जीतन का चरित्र चित्रण- डॉ० लक्ष्मीनारायण लाल ने 'एक सत्य हरिश्चन्द्र' नाटक में जीतन का चरित्र इस रूप में अंकित है कि वह नाटक का एक पात्र है और नाटक के
जीतन का चरित्र चित्रण - एक सत्य हरिश्चन्द्र
जीतन का चरित्र चित्रण- डॉ० लक्ष्मीनारायण लाल ने 'एक सत्य हरिश्चन्द्र' नाटक में जीतन का चरित्र इस रूप में अंकित है कि वह नाटक का एक पात्र है और नाटक के भीतर नाटक का भी एक पात्र है। अर्थात् जीतन का सामान्य जीवन भी है और अभिनेता के रूप में उसने विश्वामित्र की भूमिका भी निभाई है। इन दोनों रूपों में वह सफल रहा है।
विचारों में बदलाव
इस नाटक में भूतपूर्व जमींदार और वर्तमान राजनेता देवधर के साथ सहयोगी, अनुयायी के रूप में जीतन के चरित्र को दिखाया गया है। वह कुछ दूरी तक देवधर का पूरी तरह साथ देता है और इस नाते लौका हरिश्चन्द्र का विरोधी है, क्योंकि देवधर का दुश्मन है लौका। आगे चल कर जीतन स्वयं मुनि विश्वामित्र की भूमिका में उतरता है और अब धीरे-धीरे बदलता चला जाता है। नाटक के अन्त तक पहुँचते-पहुँचते स्थिति पूरी तरह उलट-पलट हो जाती है और जीतन देवधर की पक्षधरता को छोड़कर लौका का साथी सहयोगी बन जाता है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जीतन सामान्य जीवन में कुछ और है परन्तु कलाकार की भूमिका में उतरने के बाद कुछ और हो जाता है। कहा जा सकता है कि वह पूरी तरह बदल जाता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस बदलाव के पीछे गाँधीवादी दर्शन नहीं है, सुधारवाद नहीं है। मनोविज्ञान यह बताता है कि कोई व्यक्ति यकायक बदल नहीं सकता, वह जैसा है वैसा रहेगा, परन्तु कुछ ऐसी स्थितियाँ होती हैं, घटनाएँ होती हैं जिनसे आदमी पूरा का पूरा बदल जाता है। यहाँ नाटककार ने ऐसी ही स्थितियाँ को प्रस्तुत किया है, यानी हम कहें कि जीतन यकायक नहीं बदलता बल्कि उसके बदलाव के पीछे एक पूरी पृष्ठभूमि है। वह नये अनुभवों से गुजरता है और उसे कुछ नया सिखाते हैं, नया रूप दे जाते हैं। इसमें नाटककार ने कला के महत्त्व को स्थापित किया है और बताया है कि कला में वह जादू है जो अपना अवश्यभावी प्रभाव किसी व्यक्ति पर छोड़ती है और कहीं का कहीं पहुँचा देती है।
यहाँ यह भी देखा जा सकता है कि जीतन का चरित्र एक रूप नहीं रहता। वह एक साथ नहीं बदलता बल्कि धीरे-धीरे बदलता है। कहा जा सकता है उसके चरित्र-चित्रण में नाटककार ने मानव स्थितियों के अंकन में विशेष द ष्टि से काम लिया है और इस प्रकार जीतन के चरित्र का विकास देखने को मिलता है। जीतन एक सामान्य व्यक्ति है लेकिन उसका चरित्र चित्रण विशेष रूप से किया गया है। वह नाटक के शुरू जो व्यक्ति एक बड़े व्यक्तित्त्व में अपना प्रभाव नहीं छोड़ता परन्तु अन्त में पहुँचते पहुँचते प्रभावशाली बन जाता है। जो व्यक्ति एक बड़े व्यक्तित्त्व का अनुगामी हो उसके चरित्र में व्यवहार आ भी कैसे सकता है। यह नाटककार की द ष्टि ही है कि उसने जीतन को काफी ऊँचाई पर पहुँचा दिया है और जीतन ने विशेष महत्त्व पा लिया ।
विकासशील व्यक्ति
इस नाटक में नाटककार ने पात्रों का जो चरित्र किया है वह दो तरह का है (1) एक तो ऐसे पात्र हैं जो अच्छे हैं या बुरे हैं, जो आदर्श हैं या घ णास्पद हैं जैसे लौका का एक आदर्श पात्र है और देवधर बुरा पात्र (2) दूसरे ऐसे पात्र हैं जो अपनी निजी रूप से अच्छे हैं बल्कि जैसे है वैसे हैं। इस वर्ग में जीतन और गपोले दोनों आते हैं। इन दोनों में भी जीतन का महत्त्व कुछ अधिक है। जीतन का चरित्र-चित्रण नाटककार ने स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत किया है। उसमें कहीं कोई कृत्रिमता नहीं है। यह एक ऐसा पात्र है जो नाटक के शुरू से लेकर नाटक के अन्त तक चलता है और देवधर जैसे महत्त्वपूर्ण पात्रों के बाद जीतन का स्थान है।
