बुद्धपथ कहानी की मूल संवेदना - 'बुद्धपथ' कहानी मनुष्य के बर्बर व्यवहार को उद्घाटित करती है। महात्मा बुद्ध द्वारा जो रास्ता मनुष्य को दिखाया गया, वह उस
बुद्धपथ कहानी की मूल संवेदना - Buddhapath Kahani ki Mool Samvedna
बुद्धपथ कहानी की मूल संवेदना - 'बुद्धपथ' कहानी मनुष्य के बर्बर व्यवहार को उद्घाटित करती है। महात्मा बुद्ध द्वारा जो रास्ता मनुष्य को दिखाया गया, वह उस पर न चलते हुए युद्धपथ पर चल रहा है। चाहे हिन्दु हो, चाहे मुसलमान या चाहे बौद्ध भिक्षु, मन्दिर बनाने की होड़ में अमानुषिक व्यवहार करने में कोई भी पीछे नहीं हट रहा है। प्रस्तुत कहानी के माध्यम से संजीव वर्तमान समय के बर्बर वातावरण को दिखाता है। कहानी स्पष्ट करती है कि किस तरह व्यक्ति प्रेम की भाषा न बोलकर वाक से आग के गोले बरसाता है। यह वही बुद्ध का देश है जिसने कहा था कि अपने मुँह से कोई ऐसा शब्द न निकालो जिससे किसी को आघात पहुंचे। कभी भी झूठी वाणी का प्रयोग न किया जाए। कभी भी ऐसा कर्म न किया जाए जिससे किसी को हानि पहुंचे। कभी कोई ऐसा व्यापार ना किया जाए जिससे किसी दूसरे को ठेस पहुँचे। लेकिन बुद्ध के जीवन के सिद्धान्त वर्तमान समय में फीके पड़ चुके हैं। बुद्ध ने मन्दिरों से कभी प्यार नहीं किया। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को मन की यात्रा करने का उपदेश दिया। वह कभी भी ईश्वर को मन्दिर में स्थापित करने के पक्ष में नहीं थे। 'बुद्धपथ' कहानी इस बात का प्रमाण है कि महात्मा बुद्ध ने जिस रास्ते पर चलने के उपदेश समाज को दिए, उस रास्ते पर कोई नहीं चल रहा है। जिस महात्मा ने मन्दिर की तरफ रुख नहीं किया मनुष्य उसी का मन्दिर बनाने का सपना संजोकर बैठा है। शीलभद्र का असली नाम 'ने- यैन' था। बरसों पहले बर्मा से प्रभु बुद्ध की धरती की तीर्थयात्रा की लालसा उसे भारत में खींच लाई थी। शीलभद्र के वृद्ध गुरुं दीपंकर जाते-जाते उसे 'ने-येन' से शीलभद्र बनाकर इस मन्दिर और विहार की महन्ती, दूसरी इस विहार के नाम पर दान दी हुई ज़मीन और दान राशि की जानकारी दे गए थे। मूलतः इस दौर में ज़मीदारी प्रथा टूट रही थी इसलिए अपनी ज़मीन और आय बचाने के लिए विहार के नाम दान राशियां आरम्भ हो गई थी, लेकिन इस बौद्ध विहार को गुरु दीपंकर को इस चोर दरवाज़े के रहस्य का कभी पता न चला और न ही उसके शिष्य शीलभद्र को कभी अवगत हो पाया। शान्ति का प्रतिनिधित्व करने वाले बौद्ध विहारों को भी संवेदनहीन मनुष्य ने भ्रष्ट करने में कोई परहेज़ नहीं किया। जिस भ्रष्ट व्यवहार को नकारा। उसी देश में यह भ्रष्टता अधिक बलबती गई। कहानीकार संजीव पाठक का ध्यान तो तथाकथित प्रधानमंत्री की ओर ले जाना चाहते हैं जिनके सरंक्षण में पहला परमाणु परीक्षण राजस्थान क्षेत्र में 1974 में किया गया था इससे लोगों को काफी नुकसान पहुंचा था और भारत ने इसे शांतिपूर्ण कार्यक्रम के रूप में दुनिया के सामने रखा था और कहा था “आज बुद्ध मुस्कुराए होंगे।"
आलोच्य कहानी ने मनुष्य की बढ़ती संवेदनहीनता को रेखांकित किया है। दुनिया भर में भारत बुद्ध को देश के रूप में जाना जाता है। बुद्ध का देश कहलाने का अर्थ है - भारत शान्ति का प्रतीक है। प्रेम का सागर इसी भारत देश में विराजमान है। लेकिन अब भारत प्रेम का सागर है की धारणा फीकी पड़ती नज़र आ रही है निरन्तर बढ़ते अमानवीय व्यवहार इस बात का प्रमाण है। कहानी में गुजरात के दंगों के प्रसंग और राम मन्दिर से सम्बन्धित दंगों के प्रसंग इस बात के द्योतक हैं कि यहां ईश्वर के नाम पर लड़ा जा रहा है, एक-दूसरे को मारा जा रहा है, औरतों के साथ दुर्व्यवहार किया जा रहा है बुद्ध का देश धीरे-धीरे युद्ध का क्षेत्र बनता जा रहा है स्वयं