सोशल मीडिया बनाम निजी जीवन पर निबंध: आज का युग डिजिटल क्रांति का युग है। सोशल मीडिया—यानि फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर, व्हाट्सऐप जैसे मंचों ने हमारे
सोशल मीडिया बनाम निजी जीवन पर निबंध
सोशल मीडिया बनाम निजी जीवन पर निबंध: आज का युग डिजिटल क्रांति का युग है। सोशल मीडिया—यानि फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर, व्हाट्सऐप जैसे मंचों ने हमारे संवाद, सोच और जीवन जीने के तरीके को पूरी तरह बदल दिया है। सोशल मीडिया ने मनुष्य को अभिव्यक्ति का ऐसा मंच दिया है जहाँ वह कुछ भी कह सकता है, दिखा सकता है, बन सकता है। लेकिन इस खुली आकाशगंगा में वह कब अपनी भीतर की आवाज़ खो बैठा, इसका उसे स्वयं भी भान नहीं रहा। जहाँ एक ओर सोशल मीडिया ने हमें दुनियाभर से जोड़ने का माध्यम दिया, वहीं दूसरी ओर इसने हमारे निजी जीवन की दीवारों को भी ध्वस्त कर दिया।
पहले लोग अपने निजी जीवन की बातें केवल परिवार या करीबी दोस्तों से शेयर करते थे। अब हर बात, हर तस्वीर, हर एहसास सोशल मीडिया पर डाला जाता है। कोई घूमने जाए, तो पोस्ट ज़रूरी है। कोई अच्छा खाना खाए, तो फोटो ज़रूरी है। यहाँ तक कि उदासी भी स्टोरी में दिखाई जाती है। इसका असर हमारे निजी जीवन पर गहराई से पड़ा है।
सबसे पहला असर यह हुआ है कि हम दिखावे में जीने लगे हैं। हम वही पोस्ट करते हैं जो लोगों को अच्छा लगे। हम अपनी असली ज़िंदगी से ज़्यादा उस ज़िंदगी पर ध्यान देने लगे हैं जो हम सोशल मीडिया पर दिखाते हैं। असल भावनाएँ, असली तकलीफ़ें और खुशियाँ कहीं पीछे छूट गई हैं। हम हर दिन दिखाते हैं कि हम कितने खुश हैं, पर भीतर कहीं खालीपन बढ़ता जा रहा है। हम उन लोगों से जुड़े हैं जिन्हें हमने कभी देखा भी नहीं, और उन लोगों से दूर हो गए हैं जो हमारे पड़ोस में ही रहते हैं।
दूसरा असर यह है कि हम अकेले होते जा रहे हैं। दिखने में तो हमारे पास सैकड़ों "फॉलोअर्स" होते हैं, लेकिन बात करने वाला एक भी सच्चा दोस्त नहीं होता। पहले लोग साथ बैठकर बातें करते थे, अब एक-दूसरे के सामने होते हुए भी मोबाइल में खोए रहते हैं। जहाँ पहले आँसू अपनों के कंधे पर गिरते थे, वहाँ अब वे एक स्क्रीन पर इमोजी बनकर रह जाते हैं।। दोस्ती की परिभाषा भी अब 'फॉलो बैक' और लाइक रेश्यो पर आकर टिक गई है।
तीसरा और सबसे बड़ा असर यह है कि हम दूसरों से तुलना करने लगे हैं। जब हम किसी की अच्छी ज़िंदगी की फोटो या वीडियो देखते हैं, तो हमें लगता है कि हमारी ज़िंदगी उससे कम है। इससे जलन, तनाव और दुख बढ़ता है, जबकि सच यह है कि सोशल मीडिया पर हर कोई सिर्फ अपनी ज़िंदगी का अच्छा हिस्सा दिखाता है, सच्चाई नहीं। यह नकली आभासी दुनिया एक ऐसा भ्रम रचती है जहाँ व्यक्ति अपने ही जीवन से असंतुष्ट हो जाता है।
मुद्दा यह नहीं कि सोशल मीडिया गलत है, बल्कि यह है कि हमने अपने नियंत्रण को उसके हवाले क्यों कर दिया? क्यों हम उसे यह तय करने दे रहे हैं कि हम क्या सोचें, क्या महसूस करें, और किस रूप में दिखें? इसलिए रुकिए, सोचिए, और खुद से जुड़िए। हर भाव को पोस्ट करने की ज़रूरत नहीं, कभी-कभी उसे सिर्फ महसूस करना ही काफी होता है।
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