया जाता था।
यद्यपि मदर टेरेसा भारतीय नागरिक बन चुकी थीं फिर भी वे सम्पूर्ण विश्व को अपना घर मानती थीं। एक बार विदेश यात्रा से लौट कर आने पर एक पत्रकार ने पूछा-‘‘सुना है आप अपने देश गयीं थीं ?’’
माँ ने उत्तर दिया-‘‘अपना कौन-सा देश ? मेरा देश तो यह भारत ही है। वैसे मनुष्यता के नाते सारा विश्व ही मेरा देश है। मेरे लिए अब ‘मैं, और मेरा’ की कोई सीमा नहीं है। जहाँ भी दुखी, पीडि़त, अनाथ, असहाय मनुष्य दिखेगा, मैं उसकी हूँ वह मेरा है।’’
यद्यपि आज मदर टेरेसा हमारे बीच नहीं हैं, फिर भी उनका यह संदेश दुनिया के हर व्यक्ति के लिए प्रेरणा स्रोत है-
‘‘आपको विश्व में जहाँ कहीं भी दुखी, रोगी, बेसहारा, अनाथ, बेघर, असहाय लोग मिलें वे आपका प्यार पाने के हकदार हैं, उन्हें आपकी मदद चाहिए। जाति और धर्म पर विचार न कर उन्हें एक मनुष्य के नाते दी गई आपकी मदद, आपका प्यार मानवता का सिर ऊँचा कर देगा तथा आपको अपूर्व मानसिक सुख तथा शांति मिलेगी। इसी में जीवन की सार्थकता है।’’
पुरस्कार व सम्मान
- इंग्लैण्ड की महारानी द्वारा ‘आर्डर आफ ब्रिटिश एम्पायर’
- इंग्लैण्ड के राजकुमार फिलिप द्वारा ‘टेम्पलस’ पुरस्कार
- अमेरिका सरकार द्वारा ‘जॉन एफ कैनेडी’ पुरस्कार
- भारत सरकार द्वारा श्री जवाहर लाल नेहरू शान्ति पुरस्कार
- भारत सरकार द्वारा ‘पद्म श्री‘ व ‘भारत रत्न’ पुरस्कार (1980)
- पोप छठे द्वारा ‘पोप शान्ति पुरस्कार’
- नोबल पुरस्कार (1979)
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