नंद का चरित्र चित्रण - मोहन राकेश ने 'लहरो के राजहंस' नाटक की सर्जना एक द्वन्द्वप्रधान नाटक के रूप में की है। नंद इस नाटक का सशक्त एवं सर्वाधिक द्वन्द
नंद का चरित्र चित्रण - Nand Ka Charitra Chitran
नंद का चरित्र चित्रण - मोहन राकेश ने 'लहरो के राजहंस' नाटक की सर्जना एक द्वन्द्वप्रधान नाटक के रूप में की है। नंद इस नाटक का सशक्त एवं सर्वाधिक द्वन्द्वग्रस्त पात्र है। नंद नाटक का प्रमुख पात्र है और नायक के रूप में उभरा है। वह नाटकीय कथा में आदि से अन्त तक उपस्थित रहता है। राकेश जी ने युगों-युगों से प्रवत्ति एवं निवृत्ति मार्ग के बीच मानव चेतना की द्वन्द्वग्रस्ता के प्रतीक रूप नंदको प्रस्तुत किया है। ऐतिहासिकता में नंद कपिलवस्तु का राजकुमार है और भगवान गौतम बुद्ध का सौतेला भाई है। अनुपम सुन्दरी का पति है और नित्य प्रति भोग-विलास का जीवन जीने का अभ्यस्त है।
नंदः द्वन्द्वग्रस्त चेतना का प्रतीक
नाटककार ने नंद को द्वन्द्वग्रस्त चेतना के प्रतीक रूप में उभारा है। वह प्रव ति एवं निव त्ति मार्गों के बीच खड़ा है। खड़ा क्या डोल रहा है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार लहरों पर हंस तैरता या डोलता रहता है। वह इन दोनों में से एक के चुनाव की यातना का भोक्ता है। उसे नाटककार ने प्रवत्ति एवं निव त्ति मार्गों के बीच युगों से द्वन्द्वग्रस्त मानव चेतना के प्रतीक रूप में प्रयुक्त किया है। इसलिए वह भौतिक विलासमय जीवन जीता है और पारलैलिक सुख की खोज में बौद्धमत को स्वीकारने की कोशिश करता है। वह न अपनी पत्नी (प्रवति मार्ग) को छोड़ पाता है और न ही पूर्णतया से बौद्धमत को स्वीकारने की कोशिश करता है। वह न अपनी पत्नी (प्रव ति मार्ग) को छोड़ पाता है और न ही पूर्णतया से बौद्धमत को स्वीकार ही कर पाता हैं उसका दोनों के प्रति आकर्षण है और यही अन्तर्विरोध उसे किसी एक का नहीं होने देता। वह सुन्दरी से प्यार करता है। उसकी सुन्दरता पर वह मोहित है। उसका प्रसाधन भी अपने हाथों से करना चाहता है। जब सुन्दरी प्रसाधन कर रही होती है तो वह हाथों में दर्पण लेकर खड़ा हो जाता है। लेकिन जब उसे सूचना मिलती है कि द्वार पर गौतम बुद्ध भिक्षा लेने आए थे और किसी ने भी भिक्षा नहीं डाली तो वह विक्षुब्ध हो जाता है और वह अस्थिर हो जाता है जिससे दर्पण हिलकर गिरकर टूट जाता है। दर्पण का टूटना प्रतीकात्मक अर्थ रखता है। दर्पण का टूटना वास्तव में उसके हृदय का टूटना है जिससे सुन्दरी अपनी खण्डित रूपाकृति देखकर सिहर उठती है । वह बुद्ध के पास क्षमा याचना के लिए जाना चाहता है और चला भी जाता है, किन्तु बुद्ध जबरन उसके केश कटवा देता है जिससे वह ग्लानिवश घर नहीं लौटता, वन की और चला जाता है और वहाँ प्रवति एवं निव त्ति दोनों से सीधे साक्षात्कार करता है। एक व्याघ्र से भी भिड़ता है फिर क्षत-विक्षत होकर घर की ओर लौटता है और अपने अन्तर्द्वन्द्व को उजागर करता हुआ भिक्षु आनन्द से कहता है-
"और नहीं भिक्षु । यह बातों का खेल हमारे बीच और नहीं खेला जाएगा स्वर्ग और नरक, वैराग्य और विवेक, शील और संयम, आर्यसत्य और अम त - मैं जानता हूँ, वाणी के छल से तुम मुझे किस ओर ले जाना चाहते हो। मैं तथागत के सामने कह चुका हूँ और अब फिर से कहे देता हूँ कि वह दिशा मेरी नहीं है, कदापि नहीं है।"
विलासी राजकुमार
नंद का विलासी व्यक्तित्व है वह अपनी अनुपम सौन्दर्य युक्त पत्नी सुन्दरी के रूप में ही उलझा रहता है वह मदिरापान भी करता है। तभी तो नाटककार ने कहा- (नदं मदिराकोष्ठ के पास आकर चषक में मदिरा डालता है। तभी सुन्दरी की दृष्टि उस पर पड़ती है)
