समकालीन संदर्भ में अंधेर नगरी नाटक की प्रासंगिकता पर विचार कीजिए: भारतेंदु ने इस अंधेर नगरी का जो खाका खींचा है, उसे देखकर वर्तमान भारत में भी सरकार,
समकालीन संदर्भ में अंधेर नगरी नाटक की प्रासंगिकता पर विचार कीजिए
भारतेंदु ने इस अंधेर नगरी का जो खाका खींचा है, उसे देखकर वर्तमान भारत में भी सरकार, न्याय, सभी महकमे के कर्मचारी विशेष तौर पर पुलिस, महाजन आदि की पूरी स्थिति तो आज भी वही है जिसे भारतेंदु हरिश्चंद्र ने लगभग 100 वर्ष पूर्व अंधेर नगरी में चित्रित किया है। सफेदपोश व्यक्ति किस प्रकार आम आदमी का शोषण लरते हैं, यह बात किसी से छुपी नहीं है। यह नाटक संघर्षमयी जीवन की अभिव्यक्ति है। जो आज की परिस्थितियों का सीधे साक्षात्कार कराती है। इसलिए 'अन्धेर नगरी' पूर्ण रूप से समकालीन सन्दर्भ में प्रासंगिक है, जिसे निम्नलिखित आधारों पर स्पष्ट किया जा सकता है--
1. राजनीतिक संदर्भ: भारतेन्दु ने चौपट्ट राजा के माध्यम से राजनीतिक भ्रष्टता, अदूर दृष्टि और कौशल हीनता को प्रकट किया था। वर्तमान संदर्भ में भी उनके राजनीतिज्ञ, सरकारी वर्ग के अधिकारी और उच्च पदों पर आसीन मठाधीश इसी वर्ग से सम्बन्धित हैं। उनके द्वारा किए गए मूर्खतापूर्ण कार्य भी गुमराह जनता के लिए आदर्श बन जाते हैं जनता के किसी छोटे से वर्ग की मूर्खता भरी स्वीकृति को प्राप्त कर वे स्वयं को सर्वज्ञ, श्रेष्ठतम और पथ प्रदर्शक मानने लगते हैं। जिन लोगों पर इनकी छत्र छाया होती है वे अकारण ही समाज में ऊँचा स्थान प्राप्त कर लेते हैं। अच्छे और सच्चे लोग दर-दर की ठोकरें खाते हैं, अपमानपूर्ण जीवन जीते हैं, भूखे-प्यासे घूमते हैं और राजनीति का संरक्षण पाने वाले लोग इनके सिर पर सवार हो जाते हैं। ऐसे ही लोग समाज में सम्मान पाते है और उन्हें ही ऊँचे पद प्राप्त हो जाते हैं। आज भी अनेक राजनेता अन्धेर नगरी के मूर्ख विवेकहीन और धोखेबाज लोग बाहर से तो सभ्य और भले प्रतीत होते हैं। लेकिन वे मन के कपटी हैं। वे दिखाई देने में कुछ है और उनकी वास्तविकता कुछ और ही है। वे अत्यन्त शक्ति सम्पन्न और प्रभावशाली प्रतीत होते हैं। उन्हें ही ऊँचे-ऊँचे पद प्रदान किए जाते हैं। जो कोई सत्य के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहता है उसे तो जूते खाने पड़ते हैं। वे तरह-तरह के अमानवीय कष्ट सहते हैं। राजनीतिज्ञों की चालों के कारण बेईमान और झूठे तो ऊँची-ऊँची पदवियां प्राप्त कर लेते हैं। इस समाज में वही महान् है जो बड़ा धोखेबाज और दुष्ट है। यदि राजगद्दी पर बैठने वाले मूर्ख हों तो जनता पर उनकी मूर्खता का प्रभाव पड़ना आवश्यक है--
साँचे मारे मारे डोलै । छली दुष्ट सिर चढ़ि - चढ़ि बौलें ।।
प्रगट सम्य अन्तर छलधारी । सोई राजसमां बल भारी ।।
साँच कहै तो पनही खा वैं। झूठे बहु विधि पदवी पावैं ।।
2. नारी-दुर्दशा: समाज में नारी की जो स्थिति भारतेन्दु के समय थी, वही अब भी है। समाज में अवारा और बदचलन लोग युवतियों पर बुरी दृष्टि डालते थे। पैसे और शक्ति के जाल में वे युवतियों को फँसाते थे। कुछ युवतियाँ भी तरह-तरह के मोह जाल में युवकों को फँसाती थी। अब भी बिल्कुल वही है बल्कि पहले से कुछ अधिक बिगड़ी है--
