मदर टेरेसा पर निबंध- मदर टेरेसा एक बहुत ही दयालु और नेक दिल महिला थीं। उन्होंने अपना पूरा जीवन गरीब और बीमार लोगों की सेवा में लगा दिया था। मदर टेरेसा
मदर टेरेसा पर निबंध (Mother Teresa par Nibandh in Hindi)
"वृक्ष कबहुँ नहि फल भखै, नदी न संचै नीर
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर ।। "
मदर टेरेसा पर निबंध- मदर टेरेसा एक बहुत ही दयालु और नेक दिल महिला थीं। उन्होंने अपना पूरा जीवन गरीब और बीमार लोगों की सेवा में लगा दिया था। मदर टेरेसा ने भारत में कई अनाथालय, अस्पताल और स्कूल खोले। वे गरीब बच्चों को पढ़ाती थीं और बीमार लोगों की देखभाल करती थीं। उन्होंने भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों में जाकर गरीबों की सेवा की। मदर टेरेसा ने अपनी सेवाओं के लिए कई पुरस्कार प्राप्त किए। उन्हें 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला था। उन्हें भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया था।
जन्म तथा बाल्यकाल- मदर टेरेसा का जन्म 27 अगस्त, 1910 को मैसेडोनिया के स्कोपले नामक स्थान में हुआ था। इनके बचपन का नाम आगनेस गोंवसा बेयायू था। इनके पिता एक स्टोरकीपर थे। शैशवकाल से ही इनका रुझान परोपकार और जनसेवा की ओर था। बाल्यकाल में जब ये किसी को दुखी देखतीं, तो इनका दिल कराह उठता और फिर एक दिन इनके बाल - हृदय ने यह कठोर और दृढ़ निश्चय कर लिया कि ये भी अपने जीवन का मार्ग लोक सेवा को ही चुनेंगी। अठारह वर्ष की आयु में ये आइरिश धर्म परिवार लोरेंटो में सम्मिलित हो गईं।
भिक्षुणी के रूप में- मदर टेरेसा ने जब संसार के स्वार्थ को घृणित रूप में पनपते देखा, तो इनका मन कराह उठा। तब इन्होंने भिक्षुणी बनने का निश्चय कर लिया। इस प्रकार इन्होंने 18 वर्ष की आयु में इस चकाचौंध कर देने वाले संसार के ऐश्वर्य को त्याग दिया।
अध्यापन कार्य- मदर टेरेसा एक भिक्षुणी बन चुकी थीं। इन्हें आजीविका की कोई चिंता नहीं थी । फिर भी इन्होंने एक अध्यापिका के रूप में अपना जीवन आरंभ करके समाज सेवा का कार्य शुरू किया। 1929 में इन्होंने कोलकाता के सेंट मेरी हाई स्कूल में अध्यापन कार्य आरंभ किया। कुछ समय बाद इसी स्कूल में ये प्रधानाचार्या बनीं। ये तन-मन से स्कूल की सेवा करती रहीं, लेकिन उस चहारदीवारी में इनका मन व्याकुल रहने लगा। ये अधिक लोगों की सेवा के लिए किसी व्यापक क्षेत्र को अपनाना चाहती थीं।
लोककल्याण की भावना- इनके मन में धीरे-धीरे खुद को मानव सेवा में समर्पित कर देने की इच्छा प्रबल होती जा रही थी। फलस्वरूप इन्हीं के शब्दों में- "10 दिसंबर, 1946 का दिन था, जब मैं अपने वार्षिक अवकाश पर दार्जिलिंग जा रही थी। उस समय मेरी अंतरात्मा से आवाज उठी कि मुझे सब कुछ छोड़ देना चाहिए और अपनी जिंदगी को ईश्वर, दरिद्र और कंगाल लोगों की सेवा में समर्पित कर देना चाहिए।"