सुन्दरी: (चौंककर ) आप?... आप कब आए ? अभी-अभी तो मैं .....।
नंद: (चषक होठों के पास ले जाकर ) मैं अभी आया हूँ । (चषक खाली करके यथास्थान रख देता है)
एक ओर तो कपिलवस्तु के राजपुरुष, राजकर्मचारी और सामान्य लोग बौद्धमत में दीक्षा ग्रहण कर रहे थे, और दूसरी ओर नंद अपनी पत्नी सुन्दरी द्वारा कामोत्सव के आयोजन की तैयार ) में सहयोग देते दिखाई देते हैं-
"हां .... नहीं..... ऐसी कुछ विशेष बात नहीं थी । मैं यही कहना चाहता था कि .... व्यवस्था यदि उद्यान के स्थान पर कक्ष में की जाए, तो ..... । "
नंद तो सुन्दरी के प्रसाधन में भी सहयोग करता है। वह दर्पण हाथ में लेकर खड़ा हो जाता है :-
"कि मैं किस पर अधिक मुग्ध हूँ...... तुम्हारी सुंदरता पर या तुम्हारी चातुरी पर । "
वह इतना विलासमयी है कि बौद्धधर्म में दीक्षित होने पर भी वापिस सुन्दरी के पास आता है। उसे निहारता है और बौद्धमत में अपनी अस्वीकृति दिखाता है-
"यह केवल मन का विद्रोह था...... बिना विश्वास एक विश्वास के अपने ऊपर लादे जाने के लिए? या कि इसलिए कि उस समय में इतना सत्वहीन क्यों हो गया कि भिक्षु आनन्द के कर्तनी उठाने पर चिल्ला नहीं सका कि यह विश्वास मेरा नहीं है। मैं तुम्हारा या किसी और का विश्वास ओढ़कर नहीं जी सकता, नहीं जीना चाहता।"
वह केश कटने के बाद अपने को सुन्दरी के बिना अकेला महसूस करता है। इसीलिए वह कहता है-
"तब नहीं लगा था, पर अब लगता है कि केश काटकर उन्होंने मुझे बहुत अकेला कर दिया है। घर से ..... और और अपने आपसे भी अकेला ! जिस सामर्थ्य और विश्वास के बलपर जी रहा था, उसी के सामने मुझे असमर्थ और असहाय बनाकर फेंक दिया गया है।"
नंद विलासी होने के कारण ही किसी एक पथ को नहीं चुन पाया। नहीं तो वह दोनों में से एक मार्ग का चयन कर लेता।
अस्थिर व्यक्तित्व
नन्द का स्थिर व्यक्तित्व नहीं है और उसमें स्थिर निर्णय लेने की भी क्षमता नहीं है। शक्ति हो भी तो साहस नहीं करता। वह केवल सुन्दरी के रूप पर मोहित है। वह पूर्णतः भोगवादी दिखाई देता है, लेकिन ज्योंही उसे 'व द्ध' शरणं गच्छामि ? का समवेत स्वर प्रबलता से सुनाई देता है तो उसक सुन्दरी (प्रव तिमार्गी) के प्रति आकर्षित मन टूट जाता है और वह बौद्धमत की शरण में भागता है। केश कर्तन करवा लेता है, किन्तु वह वहाँ भी नहीं ठहर पाता, वापिस लौटता है पर ग्लानिवश वन की ओर चला जाता है। वहाँ भी एक व्याघ्र से भिड़ता है, अथार्त - प्रवति एवं निव त्ति मार्ग से साक्षात्कार करता है। फिर क्षत-विक्षत घर लौट ही आता है। किन्तु उसका अस्थिर यहाँ भी नहीं टिकता। वह फिर कुछ प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए बुद्ध के पास जाता है। अतः उसका अस्थिर मन उसे कहीं भी नहीं टिकने देता, कोई भी स्थिर निर्णय नहीं लेने देता। वह अन्त तक कमलताल की लहरों पर तैरते डोलते राजहंसों की तरह अस्थिर बना रहता है।
नंदः एक अहिसंक व्यक्ति
नंद एक अहिंसक मानव है। वह बौद्ध दर्शन के अनुरूप ही अंहिसात्मकता का पालन करता है। उसकी यह भावनाहिरण के प्रसंग से स्पष्ट हो जाती है। संध्याकाल में नंद जब आखेट से वापिस आता है तो सुन्दरी से अपनी अहिंसात्मक भावना को व्यक्त करता हुआ कहता है-
“सच, थकान उतनी शरीर की नहीं जितनी मन की है । मृग मेरे बाण से आहत नहीं हुआ इससे मन को उतना खेद नहीं हुआ, जितना इससे .... कि जब थककर लौटने का निश्चय किया तो वही म ग...... थोड़ी ही दूर आगे ..... रास्ते में मरा हुआ दिखाई दे गया ।" मृत्यु का यह शरीरी आतंक वास्तव में बुद्ध दर्शन की चेतना का ही आतंक है जिसने उसके मन में अहिंसा-भाव को जन्म दे दिया है। इसी विषय में वह आगे कहता है-