लाख टका कै वाला जोवन, गाहक सब ललचाय ।।
नैन मछरिया रूप जाल में, देखत ही फंसि जाय । ।
बिनु पानी मछरी सो बिरहिया, मिलै बिना अकुलाय । ।
पुरुष प्रधान समाज में नारी का स्थान उच्च नहीं था, वेश्यावृत्ति का बोलबाला था। घासी राम 'चने जोर गरम' बेचता हुआ बहुत सहजता से उस समय की प्रसिद्ध वेश्याओं के नाम लेता है--
चना खाय गफूस मुन्नी । बोलैं और नहीं कुछ सुन्नी ।।
आज तो इस क्षेत्र में समाज की स्थिति और भी विकृत हो चुकी है। तब भी नारियाँ पुरुषों के समान व्यापार में सहयोग देती थी और अब भी ऐसा ही है ।
3. विषम सामाजिकता: भारतेन्दु ने 'अन्धेर नगरी' में तत्कालीन सामाजिक मूल्यों के हनन का व्यंग्यात्मक शैली में वर्णन किया है। अंग्रेज़ी शासन व्यवस्था में पाप-पुण्य, अच्छा बुरा, सदाचार - दुराचार आदि की परिभाषा बदल गई थी। समाज में इतनी गिरावट आ गई थी कि लोगों की दृष्टि में पत्नी और वेश्या में कोई अन्तर ही नहीं बचा था। मूर्खता और विवेक हीनता ने सामाजिक मूल्यों को बदल दिया था। लोगों की नज़र में गाय और बकरी समान महत्त्व के थे। सच्चे और अच्छे लोग दर-दर की ठोकरें खाते थे और दुष्ट सब के सिर पर सवार रहते थे । दुष्ट लोग सभ्य और अच्छे लोगों को अपमानित करते थे। समाज में वही श्रेष्ठ माना जाता था । जो दुष्ट और धोखे बाज था । सब ओर अन्धेर मचा हुआ था। शासक तो नाममात्र के थे। सारा अच्छा-बुरा काम तो कर्मचारी ही करते थे--
भीतर होइ मलिन की कारों । चाहिए बाहर सा चर कारो ।।
धर्म अधर्म एक दरसाई । राजा करे सो न्याव सदाई ।।
भीतर स्वाहा बाहर सादे । राज करहि अगले अरु प्यादे ।।
वर्तमान में भी स्थिति वही है। सामाजिक मूल्य निरन्तर बदलते जा रहे हैं। लोगों की करनी कथनी में अन्तर है। धोखा-फरेब करने वालों ने सभी स्थानों पर एकाधिकार जमा रखा है, और वे किसी भी स्थिति में अपने आप को बदलने को तैयार नहीं हैं। मन के काले, धोखेबाज़ और दुष्ट स्वभाव के लोगों के हृदय में कोमल-भाव नहीं है। शासक वर्ग और कर्मचारी बाहर से तो सादे और भले लगते हैं पर मन के काले है। उनका आचरण अच्छा नहीं है, वे अत्याचारी और अन्यायी हैं । अफ़सरों के नाम पर कर्मचारी भ्रष्टाचारी बने हुए हैं, वे मनमाना व्यवहार करते हैं।
4. अधिकारियों की लूटमार: अन्धेर नगरी में भारतेन्दु ने अधिकारियों की लूटमार का वर्णन किया है। वे जनता को बिना किसी कारण तंग करते थे। वे रिश्वतखोर थे-
आज का हमारा युग तो रिश्वतखोरी से पूरी तरह त्रस्त है। बिना रिश्वत के कहीं कोई काम ही नहीं होता । सरकारी कर्मचारी तब भी बेईमान थे और अब भी वैसे ही है। उनकी महत्ता भ्रष्टाचार पर ही टिकी हुई है-
- (क) चूरन पुलिस वाले खाते । सब कानून हज़म कर जाते ।।
- (ख) जैसे काजी वैसे पाजी। रैयत राजी टके सेर भाजी ।।
- (ग) चूरन अमले सब जो खावें । दूनी रिश्वत तुरन्त पचावै ।।
भारतेन्दु के द्वारा जिस प्रकार का समाज चित्रित किया गया है, वैसा ही समाज अब भी है उसमें कोई सुधार नहीं हुआ, बल्कि कुछ बिगाड़ ही आया है।
