प्रिंसिपल का चरित्र चित्रण - वैद्यजी के दरबार में दरबारी प्रिंसिपल का राग एक चापलूसी नौकर का जैसा है। वे वैद्यजी के दरबार में रोज हाजिरी देते हैं। वे
राग दरबारी उपन्यास के पात्र प्रिंसिपल का चरित्र चित्रण कीजिए
प्रिंसिपल का चरित्र चित्रण - वैद्यजी के दरबार में दरबारी प्रिंसिपल का राग एक चापलूसी नौकर का जैसा है। वे वैद्यजी के दरबार में रोज हाजिरी देते हैं। वे दिन प्रतिदिन की घटनाओं का विवरण प्रदान करते हैं, सुझाव देते हैं और जैसा आदेश मिलता है, वैसा अक्षरश: पालन करते हैं । प्रिंसिपल किसी भी स्थिति में अपने विवेक से काम नहीं लेते। वैद्यजी जी हुजूरी करके वे ऊँचे दर्जे के चिड़िमार निकलते हैं। वैद्यजी का हाथ उन पर रहने से वे अपने अधीनस्थ कर्मचारियों, अध्यापकों का शोषण करते हैं। उनके प्रति दुर्व्यवहार करते हैं। उन्हें चैन से साँस लेने नहीं देते। प्रिंसिपल दुबले-पतले आदमी हैं, खाकी हाफ पैंट और कमीज पहनते हैं। हाथ में बेंत, पैरों में सैंडल वे जितना चुस्त और चालाक थे अपने को उससे अधिक चुस्त और चालाक समझते थे। शिवपालगंज के पास के रहने वाले थे।
दोहरी नीति : वे अध्यापकों के प्रति दोहरी नीति अपनाते हैं। जो उनकी बात मान लेता था, उसके प्रति वे क्षमासागर थे। जो उनकी गलत बात नहीं मानता था उसके प्रति कटुशब्द प्रयोग करते थे। कॉलेज के क्लर्क के साथ मिलकर कॉलेज के पैसों का गबन करते हैं, इसलिए उससे गहरी दोस्ती है। मास्टर मोतीराम उनके हुक्म का गुलाम हैं, इसलिए कक्षा छोड़कर चले जाने पर भी यह उनका दोष नहीं है। मालवीय जब मना करते हैं कि सातवीं कक्षा में नवीं कक्षा के लड़कों को लेकर पढ़ाने की असुविधा की ओर संकेत करते हैं तो प्रिंसिपल क्रोध प्रकट करते हुए कहते हैं- “ ज्यादा कानून न छाँटो। जब से तुम खन्ना के साथ उठने-बैठने लगे हो, तुम्हें हर काम में दिक्कत मालूम होती है।” फिर अधिक क्रोधित होने पर अवधी में बोल पड़ते हैं-"तौनु चुप्पै कैरिआउट करौ । समझ्यो कि नाहीं ?” खन्ना के दर्जे में छात्र सिनेमा पत्रिका पढ़ते हुए पाए जाते हैं तो वे उन्हें डिसिप्लिन बनाए रखने का आदेश देकर - व्यंग्य करते हैं- इसी तमीज से वाइस प्रिंसिपल रहें कीजिएगा।"
दो गुणों के अधिकारी : प्रिंसिपल साहब दो गुणों के लिए विख्यात थे। लेखक इस संबंध में उल्लेख करते हैं - “एक तो खर्च का फर्जी नक्शा बनाकर कॉलेज के लिए ज्यादा से ज्यादा सरकारी पैसा खींचने के लिए । दूसरे गुस्से की चरम दशा में स्थानीय अवधी बोली का इस्तेमाल करने के लिए । जब वे फर्जी नक्शा बनाते थे तो बड़े से बड़ा ऑडीटर भी उसमें कलम न लगा सकता था ; जब वे अवधी बोलने लगते थे तो बड़ा से बड़ा तर्कशास्त्री भी उनकी बात का जवाब न दे सकता था।”
प्रिंसिपल शिवपालगंज के हर काम में दखल देते हैं। हर कर्मचारी से संबंध रखते हैं। प्रिंसिपल साहब मलेरिया इंस्पेक्टर को साइकल पर आते हुए देखकर सिर्फ सलाम करके जाने देते हैं । क्योंकि वह बी.डी.ओ. का भांजा लगता था और कभी काम में आनेवाला था। जब वे पब्लिक हेल्थ के ए.डी.ओ. को साइकल पर आते हुए देखते हैं, उसे डाँटते हैं - नंदापुर में चेचक फैल रही है। जाकर टीके लगाओ। नहीं तो शिकायत हो जाएगी। कान पकड़कर निकाल दिए जाओगे। क्लर्क से कहते हैं - "बेटा को (ए.डी.ओ.) की झाड़ दिया जाये।”
