छलना का चरित्र चित्रण - अजातशत्रु नाटक: छलना महाराज बिंबसार की छोटी रानी तथा अजातशत्रु की माता है। वह देवदत्त की बातों में आकर अपने पति को सिंहासन च्
छलना का चरित्र चित्रण - अजातशत्रु नाटक
छलना महाराज बिंबसार की छोटी रानी तथा अजातशत्रु की माता है। वह देवदत्त की बातों में आकर अपने पति को सिंहासन च्युत करके अपने पुत्र अजातशत्रु को राज्य सिंहासन सौंप देती है। नाटक के अंत में उसे अपनी भूल का अनुभव होता है, अतः वह स्त्री से अपने दुर्व्यवहार के प्रति क्षमा माँग लेती है। छलना के का चरित्र चित्रण की विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
हिंसा में विश्वास
नाटक के प्रथम अंक के प्रथम द श्य में अतातशत्रु लुब्धक को इसीलिए कोड़े मारना चाहता है क्योंकि वह आज किसी म गशावक को पकड़कर नहीं लाया। अजात की सौतेली बहन पद्मावती कोड़े को पकड़कर उसे करुणा का संदेश देती हुई कहती है कि- "मानवी सष्टि करुणा के लिए है, यों तो क्रूरता के निदर्शन पशु-जगत में क्या काम कम है?" यह सुनकर छलना अपने पुत्र अजात का पक्ष लेती हुई पद्मावती को डाँटती है-
'पदमावती! यह तुम्हारा अविचार है। कुणीक का ह्रदय छोटी-छोटी बातों में तोड़ देना, उसे डरा देना, उसकी मानसिक उन्नति में बाधा देना है।"
पद्मावती उसे समझाने का प्रयास भी करती है कि कुणीक मेरा भाई है इसलिए मैं उसे क्यों न समझाऊँ? किंतु छलना पद्मावती पर यह आरोप लगाती है-
"तो क्या तुम उसे बोदा और डरपोक बनाना चाहती हो? क्या निर्बल हाथों से भी कोई राजदंड ग्रहण कर सकता है।"
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"पद्मा! तू क्या इसकी मंगल कामना करती है? इसे अहिंसा सिखाती है, जो भिक्षुओं की भद्दी सीख है? जो राजा होगा, जिसे शासन करना होगा, उसे भिखमंगों का पाठ नहीं पढ़ाया जाता। राजा का परम धर्म न्याय है, वह दंड के आधार पर है। क्या तुम्हें नहीं मालूम कि वह भी हिंसात्मक है।"
इतना ही नहीं, वह अपनी सौत वासवी पर भी ऐसा दोष लगा देती है जो सर्वथा अवांछनीय है -
"तू कुटिलता की मूर्ति है। कुणीक को अयोग्य शासक बनाकर उसका राज्य आत्मकसात् करने के लिए कौशांबी से आयी है।"
निष्कर्षतः छलना का अहिंसा में विश्वास नहीं है। उसके विचार में राजा का परम धर्म न्याय है जो दंड के आधार पर टिका हुआ है। अतः वह हिंसा के आधार पर ही सर्वस्व अर्जित करना चाहती है।
सौतिया डाह
छलना का जीवन सौतिया डाह से ग्रस्त है। वह वासवी को एक पल भी अपनी आंखों के समक्ष नहीं देख सकती। वासवी अपने सौतेले पुत्र अजातशत्रु को अपनी संतान से भी ज्यादा चाहती है लेकिन फिर भी छलना वासवी के प्रति व्यंग्योक्ति कहने से नहीं चूकती-
"वह सीधी और तुम सीधी। आज से कभी कुणी तुम्हारे पास न जाने पावेगा और तुम भी यदि भलाई चाहो, तो प्रलोभन न देना ।"
उपवन में छलना वासवी और अपने पति बिंबसार के पास अपनी व्यंग्योक्तियों की बाण वर्षा करने के लिए पहुँचती है। वहाँ वासवी उसे सदव्यवहार करते हुए कहती है कि "बहिन छलना ! तुमको क्या हो गया है?" तो वह वासवी से अभद्रतापूर्वक कहती है-
"प्रमाद और क्या। अभी संतोष नहीं हुआ? इतना उपद्रव करा चुकी हो, और भी कुछ शेष है?
