अक्षय विकास से आप क्या समझते हैं ? अक्षय विकास से तात्पर्य ऐसे विकास से है जिसमें हम विकास के लिए ऊर्जा के अक्षय यानि नवीकरणीय साधनों का प्रयोग करते ह
अक्षय विकास (अनवरत विकास) से आप क्या समझते हैं ?
- अक्षय विकास का महत्व बताइये।
- अक्षय विकास पर निबंध लिखिए।
अक्षय विकास का अर्थ
अक्षय विकास से तात्पर्य ऐसे विकास से है जिसमें हम विकास के लिए ऊर्जा के अक्षय यानि नवीकरणीय साधनों का प्रयोग करते हैं। अक्षय ऊर्जा के साधन हैं जैसे सौर ऊर्जा, जल, पवन, ज्वार-भाटा, भूतापीय ऊर्जा आदि। अक्षय ऊर्जा, अक्षय विकास का प्रमुख स्तम्भ है। 20 अगस्त‚ 2021 को देश भर में 'भारतीय अक्षय ऊर्जा दिवस' मनाया गया। अक्षय उर्जा, प्रदूषण मुक्त असीम ऊर्जा का ऐसा विकल्प है जिसका पर्यावरण से सीधा सम्बन्ध है।
अक्षय विकास की आवश्यकता
पर्यावरणवादी के अनुसार औद्योगिक प्रणाली के अन्तर्गत पिछले दो सौ वर्षों से ऐसे प्राकृतिक संसाधनों का लगातार दोहन हो रहा है जिनका नवीकरण (Renewal) संभव नहीं है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अल्पविकसित देशों को आर्थिक विकास की जो राह दिखाई जा रही है, उसके अन्तर्गत माल-निर्माण प्रणाली (Manufacturing System) के लिए मिट्टी, पानी, वन-संपदा, पर्वतों और खनिज स्रोतों को अंधाधुंध निचोड़ना जरूरी हो जाता है। इतना ही नहीं, यह प्रणाली प्रकृति के मूल्यवान् और स्वास्थ्यप्रद स्रोतों को नष्ट करके वातावरण में प्रदूषण (Pollution) फैलाने वाले तत्वों को उँडेल देती है जिससे जीवनदायिनी शक्तियों और तत्वों का विनाश होता है। उदाहरण के लिए, इसी प्रदूषण के कारण वातावरण में ओजोन की पर्त में छेद होता जा रहा है।
फिर, उद्योगपति अपने निजी लाभ (Private Profit) के लिए जो माल बनाकर बाजार में डाल देते हैं, उसके प्रति ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए वे उनके मन में तुच्छ एवं कृत्रिम इच्छाओं को उत्तेजित करते हैं। इन इच्छाओं को परा करने के लिए ग्राहकों को अत्यधिक खर्च करना पड़ता है अर्थात इन इच्छाओं की संतुष्टि अपव्ययपूर्ण उपभोग (Wasteful Consuption) को अत्यधिक बढ़ावा देती हैं। ये सब प्रवृत्तियां मानवता के भविष्य के लिए अत्यधिक घातक एवं विनाशकारी हैं। इन सबको रोकने के लिए ही हरित राजनीति सिद्धान्त (Green Political Theorists) 'स्वावलम्बनमूलक विकास' या 'अक्षय विकास' का आदर्श हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं।
अक्षय विकास का महत्व
'अक्षय विकास' का आदर्श विश्व के समस्त राष्ट्रों के लिए उपयोगी है। विश्व पर्यावरण एवं विकास आयोग (World Commision on Environment and Development) (1987) ने इस सिद्धांत का उपयुक्त निरूपण किया था। इसकी मुख्य मान्यता यह थी कि “वर्तमान पीढ़ी को अपनी आवश्यकताएं इस ढंग से पूरी करनी चाहिए कि भावी पीढ़ियां अपनी आवश्यकताएं पूरी करने में असमर्थ न हो जाएं।" इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पर्यावरणवादी मनुष्य को ऐसी शिक्षा देने की बात करते हैं कि वे अपने उपभोग में कटौती करें, और अपनी-अपनी आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन का प्रयत्न करें। प्रस्तुत सन्दर्भ में महात्मा गांधी का शरीर-श्रम (Bread