जीवन लक्ष्य- अंतरात्मा की आवाज़ तथा सेवा भावना को वे प्रभु यीशु की प्रेरणा तथा इस दिवस को 'प्रेरणा दिवस' मानती थीं। प्रभु यीशु के इस पावन संदेश को इन्होंने जीवन का उद्देश्य मान लिया। इन्होंने पोप से कोलकाता महानगर की उपेक्षित गंदी बस्तियों में रहकर दलितों की सेवा करने का आदेश प्राप्त कर लिया। पूर्ण समर्पित और दृढ़ प्रतिज्ञ होकर इन्होंने दलितों और पीड़ितों की सेवा का कार्य शुरू कर दिया। इनका मानना था कि जो दरिद्र, बीमार, तिरस्कृत और उपेक्षित हैं, उन्हें प्रेम और अपनत्व की जरूरत है। इन्होंने एक बार एक सभा में कहा था, "लोगों में बीस वर्ष काम करके मैं ज्यादातर यह अनुभव करने लगी हूँ कि अनचाहा होना सबसे बड़ी बीमारी है, जो कोई भी व्यक्ति अनुभव कर सकता है।" इनकी सेवा के परिणामस्वरूप कोलकाता में 'निर्मल हृदय होम' तथा 'स्लम विद्यालय' खोला गया।
मदर टेरेसा के सेवा कार्यक्षेत्र- कोलकाता में मोलाली क्षेत्र में जगदीशचंद्र बसु रोड पर मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी का दफ़्तर है, जो चौबीसों घंटे उन व्यक्तियों को समर्पित है, जो दुखी, अपाहिज निराश्रित, उपेक्षित, वृद्ध और मृत्यु के निकट हैं। 1950 में आरंभ किए गए 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी ' के आज संसार के लगभग 63 देशों में 244 केंद्र हैं, जिनमें 3,000 बहनें और भाई निरंतर नियमित रूप में सेवा का कार्य कर रहे हैं। भारत में स्थापित लगभग 215 अस्पताल और चिकित्सा केंद्रों में लाखों बीमार व्यक्तियों का इलाज किया जाता है। कोलकाता के काली घाट क्षेत्र में स्थापित 'निर्मल हृदय होम' जैसी अन्य संस्थाओं में लगभग 45 हजार वृद्ध रहते हैं, जो जीवन की संध्या को सुख और शांति से गुजारते हैं। मिशनरीज ऑफ चैरिटी के माध्यम से सैकड़ों केंद्र संचालित हो रहे हैं, जिनमें हजारों की संख्या में बेसहारा लोगों के लिए मुफ़्त भोजन का प्रबंध किया जाता है। इन सभी केंद्रों से रोज लाखों रुपये की दवाइयाँ और भोजन सामग्री बाँटी जाती है।
पुरस्कार- पीड़ित मानवता की सेवा के अखंड यज्ञ को चलाने वाली मदर टेरेसा को 1931 में पोप जॉन 23वें का शांति पुरस्कार प्रदान किया गया। विश्वभारती विश्वविद्यालय ने इनको अपनी सर्वोच्च पदवी 'देशीकोत्तम' प्रदान की। अमेरिका के कैथोलिक विश्वविद्यालय ने डॉक्टरेट की उपाधि से इन्हें विभूषित किया। 1962 में भारत सरकार ने इन्हें 'पद्म श्री' से सम्मानित किया। 1964 में पोप जानपॉल ने भारत यात्रा के दौरान इन्हें अपनी कार सौंपी। जिसकी नीलामी करके इन्होंने कुष्ठ कॉलोनी की स्थापना की। पुरस्कारों की सूची में फिलिपिंस का रमन मैगसेसे पुरस्कार, कनेडी फाउंडेशन अवार्ड आदि शामिल हैं। इन पुरस्कारों से प्राप्त होने वाली राशि को इन्होंने कुष्ठ आश्रम तथा अल्प विकसित बच्चों के लिए घर, बेसहारा वृद्धों के लिए वृद्ध आश्रम आदि बनवाने में खर्च किया। 19 दिसंबर, 1979 में इन्हें मानवकल्याण के लिए किए गए कार्यों के लिए विश्व का सर्वोच्च पुरस्कार नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। इनको 1993 में राजीव गाँधी सद्भावना पुरस्कार प्रदान किया गया। 5 सितंबर, 1997 में सेवा की साक्षात् प्रतिमा विश्व को रोता छोड़कर देवलोक सिधार गई।
उपसंहार- ममतामयी मदर टेरेसा का जीवन यज्ञ-समिधा की भाँति है, जो निरंतर जलती हैं और जिसकी ज्वाला से प्रकाश फैलता है। ये एक की नहीं असंख्य लोगों को आश्रय और ममता, प्यार और अपनत्व देने वाली ममतामयी माँ थीं। अलौकिक शक्ति एवं तेज से संपन्न यह दिव्य आत्मा सदैव ही मानवता की सेवा के इतिहास का आकाशदीप बनी रहेंगी।
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