देवधर का चरित्र चित्रण - एक सत्य हरिश्चन्द्र

देवधर का चरित्र चित्रण - एक सत्य हरिश्चन्द्र: डॉ० लक्ष्मीनारायण लाल के नाटक 'एक सत्य हरिश्चन्द्र' में एक महत्त्वपूर्ण पात्र है- देवधर ! वह इस नाटक मे

देवधर का चरित्र चित्रण - एक सत्य हरिश्चन्द्र

देवधर का चरित्र चित्रण - डॉ० लक्ष्मीनारायण लाल के नाटक 'एक सत्य हरिश्चन्द्र' में एक महत्त्वपूर्ण पात्र है- देवधर ! वह इस नाटक में प्रथम पृष्ठ से अन्तिम पृष्ठ तक विद्यमान है। उसकी स्थितियाँ, उपस्थिति सामान्य ढंग से न होकर विशिष्ट ढंग से होती है। वह एक ऐसा पात्र है जिसके बिना हम इस नाटक की कल्पना नहीं कर सकते। प्रश्न यह नहीं कि वह अच्छा है या बुरा है, किन्तु वह सर्वत्र है और वह स्वयं को चर्चा के मध्य बनाए रखता है।

देवधर भूतपूर्व जर्मीदार है जो अपने दबदबे के कारण राजनीति में आ गया और छा गया। अतः राजनेता बन गया। वह सत्ता की राजनीति में विश्वास रखता है। वह जानता है कि राजनीति में कौन सफल हो सकता है। राजनीति में आकर कैसे सत्ता हथियाई जाती है, कैसे और बड़ा पद पाया जाता है, यह भी जानता है कि अपने पद को किस प्रकार सुरक्षित रखा जाए। 

यथार्थवादी

वह यथार्थवादी है, आदर्शवादी नहीं। वह व्यवहारिक व्यक्ति है। वह ठोस परिणामों में विश्वास रखता है। वह सपने नहीं देखता, बल्कि वह दूसरों को ऊँचाई की बात नहीं करता बल्कि ठोस परिणामों में विश्वास रख जमीन पर ही रहता है। वह सिद्धान्तवादी नहीं है किन्तु इस सिद्धान्त में विश्वास रखता है कि प्रेम और युद्ध में कहीं कुछ भी गलत नहीं है। वह राजनीति को प्रेम मानता है। उसके अनुसार, राजनीति में नैतिकता - अनैतिकता का कोई प्रश्न नहीं है, कोई औचित्य अनौचित्य नहीं है।

नाटककार ने लौका और देवधर के चरित्र को समान धर्मा अनुपूरक नहीं बनाया, बल्कि दोनों को अलग-अलग ढंग से छोड़ दिया है। ये दोनों एक दूसरे की क्षतिपूर्ति ही नहीं करते, विरोधी भी हैं। इन दोनों के जो संसार हैं वे दोनों ही अलग-अलग मिट्टी के बने हैं। वे नाटक में आरम्भ से अन्त तक किसी भी बिन्दु पर नहीं मिलते और न ही सम्भावनाएं हैं। ये दो ध्रुव हैं- एक उत्तरी तो दूसरा दक्षिणी है।

सामान्यतः नाटक में इस प्रकार के पात्र नहीं होते जो दो सिरों पर होते हैं। वे अच्छे या बुरे भी नहीं होते हैं। फिर भी, डॉ० लाल ने इस प्रकार के पात्रों की चरित्र सष्टि इस नाटक में की है कि वे किसी भी रूप में एक दूसरे से मेल नहीं खाते, वैसे देवधर के चरित्र की एक विशेषता यह है कि वह गतिशील और बराबर सक्रिय है। यह भी सत्य है कि वह जैसा भी है, पूरे नाटक पर छाया रहता है और अपने दबंगपने में जीता हुआ सभी पात्रों पर हावी रहता है। दूसरे लोग उसे पसन्द करते है या नहीं उसकी उसे चिन्ता नहीं है।

