खोई हुई दिशाएं कहानी की मूल संवेदना - Khoi Hui Dishayen Kahani ki Mool Samvedna- खोई हुई दिशाएं कमलेश्वर द्वारा रचित दूसरे दौर की कहानी है। इसकी रचना
खोई हुई दिशाएं कहानी की मूल संवेदना
खोई हुई दिशाएं कमलेश्वर द्वारा रचित दूसरे दौर की कहानी है। इसकी रचना कथाकार ने इलाहाबाद से दिल्ली आने पर सन् 1959-60 में की। इस कहानी की मूल संवेदना अकेलेपन की पीड़ा और पहचान की समस्या है। इस पूरी कहानी में चन्दर अपनी पहचान पाने के लिए तड़पता रहता है। रचनाकार ने बड़े शहरों में कस्बे से आने वाले आम आदमी की स्थिति को चित्रित किया है कि उसे वहां पर कोई नहीं पहचानता है और मनुष्यों की भीड़ में भी वह अकेला है।
खोई हुई दिशाएं कहानी की मूल संवेदना के निम्नलिखित बिन्दुओं को स्पष्ट किया जा रहा है-
पहचान खोने की विवशता का वर्णन
पहचान की मांग हर व्यक्ति की जीवित रहने का कारण है। व्यक्ति की यह मानसिक भूख भी है। रचनाकार व्यक्ति की पहचान की पीड़ा को बड़े ही सटीक ढंग से वर्णित किया है। बड़े शहरों में एक कस्बे से आने वाला व्यक्ति अपनी पहचान के लिए भटक रहा है पर हर स्थान पर पसरा हुआ परायापन उसे त्रस्त करता है।
कहानी का नायक चंदर इलाहाबाद से दिल्ली आया है उसे तीन बरस हो गये हैं इस शहर में आए हुए। वह कस्बों की संस्कृति में पला बढ़ा है। इसलिए वह परिचित आँखों की तलाश में है। बस स्टैण्ड, पार्क चौराहे, कैफे सड़क पर जहां तक कि अपने घर में वह अपनी पहचान को महत्व देता है। दिल्ली की सड़कों पर घूम कर जब वह कैफे में आता है एक अजनबी द्वारा पुकारे जाने पर एक पल के लिए उसे पहचान की आशा होती है परन्तु दूसरे ही पल टूट जाती है जैसे कि प्रस्तुत शब्दों से स्पष्ट है- "अपने साथ बैठे हुए अनजान दोस्त की तरफ गहरी नज़रों से देखता है और सोचता है, अजनबी ही सही, पर इसने पहचाना तो । इतनी पहचान भी बड़ा सहारा देती है... चन्दर को अपनी तरफ देखते हुए देख वह साथवाला दोस्त कुछ कहने को होता है, पर जैसे उसे कुछ याद नहीं आता, फिर अपने को संभालकर उसने चन्दर से पूछा, आप... आप तो कामर्स मिनिस्ट्री में हैं, मुझे याद पड़ता है कि ... कहते हुए वह रूक जाता है। चन्दर का पूरा शरीर झनझना उठता है और एक घूंट में बची हुई पीकर वह बड़े संयत स्वर में जवाब देता है, नहीं, मैं कॉमर्स मिनिस्ट्री में कभी नहीं था...।"
चन्दर वहां से दुःखी होकर चला जाता है तो रिक्शे वाले द्वारा पहचान भरी नज़रों से देखने पर उसकी आशा फिर से बंध जाती है कि शुक्र है कि कोई तो जानता है और अगले ही पल जब रिक्शे वाला अधिक पैसे की मांग करता है तो उसकी उम्मीद चकना चूर हो जाती है वहां से निराश होकर चन्दर अपनी प्रेमिका इन्द्रा का स्मरण करता है जो अब दिल्ली में रहती है। वह सोचता है कि वह तो मुझे जानती है परन्तु चाय देते समय इन्द्रा उससे पूछती है कि कितने चम्मच चीनी डालूं तो वह भी उसे अजनबी लगती है जैसे कि कहानी के प्रस्तुत शब्दों से पता चलता है- "और एक झटके से सब कुछ बिखर गया । उसका गला सूखने - सा लगा और शरीर फिर थकान से भारी हो गया। माथे पर पसीना आ गया। फिर भी उसने पहचान का रिश्ता जोड़ने की एक नाकाम कोशिश की और बोला, "दो चम्मच" और उसे लगा कि अभी इन्द्रा को सब कुछ याद आ जाएगा और वह कहेगी कि दो चम्मच चीनी से अब गला खराब नहीं होता?"
