पाजेब कहानी का सारांश: कहानीकार जैनेन्द्र कुमार ने पाजेब' शीर्षक कहानी की रचना बाल मनोविज्ञान के आधार पर की गयी है। बालकों के मन का अध्ययन कराने वाला
पाजेब कहानी का सारांश लिखिए (Pajeb Story Summary in Hindi)
कहानीकार जैनेन्द्र कुमार ने पाजेब' शीर्षक कहानी की रचना बाल मनोविज्ञान के आधार पर की गयी है। बालकों के मन का अध्ययन कराने वाला ज्ञान बाल- मनोविज्ञान कहलाता हैं। कहानी के पहले ही प्रसंग से बुआ द्वारा मुन्नी और आशुतोष के लाड़-प्यार का संक्षिप्त वर्णन है। बाज़ार में एक नई तरह की पाजेब चली है। पैरों में पड़कर वे बड़ी अच्छी मालूम होती हैं। उनकी कड़ियाँ आपस में लचक के साथ जुड़ी रहती हैं कि पाजेब का मानो निज का आकार कुछ नहीं है। पास-पड़ोस में तो सब नन्हीं-बड़ी के पैरों में आप वही पाजेब देख लीजिए। एक ने पहनी कि फिर दूसरी ने भी पहनी। जब दोपहर मे मुन्नी की बुआ आई, तब मुन्नी ने पाजेब के लिए आग्रह किया। बुआ ने मुन्नी को मिठाई खिलाई और गोद में लिया और कहा कि अच्छा, अबकी इतवार को तेरी पाजेब ज़रूर लेती आऊँगी। इतवार को बुआ आई और पाजेब ले आई।
मुन्नी खुशी से झूम उठती है और अपने नन्हें पैरों में पाजेब पहनकर नाचने लगती है। मुन्नी का बड़ा भाई आशुतोष पहले तो मुन्नी को सजी-बजी देखकर बहुत खुश हुआ। परन्तु कुछ देर बाद उसके मन में भी ऐसे ही किसी खिलौने की चाह पैदा हो जाती है। वह अपनी बहन को मिली प्रशंसा को देखकर ईर्ष्या से भर जाता है वह कहता है, 'मुन्नी को पाजेब दी, सो हम भी बाईसिकिल लेंगे।' बुआ ने कहा कि, 'अच्छा बेटा अबकी जन्मदिन को तुझे बाईसिकिल दिलवाएंगे।
'हम तो अभी लेंगे' ऐसा आशुतोष बाबू ने कहा। बुआ ने कहा, 'छी-छी, तू कोई लड़की है? जिद तो लड़कियाँ किया करती हैं। और लड़कियाँ रोती हैं। कहीं बाबू साहब लोग रोते हैं?" आशुतोष बाबू ने कहा कि तो हम जन्मदिन वाले रोज बाईसिकिल ज़रूर लेंगे। बुआ ने कहा कि हां, यह बात पक्की रही, जन्मदिन पर तुमको बाईसिकिल मिलेगी। आशुतोष बुआ से कोई वस्तु नहीं पाता, पर साइकिल का आश्वासन पाकर संतुष्ट हो जाता है। इस प्रकार मुन्नी द्वारा पाजेब की माँग और आशुतोष द्वारा साइकिल की माँग में केवल रुचि भेद का ही अंतर नहीं है, बल्कि जैविक अंतर भी है और परिवार में लड़की तथा लड़के के पालन-पोषण में किया जाने वाला अंतर भी है।
इस तरह वह इतवार का दिन हँसी-खुशी व्यतीत हुआ। बच्चों की बुआ शाम होने पर चली गई। पाजेब भी उतारकर रख दी गई जिससे कहीं खो न जाए। लेखक रात को अपनी मेज पर था कि श्रीमती ने आकर पूछा कि तुमने पाजेब तो नहीं देखी ? लेखक ने आश्चर्य से कहा कि क्या मतलब? पाजेब को लेकर लेखक और उसकी पत्नी में बहस हो गयी। वे दोनों नौकर बंसीधर पर शक करने लगे। लेखक की पत्नी ने कहा, मैंने जब रखी, तब वह वहाँ मौजूद था। पूछने पर वह तो साफ इंकार कर रहा है। इसके बाद एक पाजेब के न मिलने की सूचना दी जाती है।
