अगर जानवर बोल सकते तो हिंदी निबंध: मानव सभ्यता ने विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में जितनी प्रगति की है, उतना ही उसने प्रकृति और प्राणी-जगत से संवाद की क
अगर जानवर बोल सकते तो हिंदी निबंध (Agar Janwar bol sakte Essay in Hindi)
अगर जानवर बोल सकते तो हिंदी निबंध: मानव सभ्यता ने विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में जितनी प्रगति की है, उतना ही उसने प्रकृति और प्राणी जगत से संवाद की क्षमता खो दी है। मनुष्य, जो स्वयं को सर्वोच्च प्राणी मानता है, अन्य जीवों को अक्सर केवल संसाधन, मनोरंजन या उपयोग की वस्तु समझ बैठता है। इसलिए कल्पना कीजिए, अगर जानवर बोल सकते, तो यह दुनिया कैसी होती? क्या तब भी हम उन्हें यूँ ही काटते, तड़पाते, पिंजरे में कैद रखते और उनके मासूम जीवन को बाज़ार में तौलते? शायद नहीं। शायद हम अपने ही चेहरे से डर जाते, जिसे आज हम सभ्यता का नाम देते हैं।
अगर जानवर बोल सकते, तो शहरी जीवन के क्रूर सांचों में पल रहे पालतू जानवर भी अपनी मानसिक स्थिति पर चर्चा करते। वे बताते कि कैसा लगता है, जब उन्हें केवल अकेलेपन या मानसिक सुख के लिए पाला जाता, पर समय न मिलने पर त्याग दिया जाता। वहीं, कसाईखानों में पल-पल मौत के इंतजार में खड़े जानवरों की चीत्कारें हमारे कानों में गूंजतीं, तो शायद मांस उद्योग के तथाकथित औद्योगिक चेहरे भी उजागर हो जाते। हर बार जब मांस के लिए किसी पशु-पक्षी का गला रेता जाता, तो वह पूछता — "क्या तुम्हारे स्वाद की कीमत मेरी जान से ज्यादा है ?" जब किसी गाय को उसके बछड़े से अलग किया जाता, तो उसकी ममता भरी पुकारें दीवारों को भेदतीं।
जानवरों की खामोशी हमारी सबसे बड़ी ढाल है। वे चिल्ला नहीं सकते, गवाही नहीं दे सकते, कोर्ट में मुक़दमा नहीं कर सकते। परन्तु यदि जानवरों की आवाज़ हमारी अदालतों में गूंजती, तो संभवतः कई निर्णय मानवता के खिलाफ होते। एक बछड़ा पूछता कि माँ उसकी थी, दूध उसका था, फिर वह दूध बाजार में क्यों बेचा गया? शायद वह दुनिया और भी भयावह होती — क्योंकि तब हमें अपनी हर क्रूरता का उत्तर देना पड़ता। फिर जानवरों को चुप कराने के लिए नए कानून बनते, उनकी आवाज़ को ‘अप्रिय कहकर सेंसर किया जाता, और शायद मानव सभ्यता का असली रूप सामने आता — एक ऐसा रूप, जो संवाद से नहीं, शोषण से बना है।
अगर जानवर बोल सकते, तो वे जंगलों की तबाही पर विलाप करते। वे बताते कि कैसे सड़कें, बांध, खदानों और रिसॉर्ट्स ने उनके घर उजाड़ दिए। वे पूछते कि क्या विकास का अर्थ केवल मनुष्यों के लिए है? क्या प्रकृति में उनके हिस्से की कोई जगह नहीं बची? राजनीतिक दृष्टिकोण से यह स्थिति एक नए सामाजिक संविधान की माँग करती। क्या जानवरों को संवैधानिक अधिकार मिलते? क्या उनका प्रतिनिधित्व संसद में होता? क्या विकास योजनाओं में उनकी सहमति अनिवार्य होती? यह परिकल्पना हमें एक ऐसे लोकतंत्र की ओर संकेत करती है, जो केवल मानव केंद्रित न होकर समस्त जीवों को समाहित करे।
इस कल्पना का एक पक्ष यह भी है कि अगर जानवर बोल सकते, तो क्या हम उन्हें सुन पाते? हम इंसान तो अपने जैसे मनुष्यों की ही बात नहीं सुनते, फिर जानवरों की आवाज़ को कितना महत्व देते? क्या हम उनकी भाषा, उनकी पीड़ा, उनकी इच्छाओं और उनके अस्तित्व को वह मान्यता दे पाते, जो एक संवाद के लिए आवश्यक है?
असल में, यह कल्पना एक चेतावनी है — कि जब तक जानवर चुप हैं, हमें उनकी आवाज़ बनना होगा। हमें यह समझना होगा कि प्रकृति में हर प्राणी का अस्तित्व बराबर महत्वपूर्ण है, और हम यदि बोलने की शक्ति रखते हैं, तो हमारे पास सुनने और समझने की क्षमता भी होनी चाहिए। जब तक हम उनकी 'मौन भाषा' नहीं समझते, तब तक हम प्रकृति के साथ एक सच्चे संवाद की ओर नहीं बढ़ सकते।
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