गुडे एवं हैट के पद्धति वैज्ञानिक उदारता सिद्धांत पर संक्षेप में प्रकाश डालिए। गुडे एवं हैट ने सिद्धांत को पद्धति वैज्ञानिक एवं व्यापक दृष्टि से देखा ह
गुडे एवं हैट के पद्धति वैज्ञानिक उदारता सिद्धांत पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
पद्धति वैज्ञानिक उदारता : गुडे एवं हैट
गुडे एवं हैट ने सिद्धांत को पद्धति वैज्ञानिक एवं व्यापक दृष्टि से देखा है। उन्होंने उसमें उदारतापूर्वक शोध की सभी प्रक्रियाओं को शामिल कर लिया है। वे सिद्धांत में उन सभी प्रस्तावनाओं को शामिल कर लेते हैं, जो किसी न किसी अंश में व्याख्या करने की चेष्टा करती हों। उनके अनुसार, कोई भी प्रस्तावना जो
- अभिनवीकरण (orientation),
- अवधारणीकरण (conceptualization),
- वर्गीकरण,
- पर्यवेक्षणों का सारांशीकरण,
- पूर्वकथन (prediction),
- रिक्तता (gaps) संकेतीकरण,
- तथ्यों के संग्रह, अनुक्रम एवं सम्बन्ध-स्थापन, अथवा
- तथ्यों के मध्य तर्कपूर्ण सम्बन्धों के समायोजन का कार्य करती है,
उसे 'सिद्धांत' माना जा सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में किसी भी विषय से सम्बद्ध समस्त विचार-व्यवस्था को 'सिद्धांत' माना जा सकता है। असंख्य भारतीय, अमरीकी एवं ब्रिटिश सिद्धांतशास्त्री इसी परम्परात्मक अर्थ को ग्रहण करते हैं। कहीं केवल तथ्यों एवं प्रस्तावनाओं सम्बन्धी व्याख्या एवं उसके प्रस्तुतीकरण को सिद्धांत का केन्द्र-बिन्दु बनाया जाता है, तो कहीं ईस्टन की तरह राजनीतिक सिद्धांत की पृष्ठभूमि में निहित नैतिक मूल्यों पर बल दिया जाता है। ब्लूम ने उन सभी की व्याख्या को राजनीतिक सिद्धांत के अन्तर्गत माना है जिनसे राजनीति का सम्बन्ध है। ये धारणाएँ अनुभववाद को अपनाते हुए भी अति व्यापकता के दोष से ग्रसित हैं।
राजनीतिक सिद्धांत से सम्बन्धित हैकर के विचार
अपने ग्रन्थ Political Theory में एण्ड्रयू हैकर सिद्धांत के दो अर्थ बताते हैं, जिन्हें परम्परागत एवं आधुनिक राजनीतिक विचारधाराओं से जोड़ा जा सकता है। प्रथम एवं पुरातन संदर्भ में उसका अर्थ राजनीतिक विचारों के इतिहास से है। दूसरे अर्थों में, वह आधुनिक जगत में प्रयुक्त राजनीतिक व्यवहार का यथार्थ एवं व्यवस्थित अध्ययन है, जिसका उद्देश्य मनुष्यों एवं राजनीतिक संस्थाओं के व्यवहार सम्बन्धी तथ्यों की खोज करके तथा उन्हें क्रमबद्ध करके, उनकी व्याख्या एवं सामान्यीकृत विवरण प्रस्तुत करना है। हैकर के अनुसार, सिद्धांतशास्त्री किसी न किसी रूप में वैज्ञानिक एवं दार्शनिक दोनों की भूमिका निबाहता है। वह सिद्धांत में तथ्य एवं मल्य दोनों को स्थान प्रदान करता है। वे एक दूसरे के पूरक हैं।
जुवैनेल एवं मार्क्स : असामान्य स्थितियाँ
जुवेनेल ने राजनीति के 'विशद्ध सिद्धांत' (Pure Theory) की धारणा दी है। इसका अर्थ यह है कि राजनीति का, आधुनिक राजसिद्धांत की तरह, किन्तु यथार्थ राजनीति की जटिलताओं में उलझे बिना विशद्ध वैचारिक दृष्टि से अध्ययन किया जाना चाहिए। राजनीति का अध्ययन अलग से इतिहास की तरह किया जाना चाहिए। उसमें संरूपणों (configurations) - विभिन्न वस्तुओं के मध्य पारस्परिक सम्बन्धों तथा गतिजों या गत्यात्मक तत्वों (dynamics) को खोजा जाना चाहिए। सिद्धांत, तथ्यों की विविधता को बौद्धिक सरलता में ढालने का प्रयास है। ऐसा सिद्धांत यथार्थ का प्रतिनिधित्व करने के कारण तथ्यों के संग्रह में मार्ग-दर्शन प्रदान करता है। उनके प्रकाश में सिद्धांत में भी संशोधन किया जाता है। परन्तु वह स्वयं व्यवहारवादी या आनुभविक सिद्धांत के विरुद्ध है। उसके अनुसार राजविज्ञान में अधिकांश सिद्धांत आदर्शात्मक या मानकीय पाये जाते हैं।