एक पाजेब का खो जाना चोरी में बदल जाता है। चोरी शक को जन्म देती है। सर्वप्रथम शक के घेरे में घर का नौकर वंशी आता है। इसके बाद बालक आशुतोष शक के घेरे में आता है- उसे पतंग का बड़ा शौक है। बातों-बातों में मालूम हुआ कि उस शाम आशुतोष पतंग और डोर का पिन्ना नया लाया है। सुबह बुलाकर लेखक ने गंभीरता से उससे पूछा कि क्यों बेटा, एक पाजेब नहीं मिल रही है, तुमने तो नहीं देखी? वह गुम हो गया। जैसे नाराज हो। उसने सिर हिलाया कि उसने नहीं ली। पर मुँह नहीं खोला। मैंने कहा कि देखो बेटे, ली हो तो कोई बात नहीं, सच बता देना चाहिए। उसका मुँह और भी फूल आया। और वह गुमसुम बैठा रहा। किन्तु बार-बार पूछे जाने पर पूछताछ की यातना से मुक्ति पाने के लिए या किसी अज्ञात डर या आशंका के कारण आशुतोष स्वीकार कर लेता है कि उसने पाजेब छुन्नू को दी। जिसने उसे पाँच आने में पतंग वाले को बेच दिया। वह स्वयं दूर खड़ा रहा और छुन्नू पाजेब लेकर पतंग वाले के पास गया, इसलिए वह पाजेब की चोरी में शामिल नहीं है। यह भोला तर्क बालक को ही शोभा देता है। उसने यह कल्पना भी नहीं की थी कि छुन्नू से भी पूछताछ की जाएगी और उसका झूठ पकड़ा जाएगा।
छुन्नू को पकड़कर लाया जाता है और उस पर चोरी का इल्जाम लगाया जाता है। छुन्नू से पूछताछ की जाती है तो वह चोरी से इंकार करता है और आरोप को आशुतोष के कंधे पर सरका देता है। बच्चों का एक दूसरे पर यह आरोप-प्रत्यारोप बालक बुद्धि का ही परिचायक है। पर चोरी का आरोप अपने पुत्र पर लगते देख कर छुन्नू की माँ उसकी पिटाई करती है। दोनों बच्चों की माताओं में कहा सुनी होती है। बच्चे जो कल घनिष्ठ मित्र थे, आरोप-प्रत्यारोप के बीच एक दूसरे के शत्रु की तरह व्यवहार करते हैं। पाजेब की चोरी तो संदिग्ध थी, पर आशुतोष और छुन्नू के बीच तनाव, उनकी माताओं के बीच झगड़ा एक वास्तविकता बन गया।
शाम को पिता ने आशुतोष को आदेश दिया कि पतंग वाले को पाँच आने लौटा कर पाजेब वापस ले आओ। पर आशुतोष तैयार नहीं हुआ, क्योंकि पाँच आने छुन्नू ने लिए थे। छुन्नू ने वे खर्च कर दिए या नहीं, यह उसने स्पष्ट नहीं किया। कभी वह 'हाँ' कहता कभी 'ना', जिसका एक मतलब यह था कि दोनों ने मिलकर पैसे उड़ा दिए और दूसरा अर्थ यह था कि वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि पिता को क्या उत्तर दे। पिता ने उसे कोठरी में बन्द कर दिया, पर आशुतोष जिद्दी बालक की तरह अपनी जिद पर अड़ा रहा।
आशुतोष को चाचा के साथ पतंग वाले के पास जाने के लिए विवश किया जाता है। पहले तो वह न जाने की जिद पर अड़ा रहा। समझाने बुझाने, फुसलाने डराने के बाद वह चाचा के साथ गया भी तो रास्ते से लौट आया। रास्ते से लौट आने पर पिता द्वारा आशुतोष को फिर कोठरी में बन्द कर दिया जाता है। पिता ने यह समझा था कि सख्ती करके वह बेटे को सीधे मार्ग पर ले आएगा, पर उसकी सख्ती बेकार गई। जब कोठरी का दरवाजा खोला गया तो आशुतोष को मजे से सोता हुआ पाया गया। बालक के साथ ज्यादा सख्ती करके भी उसकी जिद पर काबू नहीं पाया जा सकता।