5. जाति-व्यवस्था पर प्रहार: 'अन्धेर नगरी' में धर्म के नाम पर ब्राह्मणों के द्वारा किए जाने वाले जनता के शोषण और आडम्बरों का वर्णन भारतेन्दु ने किया है। वे धर्म के ठेकेदार बनकर धर्म को भी व्यापार की वस्तु मानने लगे हैं। वे पैसे ले देकर किसी का धर्म परिवर्तित कराने को सदा तैयार रहते हैं। पैसा ही उनके लिए सब कुछ है—
'जात लें जात, टके सेर जात। एक टका दो हम अभी अपनी जात बेचते हैं टके के वास्ते ब्राह्मण से धोबी हो जाएं और धाबी को ब्राह्मण कर दें। टके के वास्ते जैसी कहो वैसी व्यवस्था दें। टके के वास्ते झूठ को सच करें टके के वास्ते ब्राह्मण से मुसलमान, टके के वास्ते हिन्दू से क्रिस्तान। टके के वास्ते धर्म और प्रतिष्ठा दोनों बेचें, टके के वास्ते झूठी गवाही दें। टके के वास्ते पाप को पुण्य मानें। टके के वास्ते नीच को भी पितामह बनावें। वेद, धर्म, कुल-मर्यादा, सचाई -बड़ाई सब टके सेर । लुटाय दिया अनमोल माल। ले टके सेर।'
वर्तमान में भी विभिन्न धर्मावलम्बी अपने-अपने ढंग से लोगों को मुर्ख बना रहे हैं, समाज में अन्धविश्वास बढ़ा रहे हैं। धर्म का रास्ते उनके लिए व्यापार का रास्ता है। उनका काम ही ईश्वर के नाम का व्यापर करना है। चौपट्ट राजा अन्धविश्वास के कारण अपने आप फाँसी के फंदे पर झूल गया था और वर्तमान में भी न जाने कितने लोग धर्म के नाम पर अपना काम-धन्धा छोड़ जीवन की जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेते हैं। तभी भी समाज धर्म के आधार अनेक भागों में बंटा हुआ था और अब भी बंटा हुआ-
ऐसी जात हलवाई छत्तीस कौम हैं भाई ! धर्म के नाम पर धार्मिक स्थलों पर ही दुराचार होता है- 'मन्दिर के भितरिए वैसे अन्धेर नगरी के हम।' वैसा ही अब भी चल रहा है। समाचार-पत्र ऐसे ही समाचारों से रोज भरे दिखाई देते हैं। आज के अधिकांश धार्मिक ठेकेदारों का जीवन-दर्शन भी गोवर्धनदास जैसा है - "माना कि देश बहुत बुरा है। पर अपना क्या ? अपने किसी राज-काज में छोड़े हैं कि कुछ डर है, रोज़ मिठाई चाभना, मजे में आनन्द से राम भजन करना।"
वास्तव में हमारे देश की स्थितियां अब भी वैसी ही है जैसी 'अन्धेर नगरी' की रचना के समय थी। शासन तन्त्र में अन्तर अवश्य आया है पर उसकी कार्यविधि में अभी भी बहुत-कुछ समानताएँ हैं । व्यवस्था अभी भी भ्रष्ट है । सब तरफ अन्धेर गर्दी मची हुई है। न्याय व्यवस्था भ्रष्ट है। अयोग्य और बेईमान लोगों के द्वारा गद्दियां सम्भाली हुई हैं। समाज मूल्यहीन हो चुका है। धर्म के नाम पर राजनीति की जा रही है। सर्वत्र भ्रष्टाचार का बोलबाला है। पुलिस विभाग ठीक से अपना काम नहीं करता हैं कानून के रक्षक ही कानून के भक्षक बने हुए हैं। नेता विवेक हीन हैं तथा धर्म के ठेकेदार बेईमान हैं। यदि भारतेन्दु की 'अन्धेर नगरी' में थोड़ा-सा परिवर्तन कर दिया जाए तो यह समकालीन परिस्थितियों में पूर्णरूप में प्रासंगिक है। इसका औचित्य आज भी बना हुआ है।
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