नशा कहानी का कथानक :- नशा कहानी में लेखक का चिन्तक एवं विचारक सजग है। यही कारण है कि कहानी का ताना-बाना सुनियोजित एवं सुगठित लगता है। नशा कहानी का कथा
नशा कहानी का कथानक
नशा कहानी का कथानक :- नशा कहानी में लेखक का चिन्तक एवं विचारक सजग है। यही कारण है कि कहानी का ताना-बाना सुनियोजित एवं सुगठित लगता है। नशा कहानी का कथानक वस्तुतः ईश्वरी एवं बीर, दो मित्रों के वैचारिक टकराव से शुरू होती है तथा अन्त तक पहुंचते-पहुंचते मोहभंग को प्रदर्शित करती है। जमींदार का बेटा ईश्वरी तथा एक गरीब क्लर्क का पुत्र बीर। दोनों प्रयाग में पढ़ते हैं। दोनों में खूब छनती है। सुख-सुविधा एवं संपन्नता में पला ईश्वरी तर्क करता है कि समाज की पांचों उंगलियां कभी एक समान नहीं हो सकतीं। अमीर और गरीब का भेद सदा बना रहा है तथा बना रहेगा। बीर जमींदारों को शोषक कहकर उनकी तुलना जोंक से करता है, जो परजीवी बनी रहती है।
दशहरे की छुट्टियों में बीर ईश्वरी के आमंत्रण पर उसके साथ गांव चला गया। अपने घर जाने के लिए उसके पास पैसे नहीं थे। ईश्वरी ने उसे समझाया कि वह उसके घर जाकर जमींदारी की निंदा न करे। वे दोनों सेकण्ड क्लास रेलगाड़ी में गये। मुरादाबाद पहुंचे तो स्टेशन पर रियासत अली और रामहरख ईश्वरी के स्वागत के लिए खड़े थे। साथ पांच बेगार भी आए थे। ईश्वरी मित्र का परिचय एक रईस पुत्र के रूप में करवाता है और सादगी का कारण इस प्रकार बताता है। "महात्मा गांधी के भक्त हैं साहब। खद्दर के सिवा कुछ पहनते ही नहीं। पुराने सारे कपड़े जला डाले। यों कहो कि राजा हैं। ढाई लाख सालाना की रियासत है, पर आपकी सूरत देखो तो मालूम होता है, अभी अनाथालय से पकड़कर आये हैं। वह अपने मित्र की गरीबी पर लीपापोती करके उसे बड़ा दिखाता है। पहले तो बीर को यह सब सुनने में संकोच होता है परन्तु उसके घर पहुंचकर वह ईश्वरी जैसा ही व्यवहार करने लगता है। कहार ईश्वरी के पांव धोता है, तो वह भी अपने पांव आगे कर देता है। इसी प्रकार कुंवर मेहमान अपने हाथ से बिस्तर कैसे बिछाए। ईश्वरी अपनी माता से बात कर रहा था दूसरे कमरे में। रात के दस बजे नौकर का बिस्तर लगाने की सुधि आई। बीर तो रईसों की तरह बिफर पड़ा।
एक और घटना का जिक्र है। बीर लैम्प भी खुद क्यों जलाए, यह तो बड़े लोगों को अच्छा नहीं लगता। उसने रियासत अली को फटकार लगा दी और कहा "तुम लोगों को इतनी भी फिक्र नहीं कि लैम्प तो जला दो। मालूम नहीं यहां कामचोर आदमियों का कैसे गुजर होता है। मेरे यहां घंटे भर निर्वाह न हो।" वस्तुतः वह पराए रईसी ठाठ-बाट की चकाचौंध में नशे में तैरने लगा था।
महात्मा गांधी के परम भक्त ठाकुर से भी वह झूठ बोलता है और उसे भविष्य में ड्राइवरी सिखाकर अपने पास रखने की डींग मारता है। इसी प्रसंग में दोनों सुराज की बात भी करते हैं। ठाकुर पूछता है - "लोग कहते हैं यहां सुराज हो जायेगा तो जमींदार नहीं रहेंगे।"
बीर अपनी पुरानी धुन में फूट पड़ा 'जमींदारों के रहने की जरूरत ही क्या है, यह लोग गरीबों का खून चूसने के सिवा और क्या करते हैं?"
बीर की शरण मिलने का आश्वासन पाकर ठाकुर तरंग में आ गया। भंग पीकर उसने अपनी पत्नी को पीटा तथा महाजन से लड़ने को भी तैयार हो गया।
छुट्टियां समाप्त हो गईं। रेलयात्रा के लिए वापसी का टिकट तो था परन्तु भीड़ बहुत होने के कारण उन्हें तीसरे दर्जे के डिब्बे में ही चढ़ना पड़ा। बुरा हाल था। बीर को फंसे फंसे जाना अब अखर रहा था। वह दरवाजे के पास खड़ी एक सवारी से भिड़ गया और उसे तमाचे जड़ दिये। सवारी घबराई लेकिन दूसरे लोगों ने बीर को दबोच लिया और धुनाई कर दी। उसका सारा नशा काफूर हो गया। ईश्वरी ने भी उसको अंग्रेजी में इडियट कहकर दुत्कारा।
अब तक सत्ता के नशे पर सवार आसमान में उड़ रहा बीर एकाएक पृथ्वी पर आ गिरा... उसे अपनी औकात का भान हो गया था।
कथानक एकदम सुविचारित एवं संगठित है तथा व्यवहार में परिवेशगत परिवर्तन के थपेड़े खाकर आगे बढ़ता है।
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