वह वासवी को नीचा दिखाने के लिए बताती है कि अजातशत्रु ने काशी पर अधिकार कर लिया है, यह सुनकर वासवी कहती है कि फिर तुम इतना घबराती क्यों हो उलाहना क्यों दे रही हो। इस पर छलना वासवी पर ही दोष लगाते हुए कहती है-
उलाहना क्यों न दूँ - जबकि तुमने जान-बूझकर यह विप्लव खड़ा किया है। क्या तुम इसे नहीं दबा सकती थी, क्योंकि वह तो तुम्हारे पिता से तुम्हें मिला हुआ प्रांत था।”
वह वासवी से कहती है कि मैं यह ताना सुनने नहीं आई कि आर्यपुत्र ने तुम्हारा अधिकार छीनकर मुझे दे दिया था बल्कि मैं तो "तुमको तुम्हारी असफलता सूचित करने आयी हूँ ।" वह आगे कहती है कि इस संदेश को अगर किसी सेवक के माध्यम से भेजती तो, "वह मेरी जगह तो नहीं हो सकता था और संदेश भी अच्छी तरह से नहीं कहता। वासवी के मुख से प्रत्येक सिकुड़न पर इस प्रकार लक्ष्य न रखता, न तो वासवी को इतना प्रसन्न ही कर सकता।" उसकी धूर्ततापूर्ण बातों को सुनकर अपने क्रोध को संयमित किये हुए बिंबसार उचित ही उसकी भर्त्सना करते हुए कहते हैं-
"सहन की भी सीमा होती है। अधम नारी चली जा । तुझे लज्जा नहीं बर्बर लिच्छवी रक्त।"
वस्तुतः छलना का सौत के रूप में अधम चेहरा पाठकों एवं दर्शकों के समक्षा बार-बार आता है। लेकिन नाटकांत में उसके इस रूप में भी परिवर्तन अवश्य आता है।
राजसी दंभ
छलना को राजमाता होने का बड़ा अभिमान है। वह आयु और पद में वासवी से छोटी है, किंतु अपने को राजमाता बताते हुए अभिमानपूर्वक कहती है-
"छोटी हूँ या बड़ी, किंतु राजमाता हूँ। अजातशत्रु को शिक्षा देने का मुझे अधिकार है। उसे राजा होना है। वह भिखमंगों का जो अकर्मण्य होकर दरिद्र हो गए हैं।"
इसी बात के लिए वह वासवी से झगड़ती है और फिर बिंबसार से भी इसी बात की शिकायत करती है-
"यही कि मैं छोटी हूँ इसलिए पटरानी नहीं हो सकती और वासवी मुझे इस बात पर अपदस्त किया चाहती है।"
बिंबसार भी उसे राजमाता की उत्तराधिकारी मानते हुए कहते हैं- "छलना? यह क्या! तुम तो राजमाता हो। देवी वासवी के लिए थोड़ा सम्मान रक्षित कर लेना तुम्हें विशेष लघु नहीं बना सकता उन्होंने कभी तुम्हारी अवहेलना भी तो नहीं की।" किंतु छलना टका-सा उत्तर देती हुई कहती है।"
"इन भुलावों में मैं नहीं आ सकती-महाराज! मेरी धमनियों में लिच्छवि-रक्त बड़ी शीघ्रता से दौड़ता है। यह नीरव अपमान, यह सांकेतिक घणा मुझे सह्य नहीं..।"
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि छलना में राजसी दंभ की प्रवत्ति प्रमुख रूप से उगार हुई है। इसी दंभ के कारण वह वासवी और बिंबसार का भी अपमान कर बैठती है।
अभद्र व्यवहार