जब कोठरी में बंद करना व्यर्थ गया। आशुतोष पर इसका विशेष प्रभाव पड़ा हो, ऐसा मालूम नहीं हुआ तो पिता ने उसे एक रुपया देकर फुसला कर लालच देकर चाचा के साथ पतंग वाले के पास जाने का आदेश दिया। बालक पर सख्ती का असर नहीं हुआ था, पर एक रूपये का लालच काम कर गया और आशुतोष चाचा के साथ पतंग वाले के पास जाने को तैयार हो गया।" मैंने निकालकर उसे एक रुपया दिया और कहा, "बेटा, इसे पतंग वाले को दे देना और पाजेब मांग लेना कोई घबराने की बात नहीं। तुम समझदार लड़के हो।" मगर आशुतोष ने कहा कि जब पाजेब उसके पास नहीं हुई तो वह कहाँ से देगा ? इतने पर भी लेखक को बाल मन समझ में नही आया-"इसका क्या मतलब, तुमने कहा न कि पांच आने में पाजेब दी है। न हो तो छुन्नू को भी साथ ले लेना। समझे?" आशुतोष चुप हो गया। लेखक ने प्रेमपूर्वक उसे प्रकाश के साथ जबरदस्ती भेजने वाला ही था कि इतने में सामने उसकी बुआ दिखाई दी। बुआ ने आशुतोष सिर पर हाथ रखकर पूछा कि कहाँ जा रहे हो, मैं तो तुम्हारे लिए केले और मिठाई लाई हूँ । बुआ के ऐसा कहने पर भी आशुतोष का चेहरा रूठा ही रहा।
बुआ बताती है कि पाजेब गलती से उसके साथ चली गई थी और वह पाजेब निकाल कर सामने रख देती है। अंत में जब रहस्य खुलता है कि पाजेब की चोरी ही नहीं हुई थी, और उसके खोने की चोरी मान लिया गया था, तब आशुतोष और छुन्नू पर लगाए गए चोरी और झूठ बोलने के आरोप कितने व्यर्थ लगते हैं। आशुतोष के हाथ में पतंग देखकर अनुमान लगा लिया गया कि वह पतंग वाले को पाजेब बेच कर पतंग खरीद कर लाया होगा। यहाँ एक दूसरा मनोवैज्ञानिक तथ्य सामने आया कि बच्चे को वांछित मार्ग पर लाने के लिए सख्ती के बजाए उसे ललचा कर बहला कर काम चलाना अधिक उपयुक्त है। इस प्रसंग से यह भी प्रकट होता है कि बच्चे को फुसलाना आसान है और सख्ती करने से अथवा पिटाई करने से वह जिद्दी और ढीठ हो जाता है।
'पाजेब' कहानी के अंतिम भाग से पता चलता है कि लेखन ने जिस रहस्य को कहानी में दूर तक छिपाए रखा, उसे उपयुक्त समय पर उद्घाटित करके औपन्यासिक युक्ति का इस्तेमाल किया, जिससे पाठकों को जिज्ञासा - तृप्ति का सुख मिलता है। इससे कहानी की रोचकता में भी वृद्धि हुई है। 'पाजेब' कहानी में कहानीकार बताना चाहता है कि बालकों को केवल शंका के आधार पर ही दोषी नहीं मान लेना चाहिए। इसके लिए पुष्ट प्रमाणों की तलाश करनी चाहिए। यह बच्चों के प्रति अन्याय है तथा इस प्रकार व्यवहार उनको अपराध की ओर धकेलने का उत्तरदायी होता है। बच्चों के साथ स्नेहपूर्ण तथा कोमलता का व्यवहार करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि सख्त व्यवहार अथवा मारपीट से बच्चे जिद्दी हो जाते हैं, प्यार दुलार या लालच से उन्हें वांछित दिशा की ओर मोड़ा जा सकता है।
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