"मैंने कभी सोचा तक नहीं था कि मरा हुआ मृग भी इतना सजीव लग सकता है ऐसे लग रहा था जैसे हाथ लगाते ही वह आशंका से कांप जाएगा और सहसा उठकर भाग खड़ा होगा। पर मैं उसे हाथ भी तो नहीं लगा सका । आखेटकों ने उसे उठा लाना चाहा, तो मैंने मना कर दिया। कहा कि उसे वहीं पड़ा रहने दो, उसी रूप में मृत और...... जीवित । "
नंद दूसरे दिन तक भी मृग के प्रसंग को भूल नहीं पाया और अपने कक्ष के गवाक्ष से अनन्त क्षितिज की ओर देखता हुआ उसी के बारे में सोचता रहता है । सुन्दरी के पूछने पर कहता है-
"नहीं, उस मृग की बात सोच रहा था। सोच रहा था कि वहीं घने वृक्षों की ओट में पड़ा हुआ वह....। वहाँ पड़ा हुआ वह कल कैसा लग रहा था। और न जाने क्यों इस समय प्रभात का फीका चाँद भी मुझे कुछ वैसा ही लगा....... कोमल, अक्षत और निर्जीव । "
जब गौतम बुद्ध उसके केश कटवा देते हैं तो वह फिर भी म ग को देखने के लिए जाता है और उसकी ठठरी देखकर कांपने लगता है। वापिस घर आने पर वह सोयी हुयी सुन्दरी के पास जाकर कहता है-
"तुम पूछतीं, क्यों, तो मैं क्या उत्तर देता? क्या कहता कि तथागत के पास से उठ आने के बाद क्यों मन में कल के मरे हुए मृग को देखने की कामना इतनी प्रबल हो आयी थी कि किसी भी तरह अपने को वहाँ जाने से रोक नहीं सका? कैसे बताता कि मृग के स्थान पर एक नोच खायी ठठरी को देखकर मुझे कैसा लगा । "
नंद उद्दाम प्रेम का प्रतीक
राकेश जी ने नंद को उद्दाम प्रेम का प्रतीक प्रस्तुत किया है। वह सुन्दरी से अत्यधिक प्रेम करता है। वह तो सुन्दरी के प्रेम से आतंकित भी दिखाई देता है। जो विलास-भावना उसके मन में जागती है, वह सुन्दरी के प्रेम के कारण ही जगती है। यथा-
नंद: एक बात का मैं कभी निश्चय नहीं कर पाता।
सुंदरी: किस बात का ?
नंद: कि मैं किस पर अधिक मुग्ध हूँ..... तुम्हारी सुन्दरता पर या तुम्हारी चातुरी पर ।
सुन्दरी: आप मुझे चतुर कहते हैं?
नंद: नहीं हो तुम?
सुन्दरी: कहते हैं, आपका ब्याह एक यक्षिणी से हुआ है जो हर समय आपको अपने जादू से चलाती है।
नंद: इसमें झूठ क्या है?
सुन्दरी: झूठ नहीं है?
नन्द: यक्षिणी हो या नहीं, यह तो मैं नहीं कह सकता पर मानवी तुम नहीं हो। ऐसा रूप मानवी का नहीं होता ।
वह गौतम बुद्ध के निवृत्ति मार्ग से प्रभावित है। बुद्ध के पास जाकर केश कर्तन भी करवा लेता है, बौद्ध धर्म की दीक्षा ले लेता है, किन्तु फिर भी वह अपने उद्दाम प्रेम का परित्याग नहीं कर पाया, बल्कि बुद्ध मत में ही अविश्वास प्रकट करता हुआ कहता है।
“पर मैं पूछता हूँ कि तब होने न होने में कोई अन्तर नहीं है, तो मेरे केश क्यों कटवा दिए? कटवा ही दिए, तो उससे अन्तर क्या पड़ता है। कुछ ही दिनों में फिर नहीं उग जाएंगे। (झूले के पास रूककर) अन्तर पड़ता यदि मेरा हृदय बदल जाता, आँखें बदल जातीं। मेरे हृदय में तुम्हारे लिए अब भी वही अनुराग है, आँखों में तुम्हारे रूप की अब भी वही छाया है" । उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि नंद एक उद्दाम प्रेम का प्रतीक रूप है।
अतः यहाँ राकेश जी ने ऐतिहासिक नंद के चरित्र को विलासिता के युगों से प्रवत्ति एवं निवृत्ति मार्ग के बीच मानव की द न्द्वग्रस्त चेतना के अस्थिर व्यक्तित्व के मानव मन की अहिंसात्मक भावना के आधुनिक प्रतीक रूप में उभारा है। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राकेश जी ने उन्हें नायक बनाया है। वह नायक ठहरता भी है, क्योंकि वह नाटककार के उद्देश्यों की पूर्ति करता है।
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