बिम्बिसार का चरित्र चित्रण - अजातशत्रु नाटक में बिम्बिसार के दर्शन मगध के वृद्ध सम्राट के रूप में होते हैं। पुत्र द्वारा विद्रोह करके सिंहासन का कार्
बिम्बिसार का चरित्र चित्रण - Bimbisar ka Charitra Chitran
अजातशत्रु नाटक में बिम्बिसार के दर्शन मगध के वृद्ध सम्राट के रूप में होते हैं। पुत्र द्वारा विद्रोह करके सिंहासन का कार्य-भार स्वयं लेने पर बिम्बिसार तटस्थ रहकर वानप्रस्थ आश्रम को ग्रहण कर लेता है। नाटक का समापन उनकी मृत्यु से ही हुआ है। आलोच्य नाटक में प्रसाद जी ने उनके चरित्र-विकास को इतना अधिक विस्तार नहीं दिया है लेकिन फिर भी वह प्रस्तुत नाटक का एक प्रमुख पात्र है। बिम्बिसार के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
राज्याधिकार की लिप्सा
अजातशत्रु नाटक में बिंबसार का राज्य - सिंहासन के प्रति विशेष मोह दिखाई देता है। वह वृद्ध होने पर भी अपने पुत्र अजातशत्रु को राज्य सिंहासन नहीं सौंपना चाहता। उनकी रानी छलना अपने पुत्र को सिंहासन दिलवाने के लिए जी-तोड़ प्रयास करती है और इस विषय पर वासवी से भी झगड़ा कर बैठती है । गौतम बुद्ध के आने के कारण वार्तालाप रुक जाता है। छलना वहाँ से जाने की आज्ञा माँगती है तो बिंबसार व्यंग्यात्मक स्वर में कहता है- ‘“हाँ छलने! तुम जा सकती हो, किंतु कुणीक को न ले जाना क्योंकि तुम्हारा मार्ग टेढ़ा है। उनका यह कथन प्रकारान्तर में राज्य के प्रति मोह भाव व्यक्त करता है । गौतम बुद्ध पहले ही सचेत कर देता है कि तुम्हें इस समय राज-कार्य छोड़कर उचित व्यक्ति को दे देना चाहिए-
" यह बोझ, जहाँ तक शीघ्र हो, यदि एक अधिकारी व्यक्ति को सौंप दिया जाए, तो मानव को प्रसन्न ही होना चाहिये, क्योंकि राजन्, इससे कभी-न-कभी तुम हटाये जाओ; जैसा कि विश्व भर का नियम है। फिर, यदि तुम उसे उदारता से भोगकर छोड़ दो, तो इसमें क्या दुख ?"
लेकिन बिंबसार इसे छोड़ना नहीं चाहता, वह अपनी राज्य-सिंहासन संबंधी आसक्ति को प्रकट करते हुए कहता है-
"योग्यता होनी चाहिये महारा! यह बड़ा गुरूत्तर कार्य है। नवीन रक्त राजश्री को सदैव तलवार के दर्पण में देखना चाहता है।"
बिंबसार द्वारा इस प्रकार के तर्क देते हुए देखकर गौतम उनकी राज्य- लिप्सा की प्रवृत्ति को उजागर करते हुए कहता है-
"ठीक है। किंतु काम करने के लिए किसी ने भी आज तक विश्वस्त प्रमाण नहीं दिया कि वह कार्य के योग्य है। यह तुम्हारा बहाना राज्याधिकार की आकांक्षा प्रकट कर रहा है। राजन् समझ लो इस गृह-विवाद और आंतरिक झगड़े से विश्राम लो।"
बिंबसार गृह-कलह की चेतावनी से भयभीत होकर राज्यसिंहासन अजातशत्रु को सौंप देता है। सिंहासन को त्यागकर भी वह संतुष्ट नहीं है क्योंकि राज्याधिकार की लिप्सा उसे बार-बार सताती है। वासवी द्वारा यह प्रस्ताव रखने पर कि काशी का राज्य उसके पिता ने उसे दहेज में दिया था, अतः आप अपना सम्मान बचाने के लिए अपने पास रख सकते हैं। इस प्रस्ताव का बिंबसार विरोध नहीं करता, जिसके कारण प्रकारान्तर में युद्ध भी होता है। अर्थात् बिंबसार में सत्ता के प्रति मोह बना रहता है।
बौद्ध-धर्म का अनुयायी
प्रसाद जी ने 'अजातशत्रु' के विभिन्न उद्देश्यों में से एक उद्देश्य 'बौद्ध धर्म का प्रभाव' को प्रमुखता से स्थान दिया है। बिंबसार को भी इसी धर्म का अनुसरण करते हुए दिखाया है। वे गौतम के बहुत बड़े प्रशंसक हैं। जिस समय बिंबसार अपनी रानी छलना के झगड़े में उलझे हुए थे कि तभी कंचुकी आकर यह सूचना देती है कि भगवान गौतम बुद्ध आ रहे हैं तो वे छलना से कहते हैं-
