नये राज्यों के गठन की माँग और खतरे पर निबंध
आजादी के बाद संविधान निर्माताओं ने भारत के
लिये परिसंघीय प्रणाली को चुना जिससे भारत कई राज्यों का एक संध कहलाया। नये राज्यों
के गठन की मांग भाषाई, जातीय एवं आर्थिक इत्यादि
आधारों पर स्वतंत्रता के बाद से ही उठायी जाती रही है। इसके लिए जनान्दोलन एवं
संघर्ष भी होता रहा है। कई पृथक राज्यों का गठन वर्तमान राज्यों की
सीमा-परिवर्तन कर किया जाता रहा है। वर्तमान में भी गोरखालैण्ड, बोडोलैण्ड, महाराष्ट्र में विदर्भ के गठन, उत्तर प्रदेश में बुंदेलखण्ड, पूर्वांचल, पश्चिममांचल व मख्यांचल गठन आदि नये राज्यों के गठन की माँग जारी है।
हाल ही में 2 जून, 2014 से तेलंगाना का गठन आंध्र प्रदेश
राज्य सीमाओं में परिवर्तन कर किया गया है जिससे भारत में राज्यों की संख्या 29
हो गयी है। वहीं 7 केंद्रशासित प्रदेश भी हैं।
भारतीय परिसंघीय प्रणाली में नये राज्यों का
गठन अन्य परिसंघीय प्रणाली देशों यथा-अमेरिका, आस्ट्रेलिया
आदि देशों जैसा दुष्कर कार्य नहीं है। इसका कारण यह है कि भारतीय परिसंघ का
निमार्ण ब्रिटिश प्रांतों एवं देशी रियासतों से हुआ है जिसका कोई स्वतंत्र
अस्तित्व ब्रिटिश काल में नहीं था। अत: भारतीय संघ की घटक इकाइंया प्रभुत्व सम्पन्न
नहीं थीं तथा उन्हें सीधे भारतीय संघ का हिस्सा बनाया गया अपवादस्वरूप देशी
रियासतें रही जिन्हें लौह पुरूष सरदार पटेल के प्रयासों से भारतीय संघ में
शामिलकर लिया गया। इसके विपरीत अमेरिका स्वतंत्र राज्यों का संघ था जहाँ परिसंघ
के गठन के समय राज्यों ने अपनी अस्मिता बनाये रखने का प्रयत्न किया फलत: नये
राज्यों के गठन की प्रिक्रिया संविधान में दुरह हो गयी। भारतीय संविधान में नये
राज्यों के गठन और वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं
या नामों में परिवर्तन का उल्लेख अनुच्छेद-3 में किया गया है। उक्त अनुच्छेद
के निर्वचन से स्पष्ट होता है कि नये राज्यों का गठन (1) किसी वर्तमान राज्य
से उसका प्रदेश अलग करके या (2) दो या अधिक राज्यों को मिलाकर या (3) किसी राज्यों
के भागों को मिलाकर अथवा (4) किसी प्रदेश को किसी राज्य के साथ मिलकर संसद कर
सकती है।
इस प्रयोजन हेतु कोई भी विधेयक बिना राष्ट्रपति
की पूर्वानुमति के संसद में प्रस्तुत नहीं किया जायेगा। यदि किसी राज्य के क्षेत्र, सीमा या नाम में परिवर्तन प्रस्तावित है जो उस राज्य के विधानमंडल को
प्रस्तावित विधेयक विचारार्थ भेजा जायेगा। किंतु तय सीमा के भीतर विचारोपरान्त
जो भी अनुमोदन या अस्वीकृति राज्य का विधानमंडल हो उसका कोई प्रभाव संसद के उस
विधेयक पारित की शक्ति पर हीं पड़ेगा अर्थात संबंधित राजय की अस्वीकृति के
बावजूद संसद साधारण बहुमत से उसे पारित कर सकेगा। अत: नये राज्यों के गठन की
प्रक्रिया पूर्णत: केन्द्राधीन है जैसाकि हमें तेलंगाना राज्य के गठन के समय
देखन को मिला। आंध्र प्रदेश राज्य विधानमंडल के विरोध के बावजूद भी तेलंगाना का
गठन संसद द्वारा किया गया।
राज्यों के पूनर्गठन की मांग बहुत पुरानी है।
संविधान सभा की प्रारूप समिति ने भी एक भाषायी प्रांत आयोग (डार आयोग) का गठन किया
था किंतु इसने राजयों के पुनर्गठन की जरूरत अनिवार्य नहीं इसने भी देश की सुरक्षा
एवं एकता पर ध्यान देते हुए भाषायी आधार पर पुनर्गठन की मांग अस्वीकार की।
दिसंबर 1953 में श्री. ए.बी.पई. को सचिव बनाते हुये राज्य पुनर्गठन आयोग की
नियुक्ति की। 1956 में भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया।
हाल के वर्षों में छोटे राज्यों के गठन और
राजनीतिक विकेन्दीकरण के लिये दबाव मौजूद रहा है और बढ़ रहा है इसके कुछ महत्वपूर्ण
कारक निम्नवत् हैं:
1) भाषा
: भाषा जन भावनाओं की अभिव्यक्ति होती है और इससे उनकी संस्कृति
झलकती है। राज्य पुनर्गठन का यह न्यायोचित आधार है जिसमें प्रशासन का सुविधाजनक