पर ऐसा कुछ नहीं होता। वह वहाँ से भी भाग जाता है। इसी प्रकार डाकखाना, बैंक तथा अन्य किसी भी सार्वजनिक स्थानों पर लोग तो मिलते हैं पर उनका व्यवहार कृत्रिम और यंत्रवत है उसे कहीं भी इलाहाबाद के समान पहचान की सुगन्ध नहीं आती है। वह केवल अपनत्व पाना चाहता है। वह अपनापन जो लोगों से, सड़कों से और वातावरण से मिलता है जिससे व्यक्ति की पहचान बनती है पर दिल्ली में कोई भी तो ऐसा नहीं है। सभी एक दूसरे को जाने-पहचाने बिना अपने-अपने कार्य में व्यस्त हैं। पूरी कहानी में चन्दर दिल्ली जैसे शहर में अपनी पहचान पाने के लिए छटपटाता है और अंततः इतना बेचैन हो जाता है कि वह अपनी पत्नी से भी यही प्रश्न पूछता है "मुझे पहचानती हो निर्मला?" और उसकी आँखें उसके चेहरे पर पहचान ढूंढती रह जाती हैं।
अकेलेपन की पीड़ा का वर्णन
शहरी संस्कृति ने हमें अकेलेपन का तोहफा दिया है। शहर में व्यक्ति भीड़ में भी अकेला है । वह यहां कहीं भी जाता है अपने आप को अकेला ही पाता है। कहानी का नायक चन्दर अकेलेपन की पीड़ा से संत्रस्त है। वह बस स्टॉप पर भीड़ में खड़ा है वहां सब एक दूसरे की तरफ अजनबी निगाहों से देख रहे हैं। समय और बस के संबंध में एक दूसरे से पूछने की हिम्मत नहीं होती है कहानी के प्रस्तुत शब्दों से पता चलता है- " रीगल बस स्टॉप के नीम के पेड़ों से धीरे-धीरे पत्तियां झड़ रही हैं। बसें जूं - जूं करती आती हैं- एक क्षण ठिठकती हैं- एक ओर से सवारियों को उगलती हैं और दूसरी से निगलकर आगे बढ़ जाती है। चौराहे पर बत्तियां लगी हैं। बत्तियों की आंखें लाल-पीली हो रही हैं। आस-पास से सैंकड़ों लोग गुज़रते हैं पर कोई उसे नहीं पहचानता। हर आदमी या औरत लापरवाही से दूसरों को नकारता या झूठे दर्प डूबा हुआ गुजर जाता है।"
वह पार्क में जाता है वहां पर बैंच लगे हैं, लोग बैठे हैं, बच्चे खेल रहे हैं, सभी अपने आप में मस्त हैं कोई किसी की तरफ ध्यान नहीं दे रहा है चन्दर वहां पार्क में भी अकेलेपन को अनुभव करता है उसके प्रस्तुत शब्दों से स्पष्ट है, "तनहा खड़े पेड़ों और उसके नीचे सिमटते अंधेरे में अजीब-सा खालीपन है।" इस प्रकार कस्बे से आया चन्दर हर दिशा में मन की छटपटाहट को लेकर घूम रहा है। अपनेपन से दूर होकर उसे अपना जीवन निरर्थक लगने लगता है। संपूर्ण कहानी में अकेलेपन की अनुभूति ही प्रखर है और यह अकेलापन चन्दर को कहीं भी टिकने नहीं देता । एक स्थान से दूसरे स्थान पर बिना रुके भागता जाता है। दिनभर के सारे अनुभवों के कटु सत्य का सामना करते हुए बेहद अकेलेपन के एहसास को लेकर घर आता है तो घर की वस्तुओं और पत्नी के बीच अपने को पाकर उसे लगता है कि "वह अकेला नहीं हैं। अजनबी और तनहा नहीं है। सामने वाला गुलदस्ता उसका अपना है पड़े हुए कपड़े उसके अपने हैं, उनकी सुगंध वह पहचानता है।" और फिर शारीरिक सुख की प्राप्ति के बाद फिर वह पत्नी के होते हुए भी अपने आप को अकेला पाता है वह जिस अपनेपन को पत्नी में ढूंढता है वह उसे पत्नी में नहीं मिलता है "और चन्दर फिर अपने को बेहद अकेला महसूस करता है, कमरे की खामोशी और सूनेपन से उसे डर लगता है। वह निर्मला के कन्धे पर हाथ रखता है, चाहता है कि उसकी करवट बदल दे, पर उसकी अंगुलियां बेजान होकर रह जाती है।" और बार-बार के स्पर्श से भी जब निर्मला जागती नहीं तब अचानक उसे लगता है कि शायद निर्मला भी उसे पहचानती न हो। “चन्दर सुन्न सा रह जाता है... क्या वह उसके स्पर्श को नहीं पहचानती है?” इस प्रकार अकेलेपन की त्रासदायक स्थितियों का वर्णन हुआ है जिनमें से गुज़रते हुए चन्दर भयभीत सा रहता है।