‘छलना! ह्रदय का आवेग कम करो, महाश्रमणों के सामने दुर्बलता न प्रकट होने पावे।"
गौतम के आगमन करते ही बिंबसार उनसे विनयपूर्वक कहने लगे-
"भगवन, आपने पधारकर मुझे अनुगृहीत किया है।" तथा "करुणामूर्ती। हिंसा से रंगी हुई वसुंधरा आपके चरणों के स्पर्श से अवश्य ही स्वच्छ हो जाएगी। उसकी कलंक कालिमा धुल जाएगी। भगवान की शांतिवाणी की धारा-प्रलय की नरकाग्नि को भी बुझा देगी - मैं कृतार्थ हुआ।"
बिंबसार सिंहासन त्यागकर अपने पुत्र को राजगद्दी पर बिठाने के पक्षपाती नहीं थे लेकिन जब गौतम बुद्ध उन्हें यह परामर्श देते हैं कि-
"तुम आज ही अजातशत्रु को युवराज बना दो और इस भीषण भोग से कुछ विश्राम लो। "
यह आदेश सुनकर बिंबसार थोड़े से विरोध के बाद उसे स्वीकार कर लेते हैं और अजात को युवराज बनाकर स्वयं वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण कर लेते हैं। इसी प्रकार जब बिंबसार को यह पता चलता है कि देवदत्त उसे गौतम का प्रबल समर्थक समझकर उसके प्राणों का हरण करना चाहता है तो वह गौतम के संबंध में कहता है-
"मूर्खता नहीं नहीं, वह देवदत्त की क्षुद्रता है। भला आत्मबलया प्रतिभा किसी की प्रशंसा के बल से विश्व में खड़ी होती है? अपना अवलंब वह स्वयं है, इसमें मेरी इच्छा या अनिच्छा क्या? वह दिव्य ज्योति स्वतः सबकी आँखों को आकर्षित कर रही है । देवदत्त का विरोध केवल उसे विरोध दे सकेगा।"
इस प्रकार प्रसाद जी ने बिंबसार को सम्पूर्ण नाटक में गौतम के उपदेशों एवं शिक्षाओं का अनुपालन करते हुए दिखाया है।
दार्शनिक विचारधारा
आलोच्य नाटक में बिंबसार की विचारधारा को दार्शनिक चितन के रूप में अभिव्यक्ति मिली है। संपूर्ण जीवन जी लेने के बाद ही उसमें इस दार्शनिकता ने जन्म लिया है। प्रथम अंक के द्वितीय दृश्य में मानव-जीवन की क्षणभंगुरता पर प्रकाश डालते हुए कहते
हैं-
"आह, जीवन की क्षणभंगुरता देखकर भी मानव कितनी गहरी नींव देना चाहता है। आकाश के नीले पत्र पर उज्जवल अक्षरों से लिखे अद ष्ट के लेख जब धीरे-धीरे लुप्त होने लगते हैं, तभी तो मनुष्य प्रभात समझने लगता है, और जीवन संग्राम में प्रवत्त हो अनेक अकांडतांडव करता है। फिर भी प्रकति उसे अंधकार की गुफा में ले जाकर उसके शांतिमय-रहस्यपूर्ण भाग्य का चिट्ठा समझाने का प्रयत्न करती है, किंतु वह कब मानता है। मनुष्य व्यर्थ महत्व की आकांक्षा में मरता है; अपनी नीची, किंतु सुद ढ़ परिस्थिति से उसे संतोष नहीं होता; नीचे से ऊँचे चढ़ना ही चाहता है, चाहे फिर वह गिरे तो भी क्या ?"
वे प्रकृति और सामाजिक जीवन में आए बवंडरों के माध्यम से अपनी दार्शनिक विचारधारा को व्यक्त करते हुए कहते हैं-
"प्रत्येक संभावित घटना के मूल में यही बवंडर है। सच तो यह है कि विश्व भर में स्थान-स्थान पर वात्याचक है, जल में उसे भँवर कहते हैं, स्थल पर उसे बवंडर कहते हैं, राज्य
विप्लव, समाज में उच्छृंखलता और धर्म में पाप कहते हैं। चाहे इन्हें नियमों का अपवाद कहो, चाहे बवंडर-यही न?"
पिता की भूमिका में
ऐतिहासिक साक्ष्य के अनुसार बिंबसार को उसके पुत्र अजात ने कारागार में डाल दिया था। लेकिन नाटककार अजातशत्रु ने इस घटना में कुछ परिवर्तन करके प्रस्तुत किया है। नाटक के प्रथम अंक में बिंबसार और वासवी के वार्तालाप से स्पष्ट होता है कि वे अपने पुत्र के प्रति थोड़े से दुःखी अवश्य हैं लेकिन उसे कहते कुछ नहीं-
बिंबसार: देवि, तुम कुछ समझती हो कि मनुष्य के लिए एक पुत्र का होना क्यों इतना आवश्यक समझा गया है?