सबसे पहले हमारे सामने जीतन का वह रूप आता है जब वह देवधर का साथी अनुयायी है। यहाँ पर देवधर की हाँ में हाँ मिलाता है और वह यह नहीं देखता की क्या सही है, क्या गलत देवधर के प्रति उसकी अंध भक्ति है। न उसके अपने विचार हैं न उसकी अपनी विचारशक्ति है न उसके अपने अनुभव हैं, अपना जीवन है। वह जो कुछ भी है देवधर के साथ है। उस पर पर देवधर का पूरा प्रभाव है। देवधर ने उसे ऐसा मंत्रमुग्ध किया है या उस पर ऐसा मैस्मरेजम किया है कि जीतन अपने आप में कुछ नहीं है।
प्रस्तावना में देवधर और लौका की बातचीत हो रही है जो नौंक-झौंक का रूप लेती है। एक जगह लौका यह पूछता है कि देवधर अपनी ओर से क्यों क्रांति करना चाहते हैं हमें क्यों नहीं करने देते। इस पर जीतन कहता है- "पर यह काम वही कर सकता है जिसमें आत्मगौरव हो, आत्मज्ञान हो और आत्मविश्वास हो।" यकायक वह बात को आगे बढ़ाते हुए ऐसे मोड़ पर ले जाता है कि बात उलट जाती है और देवधर के विरूद्ध हो जाती है। जीतन का कथन है- “इसके लिए भीतर आग चाहिए। मैं पता लगा रहा हूँ वह आग सिर्फ ऊँची जाति के लोगों में है। नीचे के लोगों में वह आग हजारों साल पहले कुचलकर बुझा दी गई है समझे कि और समझाऊँ ?
वैचारिक रूप
यह सुनकर देवधर को बुरा लगा और उसे घुड़क दिया। इससे यह तो समझाया ही जा सकता है कि जीतन भले ही असावधानी में सही सच्चाई तो बोल ही गया और वह सच्चाई यह है कि ऊँची जाति के लोगों ने नीची जाति के लोगों को इतना दबा कर रखा है कि अब वे कुछ भी सोचने-समझने लायक नहीं रह गये। भला यह बात देवधर के गले कैसे उतर सकती है जो लौका को अपना प्रतिद्वन्द्वी मानता है और लौका नीची जाति के लोगों में ही नहीं ऊँची जाति के लोगों में भी प्रतिष्ठा - पात्र है। लौका उसका प्रतिद्वन्द्वी है और वह लौका को खत्म करना चाहता है। इसके बाद जीतन चुप लगा गया। जब देवधर ने अपनी आक्रोशी मुद्रा में यह कहा कि बताओ साफ-साफ बताओं मैं झूठा हूँ और लौका सच्चा है। इसे जीतन ने दार्शनिक मोड़ देते हुए कहा- “सच जैसी चीज नहीं होती। जो आज सच है वही कल झूठ हो जाएगा। हर क्षण पृथ्वी घूम रही है। हर चीज यहाँ बदल रही है। इस बात की कोई कीमत है नहीं।”
कहा जा सकता है कि उसने दार्शनिक मोड़ अपनी बात को बदलने के लिए दिया, जो न किसी के पक्ष में न विपक्ष में। इसमें दो बातें देखी जा सकती हैं- एक तो यह कि उसमें वैचारिक शक्ति है और दूसरा यह कि वह अपनी बात को बदलने में प्रवीण है। यह भी स्पष्ट है कि वह देवधर का पक्षधर है। देवधर लौका से बहुत आंतकित है। उससे मुक्ति दिलाने या चैन की साँस दिलाने में जीतन और गपोले उसकी मदद करते हैं। देवधर इस बात से परेशान है कि लौका सच बोलता है। उसे सांत्त्वना देते हुए जीतन कहता है कि फिर तो डर की कोई बात नहीं क्योंकि ‘“बात यह है कि सत्य तो कोई अपने जीवन में जी नहीं पाता । सत्य के लिए उसे इम्तिहान देना पड़ता है। उसके लिए विपत्ति और बलिदान सहना होता है। उसी में सारी जिन्दगी खत्म । इधर आप मौज कीजिए।"
देवधर यह कहता है कि लौका में एक खरतनाक बात यह है कि उसी को सत्य मानता है जिसे जिया जा सके और उसके हिसाब से हर सत्य नया होता है। इस पर जीतन उसे फिर सान्त्वना देता है- "सोचिए भला, यहाँ कौन जी सका है अपने सत्य को ? सत्य हरिश्चन्द्र नहीं जी सके, सिर्फ यह साबित करने में कि वह सत्य हरिश्चन्द्र है, सारी जिन्दगी तबाह हो गई। सब कुछ बिक गया, और राजा इन्द्र बना रहा।" इससे उसकी देवधर के प्रति पक्षधरता स्पष्ट है। वह पूरी तरह से उसके साथ है परन्तु नाटक में ऐसा कहीं नहीं है जहाँ जीतन ने देवधर के अनुचित कार्यों में साथ दिया हो या उसका समर्थन किया हो। कहा जा सकता है कि यह उसके व्यक्तित्त्व का उज्जवल पक्ष है जिसका निर्वाह नाटककार ने इस नाटक में किया है।