कार्ल मार्क्स (Karl Marx) का दृष्टिकोण सिद्धांत-निर्माण के विषय में बिल्कुल अलग है। राजनीतिक सिद्धांत राजनीतिक तथ्यों से 'पूर्व' का नहीं अपितु ‘पश्चात्' का विषय है। वह सिद्धांत को बौद्धिकीकरण (rationalization) की प्रक्रिया मानता है। किन्तु इस दृष्टिकोण को आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धांत स्वीकार नहीं करता। सिद्धांत तथ्यों को बौद्धिकीकरण नहीं है। 'तथ्य पहले या अवधारणा' वह फोस्ट (Faust) के इस प्रश्न के समान है कि 'पहले कौन आया, शब्द या मस्तिष्क अथवा शक्ति या कार्य ?' वस्तुस्थिति यह है कि सिद्धांत-निर्माण के दो स्तर अवश्य होते हैं, प्रथम स्तर पर प्राक्कल्पनाएँ, प्रस्तावनाएँ, प्रभाव, चिन्तन, अवधारणात्मक (frame work) आदि होते हैं तथा वैज्ञानिक विधि इन्हें एक वैज्ञानिक सिद्धांत के दूसरे स्तर पर रूपान्तरित करके रख देती है। वैज्ञानिक विधि या पद्धति की यह विशेषता है कि वह सभी विज्ञानों एवं शास्त्रों के लिए समान महत्व रखती है।
वेवेची या 'क्रिटिकल' सिद्धांत
आजकल वैज्ञानिक आधुनिक सिद्धांत के विरुद्ध वेवेची या 'क्रिटिकल' सिद्धांत (Critical Theory) की धूम मची हुई है। इसकी शुरुआत फॅन्कफर्ट इस्टीट्यूट ऑफ सोश्यल रिसर्च के विद्वानों द्वारा 1920 में की गयी। इन विद्वानों में मैक्स होर्शीमर (Max Hor Kheimer), जूर्गन हैबरमस (Jurgen Habermas) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। ये लोग तथ्यों के बजाय मूल्यों, इरादों, संकल्पों आदि को विशेष महत्व देते हैं। इनका कहना है कि राजनैतिक गतिविधियाँ अभिप्रायात्मक (intentional) होती हैं। मूल्य हमारे द्वारा किये गये सामाजिक एवं राजनीतिक विश्लेषणों में घुले-मिले होते हैं। हम विश्लेषण करते समय अपने युग के सहभागी (historical participants) एवं सांस्कृतिक परिवेश के पतले होते हैं।
हैबरमस ने वर्तमान औद्योगिक समाज का समग्र चित्र प्रस्तुत करते हुए बताया है कि मनुष्य अपने परिवेश से बहुत अधिक प्रभावित होता है। यह परिवेश उत्पादन शक्तियों तथा सांस्कृतिक विरासत से बनता है। इनके द्वारा सीखने, समझने, विचारविमर्श करने आदि प्रक्रियाएँ संचालित होती हैं। इन्हीं के द्वारा राजनैतिक व्यवस्थाओं को नैतिक आधार अथवा औचित्यीकरण के मानदण्ड प्रदान किये जाते हैं। किन्तु ऐसे समाज में, जो कि बुद्धिपूर्ण (rational) होता है, उस आधारों या मानदण्डों का प्रयोग एवं विचार-विमर्श के द्वारा निरन्तर जाँच की जाती है। इसे आत्मचिन्तन द्वारा सीखने की प्रक्रिया कहा गया है। हैबरमस के वेवेची सिद्धांत पर हीगल तथा मार्क्स का गहरा प्रभाव दिखाई देता है किन्तु वह मार्क्स से असहमत होकर कहता है कि वर्तमान राज्य स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व जैसे शाश्वत आदर्शों के होते हुए भी सामाजिक असमानताओं का समर्थक है। इस स्थिति में राज्य द्वारा निष्ठा एवं आज्ञापालन की माँग करना तर्कसंगत नहीं है। वस्तुतः वर्तमान राज्य वैधता या औचित्यपूर्ण (legitimation) के संकट से घिरा हुआ है। इसके लिए उसने शाश्वत रूप से पायी जाने वाली व्यावहारिक वास्तविकताओं का 'सिद्धांत' प्रस्तुत किया है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की पहचान का आधार सभी विश्व धर्मो की संचारणीय नैतिकता हो। इसी से मतैक्य (identity) एवं समाजीकरण (socialisation) के मान्य आधार प्राप्त होंगे। वस्तुतः वह एक उग्र सुधारवादी है।
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