खुशामदी टट्टू : प्रिंसिपल में अध्यापन और प्रशासनिक दक्षता का अभाव है। इसलिए वे कॉलेज के मैनेजर वैद्यजी के दरबार में रोज हाजिरी देते हैं और उनकी खुशामद करके अपने पद को सुरक्षित रखते हैं। यह उनकी मजबूरी थी। उनको अपनी चारों बहनों का विवाह करना था। वे जैसे - तैसे अपनी कुर्सी पर टिके रहने को अपना कुशल-मंगल समझते हैं। इसलिए छात्र रूप्पन बाबू जब उन पर व्यंग्य बाण छोड़ता है - "कॉलेज को तो आप हमेशा ही छोड़े रहते हैं। वह तो कॉलेज ही जो आपको नहीं छोड़ता।” यह सुनकर प्रिंसिपल निर्लज्जता पूर्वक हँसकर उत्तर देते हैं -“रुप्पन बाबू बात पक्की कहते हैं।” जब क्लर्क वैद्यजी को 'चाचा' संबोधन करता है तब प्रिंसिपल को अफसोस होता है कि वे उन्हें अपना बाप कह पाते। इसलिए उनका चेहरा उदास हो जाता है। प्रिंसिपल वैद्यजी का अनुगामी होने पर भी पक्के चिड़िमार हैं। वे अपने अधीनस्थ विरोधी अध्यापकों का शोषण करते हैं। खन्ना की जगह पर रंगनाथ को इतिहास का मास्टर बनाने की सलाह देते हैं, ताकि वे वैद्यजी के और अधिक करीब आ सकें।
अपने उत्तरदायित्व के प्रति लापरवाह : प्रिंसिपल अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह न करके कॉलेज को पैसे ऐंठने का साधन मान लेते हैं। शैक्षिक वातावरण नष्ट करके वहाँ गुटबंदी, गुंडागर्दी, गाली-गलौज बरखास्तगी, भयप्रदर्शन आदि की व्यवस्था करते हैं। शिक्षा विभाग के डिप्टी डाइरेक्टर की जाँच का बहाना बनाकर बैठक में षडयंत्र करके खन्ना और मालवीय से पहले तैयार त्यागपत्र में हस्ताक्षर करा लेते हैं। इस काम के लिए बद्री और छोटे पहलवान के कत्ले के जोर की सहायता भी लेते हैं। अध्यापकों पर 107 का मुकदमा चलाकर उनकी बेइज्जती करते हैं । वे अपने तथा वैद्यजी के रिश्तेदारों को नौकरी दिलाने का कपटपूर्ण कार्य करते हैं । दूने वेतन पर अध्यापकों के हस्ताक्षर करा लेते हैं । विरोधी अध्यापकों को संस्था से निकाल देते हैं। अध्यापकों को अनावश्यक डाँटकर उनकी कार्यकुशलता में बाधा डालते हैं। कॉलेज में मजदूरों के काम में दिलचस्पी लेने से वे प्रिंसिपल कम और ठेकेदार अधिक लगते हैं। सनीचर वैद्यजी के साथ भांग पीकर अपने पद की गरिमा को नष्ट करते हैं। वे जिला विद्यालय निरीक्षक के घर पर जाकर घी की रिश्वत देते हैं। वे इतने तिकड़मी हैं कि त्यागपत्र लेने के बाद खन्ना से कहते हैं-" आओ मास्टर साहब, हम लोग उधर चलें। हमारा झगड़ा खतम हुआ। आज से हम लोग फिर दोस्त हो गए।"
वास्तव में ऐसे व्यक्ति शिक्षा संस्थानों में प्रमुख बनकर शिक्षा-व्यवस्था को तहस-नहस कर देते हैं। राष्ट्र में अराजकता फैलाने का पूरा-पूरा बंदोबस्त कर देते हैं। ये कलंक है।
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