कारण, संपर्क और (फेलो-फीलिगं) साथ का अहसास जगाने वाली समानता शामिल है।
2) जनता
के सांस्कृतिक पक्ष : इसका संबंध जनता के विश्वास
आदतों नैतिक शिक्षाओं, कानूनों एवं परिपाटियों से है।
इसका संबंध समाजके इन व्यक्तियों के कला एवं तथ्यों से भी है जो सीधे-सीधे
जनजीवन में प्रकट होते हैं और इनका संबंध प्रशासनिक गतिविधियों में भी होता है।
3) प्रशासनिक
इकाई की समीपता और भौगोलिक आकार : प्राय: छोटे राज्यों
में लोग नौकरशाही के ज्यादा करीब होते हैं। यहांतक कि वह राजनीतिक माफिया या
भ्रष्टाचार से सीधे-सीधे निपट सकते हैं। भौगोलिक आकार का समुचित होना प्रभावी
नियंत्रण एवं कार्य कुशलता के लिये आवश्यक होता है।
4) आर्थिक
संभाव्यवता : प्राय: बड़े राज्यों में सभी क्षेत्रों का
संतुलित विकास नहीं हो पाता है। शिक्षित एवं विकसित अग्रणी क्षेत्र ज्यादातर
सुविधायें अपने क्षेत्रों तक ही केंन्द्रित रखते हैं। शिक्षित एवं विकसित अग्रणी
क्षेत्र ज्यादातर सुविधायें अपने क्षेत्रों तक ही केन्द्रित रखते हैं। फलत: वंचित
क्षेत्र में पिछड़ापन बढ़ता ही जाता है। अत: आर्थिक उन्नति का समान अनुपात में न
मिलना विरोध का कारण बनता है एवं पृथक राज्य की मांग का जनान्दोलन तैयार होता
है। प्राय: यही कारण तेलंगाना एवं झारखंड आदि राज्यों के गठन हेतु उत्तरदायी रहे
हैं। वही विदर्भ की मांग महाराष्ट्र से तो बुंदेलखंड एवं पूर्वांचल की मांग उत्तर
प्रदेश रहे हैं। वही विदर्भ की मांग महाराष्ट्र से तो बुंदेलखंड एवं पूर्वांचल की
मांग उत्तर प्रदेश के पीछे भी इन्हीं तथ्यों का मांग है।
उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त जातीय पहचार, ऐतिहासिक परिपाटियां आदि अन्य अनेक कारक हैं जो पृथक राज्यों की मांग
करती हैं। जातीय आधार पर एक अलग पहचान के रूप में बोडोलैण्ड, गोरखालैण्ड आदि नये राज्यों की गठन की मांग बलवती रही है।
पृथक राज्यों के गठन की मांग जो प्राय:
क्षेत्रीयता, भाषावाद, जातीयता के
आधारों पर होती रहती है उसके तुष्टिकरण के घातक परिणाम हो सकते हैं। क्षेत्रवाद, भाषावाद एवं जातीयता को प्रोत्साहन राष्ट्रीय एकता एंव अखंडता तथा राष्ट्रीयता
की भावना में दरार पैदा कर सकता है। आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिये एवं
प्रशासनिक नियंत्रण को प्रभावी बनाने के लिये तो नये राज्यों का गठन स्वीकार्य
है किंतु विघटनकारी तत्वों के पोषक आधारोंपर जनांदोलनों के दबाव में नये राज्यों
का गठन समस्या का हल नहीं अपितु उसे विकराल बना देगा। जातीयता, भाषावाद एवं क्षेत्रवादी धीरे-धीरे तुष्टिकरण से पुष्ट होता हुआ महादानव
बन जायेगा और सर्वत्र ऐसी मांगे उठने लगेगी जिस पर काबू पाना सरल नहीं होगा।
राजनीतिक दलों एवं राजनीति का नये राज्यों की मांगों में प्रवेश कोढ़ में खाज
जैसा है। अपने वोट बैंक के लिये राष्ट्रीय अस्मिता की कुर्बानी आत्म–घातक है।
समय रूप में यह कहा जा सकता है कि छोटे राज्यों
का गठन कोई समस्या नहीं हो यदि छोटे राज्यों का सशक्तीकरण किया जाये तथा उन्हें
सामान्य मुद्रा और वित्तीय पक्षों में सशक्त बनाया जाये, घरेलू एवं विदेशी ऋण लेने की सुविधा दी जाये और एक माइक्रो इकोनॉमिक
स्थिरता सुनिश्चित की जाये, तो चिंता की कोई बात नहीं है, किन्तु जब जातीयता, संकीर्णता एवं क्षेत्रीयताकी
मांगों पर राजनीति प्रेरित जनान्दोलनों एवं हिंसक संघर्षें के भलीभूत तुष्टिकरण
के रूप में नये राज्यों का गठन होता है तो विघटनकारी तत्वों को बल मिलता है
जिससे ये मांगे सर्वत्र फैलने लगती हैं जो राष्ट्र प्रगति के हित में नहीं है।
अत: नये राज्यों की मांगों पर उनकी मांग की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, आर्थिक प्रशासनिक पहलूओं पर राष्ट्रीय हित के दुष्टिगत बिना राजनीति के
ध्यान देने की जरूरत है जो लोगों, राज्यों एवं देश सभी के
हित में है।
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