असामान्य व्यक्तित्त्व

'एक सत्य हरिश्चन्द्र' नाटक की प्रस्तावना में नाटककार ने रंग संकेत देते हुए लिखा है- "इसी समय गाँव का भूतपूर्व जमींदार और आज का राजनेता देवधर दाईं और से आता है। चारों ओर देखकर फिर आगे बढ़ता है। उसके हावभाव से लगता है, वह बहुत परेशान और क्षुब्ध है। पुरोहित की ओर देख उसकी ओर आगे बढ़ता है। पुरोहित झुककर प्रणाम करता है। दोनों में कुछ रहस्मय बातें होती हैं। देवधर कुछ रूपये देकर आगे निकल जाता है। हरिजन कुएँ पर खड़ा लौका यह सारा दृश्य देख रहा है।

इससे देवधर के बारे में कुछ सूचनाएँ मिल जाती है, जिनके बारे में बहुत कुछ उजागर हो जाता है। उसके विगत और वर्तमान का प्रभाव उसके जीवन और व्यक्तित्त्व पर क्या पड़ा और वह क्या बन गया ?

वह सामान्य स्थिति में न होकर असामान्य स्थिति में रहता है। उस पर बदलती हुई परिस्थिति का प्रभाव पड़ता है। शायद उसे कोई राजनीतिक संकट दिखाई दे रहा है। वह धन की शक्ति का उपयोग अपनी राजनीतिक शक्ति के लिए अवश्य करता है, इसे वह कहीं अनुचित नहीं मानता। धन के बल पर वह किसी को भी खरीद सकता है और इसी से राजनीतिक सुरक्षा बनी रहती है।

असुरक्षा की भावना

कुल मिलाकर इससे एक ऐसे व्यक्ति की तस्वीर उभरती है जो राजनीति का खिलाड़ी है। वह असुरक्षा की भावना से ग्रस्त रहता है। इसीलिए तरह-तरह के हथकंडे अपने आप को जमाने के लिए अपनाता है।

उधर देवधर के संकेत पर पुरोहित ने सत्यनारायण की कथा का शुभांरभ कर दिया और इधर नाटक का पहला संवाद देवधर बोलता है जो इस प्रकार है- हाँ तो किसने कहा, अब हमें देवधर बाबू की जरुरत नहीं है, देवधर बाबू को किसने बनाया ?

देवधर के इस संवाद ने यह स्पष्ट कर दिया कि देवधर परेशान और क्षुब्ध क्यों है उसे अपनी कुर्सी हिलती नजर आ गई। अवश्य ही लौका ने ऐसा कहा होगा- अब हमें देवधर बाबू की जरुरत नहीं है। हो सकता है, लौका के किसी समर्थक ने ऐसा कहा हो, इसलिए देवधर ने सत्यनारायण की कथा का आयोजन कराया जिससे लोग वहाँ आए तो उसके सामने स्थिति स्पष्ट की जा सके, आत्मप्रचार किया जा सके। यह भी स्पष्ट है कि इस अवसरवादी राजनेता ने धर्म को राजनीति के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया।

जब देवधर ने यह प्रश्न उछाला देवधर बाबू को किसने बनाया, तब उसका आशय यह रहा था कि अपने आप को जनता का प्रतिनिधि और अततः जनसेवक दिखा सके। इस स्थिति में जीतन, गपोले आदि देवधर के पक्षधर थे जिनके सहारे देवधर लौका को अपने पक्ष में लाने का प्रयत्न कर रहा था। इस काम के लिए उसने साम, दाम, दंड, भेद का भरपूर उपयोग किया, परन्तु कोई फायदा नहीं हुआ । कथा के अन्त में लौका ने अपने तर्कों के बल पर सत्यनारायण की कथा पर प्रश्न चिन्ह लगा दिए और रविवार को अपने घर पर सभी को आमंत्रित किया जहाँ सत्य नारायण की कथा सुनेंगें।

इससे देवधर को लगा कि बाजी तो देवधर के हाथ लगी। सो उसने बौखलाहट उतारी लौका पर, सारे अवर्णों पर। इतना ही नहीं, उसने अपने लोगों से कहा- "इन, इन गाँवों के ब्राह्मणों को भड़का दो चमार शूद्रों के खिलाफ, आग लगाने के लिए इतना काफी है।" 