विश्वामित्र रूप में
इसके बाद नाटक के भीतर नाटक शुरू होता है जिसमें विश्वामित्र का अभिनय करता है। हर बार नाटक का एक हिस्सा खोलने के बाद ये मूल पात्र अपने मूल रूप में अलग से मिलते हैं या अपने कार्यों में संलग्न होते हैं और मूल नाटक को आगे बढ़ाते हैं। जीतन भी यही करता है। परन्तु विश्वामित्र की भूमिका में उतरने के बाद जीतन के चरित्र में थोड़ा-थोड़ा परिवर्तन आता रहता है जो उसके इस कथन से स्पष्ट है- “जैसे-जैसे विश्वामित्र के चरित्र में बैठता जा रहा हूँ, लगता है मैं अपने से आमने-सामने हो रहा हूँ। मैं क्या हूँ ? लौका क्या है ? आप क्या हैं? इसे देखने लगा हूँ ।"
देवधर शक्तिशाली राजनेता है। फिर भी वह कदम-कदम पर भयभीत दिखाई देता है। उसका भय बातचीत में प्रकट होता रहता है। इस संदर्भ में जीतन सहसा एक महत्त्वपूर्ण बात कर जाता है- "जो झूठ है वह क्यों सच दिखता है ? जो शक्तिशाली है वही क्यों इतना डरता है, जो है नहीं पर दिखता है, दोष हमारी ही आँखों का है।" इस पर देवधर अपनी टिप्पणी नहीं कर सका क्योंकि एक दूसरा पात्र बीच में आ गया और बात बदल कई, परन्तु जीतन ने जो कुछ कहा वह सच था। यहाँ उसने देवधर पर व्यंग्य किया था उसने अपनी जिसे शायद देवधर नहीं समझ पाया क्योंकि बात दार्शनिकता में लपेट कर कही थी। इसके बाद नाटक में नाटक फिर हुआ और जीतन के अनुभव को और प्रगाढ़ किया। उसे नयी रोशनी मिली जिसे उसने देवधर के सामने इन शब्दों में व्यक्त किया- "मेरी आँखों में जो रोशनी है, अंधेरा उसी से प्रकाशित हो रहा है। इसी का नाम सत्ता है। अंधे को अंधेरा नहीं दिखाई पड़ सकता है।
सीधा टकराव
यह बात देवधर को चुभ गई और उसने घुड़क दिया। अब तक जीतन बदल चुका था। वह उसकी घुड़क में नहीं आया और उसने आगे कहना जारी रखा। एक बिन्दु पर तो यहाँ तक बात आ गई कि उसने देवधर को मुँहतोड़ जवाब दे दिया- “यह नाटक तुम्हारा बनाया हुआ है। सत्ता धारी राजा ने पंडित से कहा- धर्म का नाटक रचो । प्रजा सत्य की परीक्षा देती रहे। तुम बैठे मौज करो। राजा ने दरबारी पंडित से कहा- लिखो मेरी कहानी, वही हो गया इतिहास। राजा ने आज्ञा दी, ऐसा शास्त्र रचो जिसमें नर्क और स्वर्ग हो, पाप और पुण्य हो, पूर्व जन्म का कर्म फल हो, भय हो आतंक हो, नीचा हो ऊँचा हो... "
जब पात्र इस प्रकार से व्यवहार करे तो दूसरे पात्र यानी मुख्य पात्र देवधर पर क्या गुजरेगी, यह अनुमान लगाया जा सकता है। यही हुआ भी। अब देवधर को यह समझते हुए देर न लगी कि जीतन बहुत अधिक बदल गया है और वह लौका की जबान बोल रहा है। सच्चाई यह है कि कड़वे सच को पचा लेना आसान काम नहीं है। देवधर भी नहीं पचा पाया और उसने जीतन को अधर्मी, पता नहीं क्या-क्या कहा।
नाटक के अन्त में जीतन ने यहाँ तक कह दिया कि सारी कथाएं तुमने यानी देवधर जैसी ऊँची जाति और ऊँचे पद पर बैठे हुए लोगों ने बनाई है, वे क्यों और कैसे बनाई गईं, यह मैंने विश्वामित्र बन कर देख लिया। इसका तात्पर्य यह है कि नाटक में अभिनय के माध्यम से ही सही, जीतन ने एक नया अनुभव प्राप्त किया। इससे वह देवधर की पक्षधरता से अलग हटकर लौका के साथ चला गया और उसने लौका को आश्वस्त किया कि हम सब तुम्हारे साथ हैं।
वास्तव में जीतन न तो देवधर से अलग हुआ और न ही लौका के साथ मिला बल्कि उसने झूठ को छोड़कर सत्यपथ को अपनाया। इससे नाटक में जीतन के चरित्र विकास को भली-भाँति देखा जा सकता है। निश्चय ही जीतन के चरित्र में सतत् विकास होने से दर्शक के लिए प्रिय और अनुकरणीय सिद्ध होता है।
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