गीति काव्य की परम्परा में विद्यापति की देन को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए। हिन्दी गीतिकाव्य के पहले रचनाकार विद्यापति हैं। विद्यापति पदावली लीलागान की परंपर
गीति काव्य की परम्परा में विद्यापति की देन को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
हिन्दी गीतिकाव्य के पहले रचनाकार विद्यापति हैं। विद्यापति पदावली लीलागान की परंपरा में पड़ती है। लीलागान की परंपरा लोकमानस में व्याप्त थी । इसका प्रमाण जयदेव का गीतगोविन्द है। बंगाल, उड़ीसा, कश्मीर में श्रीकृष्ण लीला के गाने का प्रचलन था। हिंदी में सर्वप्रथम विद्यापति ने इस प्रकार के गीतों की रचना की। उनकी पदावली जयदेव के गीतगोविन्द से प्रभावित है।
विद्यापति ने गीतिकाव्य के रूप में पदावली की रचना मुक्तक शैली में सफलतापूर्वक की। इसमें आए भाव अपने आप में पूर्ण और स्वतंत्र हैं । गीतिकाव्य में भावनाओं की अभिव्यक्ति की प्रमुखता होती है। विद्यापति पदावली में राधाकृष्ण के व्यक्तिगत प्रेम का सूक्ष्म अंकन हुआ है। संगीतात्मकता' और कोमल कांत पदावली के लिए तो विद्यापति की पदावली प्रसिद्ध है। उनकी कविता में काव्य और संगीत का अद्भुत मेल हुआ है। विद्यापति पदावली के गेय तत्व और काव्यत्व इस कदर एक दूसरे में घुलमिल गए हैं कि उन्हें एक-दूसरे से अलग करना मुश्किल प्रतीत होता है। भावों की तीव्र अभिव्यक्ति और संक्षिप्तता विद्यापति के गीतों की विशेषता है। ये सब तत्व मिलकर विद्यापति पदावली को एक श्रेष्ठ गीतिकाव्य बनाते हैं।
विद्यापति संधिकाल के दरबारी कवि थे। उनके आश्रयदाता शिवसिंह थे, जिनकी मृत्यु के पश्चात् उन्होंने कविता करना ही छोड़ दिया था। उनकी प्रमुख कृतियों में -
- कीर्तिकाल - कीर्ति सिंह पर लिखित |
- कीर्तिपताका- कीर्ति सिंह के प्रेम-प्रसंगों पर आधारित ।
- भू-परिक्रमा- शिवसिंह की आज्ञा से रचित भूगोल - संबंधी ग्रंथ ।
- पुरूष - परीक्षा- शिवसिंह की आज्ञा से रचित दंडनीति-विषयक ग्रंथ ।
- शैवसर्वस्वसार - शैव सिद्धांत - ग्रंथ - विश्वासदेवी की आज्ञा से रचित ।
- गंगा- वाक्यावली - गंगा - वंदना |
- दुर्गाभक्ति - तरंगिणी - धीरसिंह की आज्ञा से रचित ।
इनके अतिरिक्त और भी कई प्रसिद्ध रचनाएं राजा या रानी की आज्ञा पर लिखी गई, किंतु उन्हें जो प्रसिद्धि मिली वह उनके पदों के कारण है, जिनकी संख्या करीब पांच सौ है । ये पद विद्यापति की पदावली कहे जाते हैं तथा उनकी अक्षय कीर्ति के आधार हैं।
संगीतात्मकता के कारण विद्यापति के गीत आज भी मिथिला जनपद के घर-घर में गाए जाते हैं। इनके गीतों में संगीतात्मकता के दो रूप हैं- एक शास्त्रीय रूप, जो विभिन्न राग-रागिणियों से आबद्ध होकर संगीत का विषय बनता है तो दूसरा जनसामान्य रूप जो राग-रागिणियों में नहीं बांधता, मुक्त है, जैसे-
श्रवण सुनिअ तुम नाम रे ।
जगत विदित सब ठाम रे ।।
तुअ गुन बहुत पसार रे ।
ताहि कतहु नहि पार रे ।।
इसी प्रकार वसंतराग का उदाहरण देखें-
ओतएक तन्त उदन्त न जानिअ ।
एतए अनल बम चन्दा ।।
सौरभ सार भार अरूझाएल ।
दुई पंकज मिलु मन्दा ॥ ।
ध्वन्यात्मकता संगीतात्मकता का ऐसा तत्व है, जो कवि की रचना को सौंदर्य प्रदान करता है। गीतितत्व का प्राण है। कविवर विद्यापति पर जयदेव का स्पष्ट प्रभाव है। विद्यापति ने जो कुछ गाया, उसका अनुसरण कई परवर्ती कवियों ने किया। भावों को छिपाना नहीं, प्रकट करना उनका उद्देश्य रहा है। भावों के लिए उन्होंने प्रेम, संकेत, व्यंग्क, अभिसार, छलना, मान, विरह, उल्लास इत्यादि अनेके भावों का सटीक वर्णन किया है। कृष्ण राधा का प्रेमावेग व्यक्त करते हुए कवि कहते हैं-
ससन परस खसु अम्बर रे देखल धनि देह ।
नव जलधर तर संचर रे जनि बिजुरी रेह ।।
कृष्ण को वस्त्र में छिपा राधा का शरीर वैसा ही जान पड़ता है, जैस जलधरों में बिजली की रेखा चमक जाती है। कृष्ण राधा के रूप पर रीझ जाते हैं, वही राधा कृष्ण के सौंदर्य पर रीझ कर कहती हैं-
की लागि कौतुक देखलौं सखि निमिष लोचन आधा ।
मोर मन मृग मरम बेघल विषम बान बेआध ।।
उल्लास-भाव व्यक्त करते हुए कवि कहते हैं कि मेरे आंगन में चंदन का गाछ (पेड़) है, जिसपर काग कुरराता है। चारों ओर चंपा, मौलसिरि फूले हैं, चांद की उजयारी फैली है-
मोरा अंगनवा चनन केरि गछिया,
ताहि चढ़ि कुररय काग रे ।
सोने चोंच बांध देब तोयें बायस,
जओं पिया आवत आज रे ।
चओदिस चम्पा मओली फूललि,
चान उजोरिया राति रे ।
इस प्रकार विद्यापति ने अपनी पदावली में गीतिकाव्य के सभी तत्वों का समावेश किया है, सभी गीतिकाव्यकारों ने इनके भावों को अपनाया है। इनके पश्चात् सूरदास ने इन्हीं की शैली पर 'सूरसागर की रचना की।
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