Labour) का सिद्धांत सर्वथा प्रासंगिक है। इसमें यह शिक्षा दी जाती है कि प्रत्येक मनुष्य को अपने शरीर से इतना श्रम अवश्य करना चाहिए जिससे वह अपनी दैनिक आवश्यकता की वस्तुओं का उत्पादन कर सके। इतना ही नहीं, पर्यावरणवादी यह विश्वास करते हैं कि बड़े-बड़े उद्योगों को हटाकर उनकी जगह छोटे-छोटे उद्योग स्थापित करने चाहिए जिन्हें स्वायत्त स्थानीय समुदाय संचालित कर सकें। इस सुझाव में भी महात्मा गांधी के विचारों की अनुगूंज सुनाई देती है।
वस्तुतः पर्यावरणवादी वर्तमान आर्थिक मूल्यों को चुनौती देते हुए तर्क प्रस्तुत करते हैं कि किसी राष्ट के सकल राष्ट्रीय उत्पाद (Gross National Product : GNP) की गणना करते समय उन संसाधनों की लागत का हिसाब भी लगाना चाहिए जिन्हें औद्योगिक प्रणाली लगातार नष्ट करती जा रही है। 'अक्षय विकास' की धारणा से यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि आर्थिक संवृद्धि के लिए पर्यावरण को क्षति पहुँचाना अनिवार्य हो जाए तो पर्यावरण की रक्षा के हित में आर्थिक संवृद्धि का बलिदान कर देना चाहिए। सुदृढ़ या अटूट अर्थ-व्यवस्था वह होगी जो मनुष्य की बुनियादी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर संगठित की जाएगी; ऐसी व्यवस्था किसी विशिष्ट वर्ग के निजी लाभ को बढ़ावा नहीं देगी बल्कि समुदाय के सामहिक हितों की सेविका बनकर रहेगी। इसमें उत्पादन के स्तर पर यथासंभव न्यूनतम सामग्री (Material) और ऊर्जा (Energy) का प्रयोग होगा, और उपभोग के स्तर पर न्यूनतम प्रदूषण पैदा होगा। वर्तमान आर्थिक व्याधियों और विषमताओं के निराकरण के लिए आर्थिक संवृद्धि की परंपरागत संकल्पना का सहारा नहीं लिया जा सकता। देखा जाए तो 'अक्षय विकास' का सिद्धांत वर्तमान संसाधनों के अधिक न्यायसंगत वितरण को राजनीतिक मुद्दा बनाकर पेश करता है। यह ऐसे आत्मनिर्भर समदायों (Self-Reliant Communities) के संगठन पर बल देता है जिनमें मनुष्य अपनी बनियादी आवश्यकताओं के आधार पर जीवन बिताएंगे। इस दृष्टि से पर्यावरणवादी सामाजिक और आर्थिक आमूल परिवर्तनवाद (Radicialism) का समर्थन करते हैं। परन्तु इनमें कुछ ऐसे तत्व भी पाए जाते हैं जो यह मानते हैं कि मनुष्य का सारा व्यवहार - विशेषतः साधनों की दुर्लभता (Scarcity) की स्थिति में - केवल स्वार्थ से प्रेरित होता है। ऐसे तत्व पर्यावरण के बोझ को कम करने के लिए धरती के भूखे-नंगे और बेकार लोगों को खत्म कर देने की वकालत करते हैं। इनमें गैरेट हार्डिन का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। कुछ भी हो, इस दृष्टिकोण को पर्यावरणवाद की मुख्य धारा का हिस्सा नहीं माना जा सकता।
'अक्षय विकास' के कुछ समर्थक यह सुझाव देते हैं कि मनुष्यों को पर्यावरण की रक्षा के लिए औद्योगिक-पूर्व समाज (Preindustrial Society) के तौर-तरीकों की ओर लौट जाना चाहिए जब कम खर्च से ही काम चल जाता था। परन्तु अन्य पर्यावरणवादी यह मानते हैं कि समकालीन समाज में मनुष्यों को केवल अपनी पूर्वताओं (Priorities) का पुनर्विन्यास करना चाहिए। मतलब यह कि इस व्यवस्था के अन्तर्गत मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताओं (Primary Needs) को उसकी गौण आवश्यकताओं (Secondary Needs) की तुलना में वरीयता दी जानी चाहिए। उनका विश्वास है कि समाज में अभिरुचियों और अभिव्यक्तियों की विविधता (Variety) मानवीय गुणों को बढ़ावा देती है, और मानव-जीवन को अधिक संपन्न (Rich) बनाती है। अतः मनुष्य की गौण आवश्यकताओं की एकदम अनदेखी करना युक्तिसंगत नहीं होगा।