आलोच्य नाटक के प्रथम दो अंकों में दूसरों के प्रति छलना का व्यवहार अभद्र ही दिखाई देता है। वह किसी के साथ भी सद् व्यवहार करती नजर नहीं आती। अजातशत्रु युद्ध में बंदी बना लिया जाता है तो छलना वासवी से कहती है- "अब तो तुम्हारा हृदय संतुष्ट हुआ?” वासवी उसे बताती है कि वह मेरा भी तो पुत्र था, लेकिन क्रोध में आकर वह छलना बहुत अपमान करती है-
"मीठे मुँह की डायन! अब तेरी बातों से मैं ठंडी नहीं होने की। ओह! इतना साहस, इतनी कूत-चातुरी! आज मैं उसी ह्रदय को निकाल लूँगी, जिसमें यह सब भरा था। वासवी - सावधान! मैं भूखी सिंहनी हो रही हूँ ।"
नाटक के प्रारम्भ में देवदत्त के पद चिह्नों पर चलने वाली वही छलना उसके साथ भी अभद्र व्यवहार करती है-
"धूर्त तेरी प्रवंचना से मैं इस दशा को प्राप्त हुई। पुत्र बंदी होकर विदेश को चला गया और पति को मैंने स्वयं बंदी बनाया। पाखंड तूने ही यह कुचक्र रचा है।"
राजशक्ति का घमंड ही छलना के व्यवहार के परिवर्तन का कारण है, इसीलिए वह सबकी अपशब्दों में भर्त्सना करती दिखाई देती है।
परिवर्तनशील व्यक्तित्व
आलोच्य नाटक के अंतिम भाग में छलना के चरित्र में परिवर्तन दिखाई देता है। वह अपने पूर्व के दुर्व्यवहार के लिए सभी पात्रों से क्षमा माँग लेती है। वह अपनी पुत्री पद्मावती से कहती है-
"बेटी! तुम बड़ी हो, मैं बुद्धि में तुमसे छोटी हूँ। मैंने तुम्हारा अनादर करके तुम्हें भी दुःख दिया और प्रांत पथ पर चलकर स्वयं भी दुःखी हुई। ... पद्मा! तुम और अजात सहोदर भाई-बहन हो, मैं तो सचमुच एक बवंडर हूँ। बहिन वासवी क्या मेरा अपराध क्षमा कर देंगी?"
इसी प्रकार वह अपने पति बिंबसार से भी उसके पैरों में गिरकर क्षमा माँगती है-
"नाथ! मुझे निश्चय हुआ कि वह मेरी उद्दंडता थी। वह मेरी कूट- चातुरी थी, दम्भ का प्रकोप था। नारी जीवन के स्वर्ग से मैं वंचित कर दी गयी। ईंट-पत्थर के महल रूपी बंदीगृह में मैं अपने को धन्य समझने लगी थी। दंडनायक, मेरे शासक! क्यों न उसी समय शील और विनय के नियम-भंग करने के अपराध में मुझे आपने दंड दिया! क्षमा करके, सहन करके, जो आपने इस परिणाम की यंत्रणा के गर्त में मुझे डाल दिया है, वह मैं भोग चुकी। अब उबारिये।"
इस प्रकार नाटक के अंत में छलना का सिंहनी वाला रूप बदलकर एक सामान्य स्त्री वाला रूप बन जाता है। उसका हृदय-परिवर्तित हो जाता है। उसके जीवन की निष्ठुरता, क्रोध, राजसी दंभ, अभद्र व्यवहार, उग्रता आदि जाती हैं। इस प्रकार प्रसाद जी ने छलना के माध्यम से यह संदेश संप्रेषित किया है कि मनुष्य जब भी चाहे द ढ़ निश्चय करके अपने जीवन को सुधार सकता है। 'सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते' छलना पर यह कहावत पूर्णतः चरितार्थ होती है।
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