वासवी: नाथ! मैं तो समझती हूँ कि वात्सल्य नाम का जो पुनीत स्नेह है, उसी के पोषण के लिए।
बिंबसार: स्नेहमयी! वह भी हो सकता है, किंतु मेरे विचार में कोई और ही बात है।
वासवी: वह क्या, नाथ?
बिंबसार: संसारी को त्याग, तितिक्षा या विराग का पथिक होने के लिए पहला और सहज साधन है। पुत्र को समस्त अधिकार देकर वीतराग है। जाने से असंतोष नहीं होता, क्योंकि मनुष्य को अपनी ही आत्मा का भोग उसे समझता है ।
वासवी: मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आपको अधिकार से वंचित होने का दुःख
उपर्युक्त संवादों से स्पष्ट है कि महाराज बिंबसार अपने पुत्र के प्रति रुष्ट न होकर उनसे संतुष्ट ही है। लेकिन वे अजातशत्रु के व्यवहार से थोड़े-बहुत चिंतित अवश्य हैं।
महाराज बिंबसार और वासवी को अज्ञात अपनी निगरानी में रखता है, इसीलिए उसका अपने पुत्र के प्रति रुष्ट होना भी स्वाभाविक है। इसी कारण अजात को पुत्र रत्न की प्राप्ति होने पर वह अपने पिता से मिलने के लिए आता है तो बिंबसार कहता है- "कुणीक कौन! मेरा पुत्र या मगध का सम्राट अजातशत्रु ?" इसी प्रकार जब कुणीक अपने पिता के पैरों में गिरकर माफी मांगता है तो बिंबसार व्यंग्यमयी वाणी में कहता है-
"नहीं, नहीं, मगधराज अजातशत्रु को सिंहासन की मर्यादा नहीं भंग करनी चाहिये। मेरे दुर्बल चरण- आह, छोड़ दो।"
लेकिन अजातशत्रु अपने पिता से हृदय से माफी माँगता है। वह अपना पक्ष रखते हुए कहता
"नहीं पिता, पुत्र का यही सिंहासन है। आपने सोने का झूठा सिंहासन देकर मुझे इस सत्य-अधिकार से वंचित किया अबाध्य पुत्र को भी कौन क्षमा कर सकता है?"
अन्ततः बिंबसार अपने पुत्र को क्षमा कर देते हैं? जब संपूर्ण परिवार उसके पास इकट्ठा हो जाता है तो वे हर्षातिरेक के कारण स्वर्गवासी हो जाते हैं।
पति के रूप में
महाराज बिंबसार का बड़ी रानी वासवी के प्रति विशेष स्नेह है लेकिन छोटी रानी छलना के प्रति उसके हृदय में कटुता और वाणी में व्यंग्य है। यह व्यवहार-भिन्नता दोनों पत्नियों के व्यवहार में अन्तर के कारण है। उनकी बड़ी रानी अपने पति की सेवा करना ही अपने जीवन का उद्देश्य मानती है जबकि छलना उनसे झगड़ा करने पर तैयार रहती है। जब छलना बिंबसार से वासवी की शिकायत करती है कि वह उसे राजमाता के पद से अपदस्थ करना चाहती है, तो वे छलना को समझाते हुए कहते हैं-
"छलना! यह क्या! तुम तो राजमाता हो। देवी वासवी के लिए थोड़ा-सा भी सम्मान कर लेना तुम्हें विशेष लघु नहीं बना देगा - उन्होंने तुम्हारी कभी अवहेलना तो नहीं की।
X X X X X X
ठहरो! तुम्हारा यह अभियोग अन्यायपूर्ण है। क्या इसी कारण तो बेटी पद्मावती नहीं चली गयी? क्या इसी कारण तो कुणीक मेरी भी आज्ञा सुनने में आनाकानी नहीं करने लगा है? कैसा उत्पाद मचाना चाहती हो?"
एक अन्य स्थान पर छलना वासवी का अत्यधिक अपमान करती है, यह सब देखकर बिंबसार क्रोध में आकर छलना को चेतावनी देते हुए कहते हैं-
"छलना! मैंने राजदण्ड छोड़ दिया है; किन्तु मनुष्यता ने अभी मुझे नहीं परित्याग किया है। सहन की भी सीमा होती है। अधम नारी चली जा तुझे लज्जा नहीं बर्बर लिच्छिवि रक्त।"
नाटक के अन्त में वासवी के कहने पर वह छलना को माफ कर देता है- "मैं मनुष्य हूँ और इन मायाविनी स्त्रियों के हाथ का खिलौना हूँ... उठो वत्स अजात! ... उठो छलना, तुम भी।”
निष्कर्षतः कह सकते हैं कि बिंबसार छलना और वासवी द्वारा किए गए षडयंत्र को माफ कर देता है। ऐसी स्थिति में उनके जीवन में दार्शनिक विचारधारा का पनपना स्वाभाविक ही है। वस्तुतः उन्होंने अपने संपूर्ण कर्तव्यों को निष्ठापूर्वक निभाया है।
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