कस्बे और शहरी जीवन का अंतर स्पष्ट करना
ग्रामीण कस्बों में अपनेपन के भाव मिलते हैं और वही राजधानी में सभी एक दूसरे से अजनबियों की तरह व्यवहार करते हैं। ग्रामीण कस्बों में दूर-दूर तक व्यक्ति की पहचान होती है और राजधानी में व्यक्ति की पहचान उसके घर के आगे लगी नंबर प्लेट से होती है।
रचनाकार ने इस कहानी के द्वारा ग्रामीण कस्बों और राजधानी के अंतर को स्पष्ट किया है। चन्दर राजधानी में रहते हुए तालमेल नहीं बना पाता है वह वहां के वातावरण एवं लोगों से परिचय बनाना चाहता है परन्तु कस्बे में मिलने वाला अनजान भी पहचान बढ़ाकर ही आगे निकलते हैं जबकि शहरों में पहचानने वाला व्यक्ति भी समय न होने पर आँखें बचाकर निकल जाता है। बात-बात पर चन्दर को अपना शहर याद आता है। कथाकार ने ग्रामीण और शहरी वातावरण के अंतर को निम्नलिखित में स्पष्ट किया है- "और तब उसे अपना वह शहर याद आता है, जहां से तीन साल पहले वह चला आया था - गंगा के सुनसान किनारे पर भी अगर कोई अनजान मिल जाता तो नज़रों में पहचान की एक झलक तैर जाती थी और यह राजधानी! जहां सब अपना है, अपने देश का है... पर कुछ भी अपना नहीं है, अपने देश का नहीं है तमाम सड़के हैं जिन पर वह जा सकता है, लेकिन वे सड़कें कहीं नहीं पहुंचाती। उन सड़कों के किनारे घर हैं, बस्तियां हैं, पर किसी भी घर में वह नहीं जा सकता। उन घरों के बाहर फाटक हैं, जिन पर कुत्तों से सावधान रहने की चेतावनी है, फूल तोड़ने की मनाही है और घण्टी बजाकर इंतज़ार करने की मज़बूरी है।" लेखक ने यह भी स्पष्ट करना चाहा है कि गांवों और कस्बों में हर स्थान पर अपनापन होता है प्रत्येक व्यक्ति परिचित न होते हुए भी परिचय का संकेत देता है परन्तु शहरों में परिचित भी अपरिचित हो जाता है। शहरों ने मनुष्य के स्नेह और अपनत्व को समाप्त कर दिया है।
इस प्रकार 'खोई हुई दिशाएं' कहानी में कस्बे से आए संवेदनशील युवक चन्दर के मन की छटपटाहट को शब्दबद्ध किया गया है। शहरों में बढ़ती हुई संवेदनहीनता के कारण वह स्वयं को कटा हुआ पाता है और उसे सब कुछ निरर्थक लगने लगता है। पूरी कहानी एक संतप्त मनःस्थिति को लेकर चलती है जिसमें अकेलेपन की अनुभूति ही प्रमुख है। अपने दूसरे दौर की कहानियों के संबंध में कमलेश्वर ने लिखा है- "व्यक्ति के दारूण और विसंगत संदर्भों को समय के परिप्रेक्ष्य में समझने का' प्रयत्न इस दौर में हुआ है और चन्दर के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को उसके दारूण और विसंगत संदर्भों में पहचानने का प्रयास है जिसमें कथाकार को पूर्ण सफलता मिली है।
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