को श्रेष्ठ स्थापित करने की होड़ ने मानवीयता का चेहरा काला कर दिया है - "शहर फिर से दंगे की चपेट में था। हुंकारती भीड़, पुलिस की गाड़ियाँ, मारकाट और भागम-भाग।... यह सब क्या है ? .. इतने दिन से मार-काट मची है और आप आज पूछने चले हैं ? युद्ध पथ माने लड़ाई का रास्ता। एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों से युद्ध कर रहे हैं"। आचार्य शीलभद्र एक ऐसा बौद्ध भिक्षु है जिसे दुनिया से कोई लेना-देना नहीं है, वह बल्कि अपने सपने को पूरा करने में संलग्न रहता है और बड़ी बात यह है कि वह करता कुछ नहीं है केवल सोचता है कि बौद्ध विहार बनाना है और मन्दिर बनाना है। इसलिए उसे मालूम ही नहीं कि शहर में दंगा मन्दिर की वजह से ही हो रहा है। शीलभद्र अपने शिष्य से जब पूछता है कि यह मारकाट कब समाप्त होगी तो राहुल दुनिया के स्वार्थी व्यवहार को व्यक्त करता हुआ कहता है – “सो तो भगवान ही जाने ! यहां तो एक धर्म दूसरे धर्म के विरुद्ध, एक देश दूसरे देश के विरुद्ध, एक प्रान्त दूसरे प्रान्त के विरुद्ध, एक जाति दूसरी जाति के विरुद्ध, धनी गरीब के विरुद्ध, गरीब धनी के विरुद्ध, सभी अभी युद्ध पथ पर ही है।” राहुल के शब्दों से स्पष्ट झलकता है कि केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया ही युद्ध के पथ पर चल रही है और इस युद्ध का अन्त होने की सम्भावना दिखाई नहीं देती है।
दंगे के दौरान शान्त रहने वाला शीलभद्र भी मनुष्य की बर्बरता का शिकार हो जाता है। वह हमेशा बौद्ध विहार में रहने वाला भिक्षु है, वह किसी की बात में हस्तक्षेप नहीं करता है। शहर में कर्फ्यू की ढील पड़ते ही वह अपने बौद्ध विहार की जमीन के मसले से मुख्यमन्त्री के पास जाने के लिए निकलता है लेकिन रास्ते में दंगाइयों के हाथों का शिकार हो जाता है। वह लाख कोशिश के बावजूद उनसे बच नहीं पाता है। मन्दिर के नाम पर हिन्दू-मुस्लिम के बीच बौद्ध भिक्षु पिट जाता है - "भाग रहा है। स्पाई है, मार साले को। हम बौद्ध भिक्षु है बेटा ! ... खींचो - खींचो लुंगी खींचों, देखो यह कौन है ! किसी ने कपड़े खींचे, चीरफाड़ डाले गए। वह सब जैसे कुत्तों का हुजूम था। जो कुछ हुआ वह इतना असहनीय था कि उन्हें गश आ गया और वे गिर पड़े।" धर्म के नाम पर बौद्ध भिक्षु के साथ अमानवीय व्यवहार किया गया। सभ्यता के नाम पर असभ्यता स्थापित होती जा रही है। धर्म के नाम पर अधर्म का बोलबाला होता जा है। भारतीय संस्कृति को धर्म के नाम पर दूषित किये जाने की परम्परा आरम्भ हो चुकी है।
कहानीकार ने गुजरात दंगे के दौरान फैलती अमानवीयता के चित्र भी कहानी में उकेरे हैं। शीलभद्र का शिष्य राहुल गुजरात दंगे की बर्बरता को व्यक्त करता हुआ है कि वहां गर्भवती महिला को भी नहीं छोड़ा जा रहा है। राहुल की सूचना भर से शीलभद्र का पता लेने आए सभी लोग मर्मान्तक होते हैं। कहानी का उदाहरण द्रष्टव्य है- "फूले पेट वाली वह और मुड़कर पीछे ताकती है कि धकेल दी जाती है। सामने उसका अपना ही घर जल रहा है। माँ कानों का कंपा देने वाली मर्मान्तक चीखें ! गर्भ पर प्रहार और कटहल के कोए की तरह से पेट से शिशु को निकालकर आग में झोंका जाना। बन्द होती धड़कनों और डूबती नब्जों में उस माँ ने पुकारा होगा अपनी माँ को। आचार्य को लगा, ऐसी ही एक चीख और निकली होगी आग के हवाले किए जा रहे गर्भस्थ शिशु की चीख, माँ।" शीलभद्र को यह सम्पूर्ण कालखण्ड आग की लपटों में झुलसता नज़र आता है।
अन्ततः कहा जा सकता है कि 'बुद्धपथ' कहानी अत्यन्त संवेदनशील कहानी है। दिन ब दिन समाज का अमानवीय होता जाना इस बात का प्रमाण है कि बुद्ध का देश युद्ध के पथ पर अग्रसर है।
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