विवेकहीनता

सो उसके इशारे पर कुछ गाँवों में आग लगा दी। गाँव वाले आग बुझाने के लिए सवर्णों के कुओं से पानी निकालने लगे। सवर्णों ने उनकी पिटाई की। किसी तरह आग बुझ गई। अतः देवधर की यह आदत है कि वह न चैन से बैठता है न बैठने देता है। वह कुछ न कुछ ऐसा अवश्य करता जिस पर दूसरों का ध्यान आकृष्ट हो और लोग उस ओर देखने के लिए विवश हो जाए। उसके दिमाग में जो आता है वह वहीं करता है। उसके पक्ष विपक्ष में सारे काम ऐसे होते हैं जिनके पीछे कोई विशेष तार्किक आधार नहीं होता, सही गलत का विवेक नहीं होता । बस, देवधर ऐसे लोगों में से हैं जो कुछ भी इधर से उधर कर देगा।

क्या इससे ऐसा नहीं लगता कि देवधर का चरित्र विशेष रूप से गढ़ा गया है जिसमें सिर्फ बुराईयाँ है। उसमें कोई अच्छाई है ही नहीं। ऐसा लगता है पत्थर है, मनुष्य नहीं है। वह भाव शून्य है। उसमें कहीं कोई कोमल भाव नहीं उठता। वह गाँव में आग लगवा देता है और बुझाने नहीं देता। वह आक्रोश हिंसा की भावनाओं से भरा हुआ है। लौका उसके लिए प्रतिद्वन्द्वी ही नहीं, उसका शत्रु और उसके विरुद्ध काम करने में उसे भरपूर आनन्द आता है, क्या इससे ऐसा नहीं लगता है कि नाटककार ने देवधर के चरित्र में अपने हिसाब से रंग भर दिये हैं और ऐसा करते समय उसने विवेक से काम नहीं लिया हो ?

इस नाटक के पहले दृश्य का पहला संवाद देवधर का ही है जो मंच पर सहसा पूछता है- "अरे वह सत्यनारायण की कथा कहाँ है ?" यानी देवधर से ही प्रस्तावना का पटाक्षेप हुआ था और उसके साथ ही पहला दृश्य खुल गया। यही पर अगला संवाद है- "बड़ा प्रपंची है लौका, गाँव वालों को मुर्ख बनाना जानता है। इस मूर्ख को अब मैं सबक सिखाऊंगा। यह गंवार देहाती मेरी जगह लेना चाहता है।” कितने आक्रोश से भरा हुआ है। कुछ देर बाद वह जीतन से कहता है-

"लौका को सत्य की परीक्षा में डालकर बर्बाद कर दो मैं तुम्हें मुहमांगा इनाम दूँगा।" एक ओर प्रतिद्वन्द्वी को बर्बाद करने की चाह, दूसरी ओर काम के लिए दाम प्रस्ताव । ये दोनों बुराइयाँ जमींदारी और राजनीति की देन हैं। अतः ये देवधर जैसे व्यक्ति में मिल सकती हैं। वह अपनी निजी सचिव पदमा को शैव्या की भूमिका निभाने के लिए कहता है- "देखो, मिस पदमा यह मेरा काम है। समझीं ? लौका मेरा सबसे बड़ा दुश्मन है। इसे अपने हुस्न की डोर में बाँध लो... . पर लौका बदनाम तो हो सकता है। जो इनाम कहोगी दूंगा।" 

लौका का प्रतिद्वन्द्वी

देवधर तीसरे दृश्य के शुरू में ही जीतन से कहता है- "कहाँ फंस गए इस नाटक में ? इससे तो अच्छा था, लौका सत्यनारायण की कथा कहता और यहाँ ब्राह्मणों और शूद्रों में मारपीट होती। लौका अब तक जेल में होता। गाँवों में आग लगकर बुझ गई।" कुछ देर के बाद वह फिर कहता है- " लौका को खत्म करने के अलावा भी मेरा कोई और काम है ?" 