कुछ भी हो, पर्यावरणवादियों की माँगें सरकारी विनियमन (Government Regulation) तक सीमित नहीं हैं। वे यह तर्क देते हैं कि धरती के संसाधनों, प्राकृतिक सुषमा और स्वच्छ जल एवं वायु कायम रखने के लिए उन्नत देशों के लोगों को अपने उपभोग के प्रतिमानों (Consumption Patterns) एवं जीवन-शैली (Life-Styles) को भी बदलना होगा। उदाहरण के लिए, अमरीका के लोग विश्व की जनसंख्या का 6% हिस्सा हैं, परन्तु वे संपूर्ण विश्व में निर्मित माल (Manufactured Goods) के करीब-करीब आधे और संपूर्ण विश्व की तिहाई ऊर्जा (Energy) की खपत के जिम्मेदार हैं। इससे विश्व क निर्धन राष्ट्रों के हिस्से में तो बहुत कम आता ही है। स्वयं अमरीकियों के स्वास्थ्य के लिए भी यह ठीक नहीं है। पर्यावरणवादियों का सुझाव है कि उन्नत देशों के लोगों को निजी वाहनों का प्रयोग कम करके सार्वजनिक परिवहन (Public Transport) और साइकिलों के प्रयोग को बढ़ावा देना चाहिए; मांस-मछली की जगह हरी सब्जियों और दालों के प्रयोग की ओर बढ़ना चाहिए; कोयले, बिजली और न्यूक्लीय ऊर्जा की जगह पवन-ऊर्जा (Wind Energy) और सौर-ऊर्जा (Solar Energy) के प्रयोग को बढ़ाना देना चाहिए। वस्तुतः पर्यावरणवादी आंदोलन ने अमरीकियों में दौड़ने, साइकिल चलाने, प्राकृतिक भोजन लेने और ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर रहने की अभिरुचि को बढ़ावा दिया है। विश्व के अन्य देशों में भी रुझान बढ रहा है। पर्यावरणवादी चाहते हैं कि मनुष्य प्रकृति के साथ संतुलन की अवस्था में रहे, उसे नष्ट न करे।
निष्कर्ष - यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि जहां साधारण राजनीति का सरोकार विभिन्न समूहों के स्वार्थों की लड़ाई से है, और इनमें सामंजस्य (Re77conciliation) स्थापित करने के तरीके ढूंढे जाते हैं वहाँ पर्यावरणवाद संपूर्ण मानव-जाति के कल्याण को अपना लक्ष्य बनाता है। इस उद्देश्य से जब वह उद्योगों के विस्तार और उपभोग के स्तर को संयत करने की माँग करता है तो उससे निहित स्वार्थों (Vested Interests) पर आँच आती है। उनके मुनाफे (Profits) में कटौती होती है। ये निहित स्वार्थ बहुत शक्तिशाली, संगठित और साधन संपन्न हैं, अतः वे पर्यावरणवादियों के रास्ते में रुकावटें पैदा करते हैं। कुछ वामपंथी राजनीतिक दल इस आधार पर पर्यावरणवाद का विरोध करते हैं कि यह उत्पादन की गतिविधियों पर रोक लगाता है जिससे बेरोजगारी (Unemployment) की समस्या बढ़ने का भारी खतरा है। पर्यावरणवादियों के पास अपने विरोधियों का मुकाबला करने के लिए यथेष्ट शक्ति और साधन नहीं हैं क्योंकि इसका लाभ दर-दर तक बिखरे हुए लोगों - को बहुत धीरे-धीरे और बहुत देर से ही मिल पाएगा, जिन्हें संगठित करना बहुत मुश्किल है। यही कारण है कि राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में पर्यावरणवादियों को विशेष सफलता नहीं मिल पाई है।
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