बार-बार और अनेक बार यह तथ्य सामने आता है कि देवधर के मन-मस्तिष्क में कोई तूफान उठता ही रहता है। वह किसी का भला नहीं चाहता, वह किसी का सहयोग नहीं कर सकता है । वह लौका के विरुद्ध सदा विपरीत ही सोचता रहता है। वह लौका पर आरोप भी लगाता रहता है कि लौका ने उसे आग में धकेल दिया था। किसी तरह वह बच गया है। वह लौका को सदा तंग कर, गिराने का प्रयत्न करता रहता है, किन्तु उसकी सोच सफल नहीं हो पाती है। उसकी हर चाल असफल हो जाती है। उसे हर बार मुँह की खानी पड़ती है। वह कभी ऊँच-नीच के बीच दंगे भड़काना चाहता है कभी हिन्दू-मुसलमान के बीच दंगे भड़काना चाहता है। वह चाहता है कि लौका किसी दंगे में घिर जाए और उसका अस्तित्व समाप्त हो जाए। हाँ ! इतना अवश्य है कि उसके मन की बात कभी पूरी नहीं हुई।

विषम स्थितियाँ

देवधर के सामने उसके विचारों के ही समान विषम परिस्थितियाँ रहती हैं। एक बार गपोले ने कहा भी था, जिससे परिस्थितियों का स्पष्ट ज्ञान होता है, "देखों न! आप सोने को हाथ लगाते हो, मिट्टी क्यों हो जाती है ? आप बातें पक्की करते हों, पर कच्ची क्यों हो जाती है?” इसका आशय यही है कि अब परिस्थितियाँ बदल गई हैं, जो देवधर के अनुकूल है ही नहीं। इन्हीं विषम परिस्थितियों के कारण उसे हर बार असफल होना पड़ता है।

देवधर का स्वभाव ही उसकी असफलता का कारण बना हुआ है। गपोले की बात सुनकर वह आग बबूला हो जाता है और कह उठता है, "बदमाश! विश्वासघाती! मुझे यह पता नही था कि तुम लोग मेरी ही आस्तीन के साँप बन जाओगे, पर मुझे तुम जैसे लोगों की कोई चिन्ता नहीं । चिन्ता है केवल उस लौका की जिसके पास न धन है, न कोई साधन है, लोग उसके प्रभाव में क्यों हैं ?" उसकी यह जलन और उसका यह विषम विचार उसे सदा गिराता रहता है। 

देवधर के साथ जो व्यवहार पहले लोगों का था, वह नहीं रहा। सभी उसके विपरीत हो गए हैं। पहले सभी साथ देते थे। इसके बाद सामने केवल हाँ में हाँ मिलाने लगे थे। अब स्थिति ऐसी आ गई है कि लोग उसकी बात को सीधे काट देते हैं। लोग उसकी बात काट कर सच्चा तथ्य रख देते हैं। देवधर को लगता है कि वे उसकी ही बुराई कर रहे हैं।

देवधर के चरित्र की एक प्रमुख बात यह है कि वह जैसा सोचता है वैसा ही कह देता है। वह बाहर-भीतर समान ही है। उसे राजनीति भी नहीं आती है। वह यह भी नहीं सोचता कि ऐसा करने या कहने से लोग क्या सोचेंगे ? वह जमींदार था। इसलिए उसे शक्ति पर भी बहुत भरोसा रहता है। उसे यह भी पता है कि शक्ति से सब कुछ संभव है और शक्तिहीन होने पर असफलता ही मिलती है। इसी सोच के चलते देवधर जब-तब सफलता की कामना में शक्ति का प्रदर्शन भी करता है। 

देवधर में परीक्षण और चिंतन की दिशा सटीक नहीं है। वह यह भूल जाता है कि अब जमींदारी राज नहीं प्रजातंत्र है। ऐसे में प्रजा की ही बात चलती है। जनता जिसे अच्छा समझती है उसे सिर आँखों पर बैठाती है और जिसे नापसन्द करती है उसे पैरों तले कुचल देती है। लौका को उसके विचारों और कार्य से जनता आदर देती है किन्तु देवधर को वह स्थान नहीं मिलता है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि देवधर में अनुकूल शक्ति और गंभीर इच्छा है, किन्तु उसके व्यक्तित्त्व की निम्नताएँ उसे समाज में असफलता के मार्ग पर धकेल देती हैं।

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देवधर का चरित्र चित्रण - एक सत्य हरिश्चन्द्र
देवधर का चरित्र चित्रण - एक सत्य हरिश्चन्द्र: डॉ० लक्ष्मीनारायण लाल के नाटक 'एक सत्य हरिश्चन्द्र' में एक महत्त्वपूर्ण पात्र है- देवधर ! वह इस नाटक मे
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