मेरा बचपन पर निबंध Mera Bachpan Essay in Hindi
बचपन! मानव जीवन का स्वर्णिम काल। चिंता रहित क्रीड़ाएं,
स्वच्छंद एवं भयभीत घूमना-फिरना। जो हाथ में आया, मुंह में दे दिया। अंगूठा चूसने
में मधु का आनंद और दूध के कुल्ले पर किलकारी भरने में उल्लास की अनुभूति, रोकर-मचलकर,
बड़े-बड़े मोती आंखों से बहाकर मां को बुलाना और स्नेहमयी माता का भागकर आना एवं
झाड़ पोंछकर ह्रदय से चिपका लेना और चुंबनों की वर्षा करना मानो अनचाहे सुधा में
स्नान। तभी तो सुभद्रा कुमारी चौहान अपनी बिटिया को देखकर अपने बचपन का स्नान करते
हुए कहती हैं-
बीते हुए बचपन की यह, क्रीडापूर्ण वाटिका है।
वही मचलना, वही किलकना, हंसती हुई नाटिका है।।
संघर्षमय, अशांत और
श्रांत-क्लांत जीवन में पौत्र पौत्री की शिशु-क्रीडाओं को देखकर मुझे
अपना बचपन याद आ गया। सुभद्रा चौहान की भांति सरसों का आवाहन करने लगा-
आ जा बचपन! एक बार फिर दे-दे अपनी निर्मल शांति।
वर्तमान हरियाणा के एक छोटे से गांव सोनीपत में जिसने
औद्योगिक विकास के साथ-साथ तहसील से जिले का रूप ले लिया है मेरा बचपन बीता। मेरा
घर था 5-4 मकानों का ढेर
जिसे महल की संज्ञा दी गई थी और जो आज तक बरकरार है।
माता की अनेक संताने काल का ग्रास बन चुकी थी अतः वह मेरा
बहुत ध्यान रखती थी। घर में 2 वर्ष बड़े भाई थे। पिताजी देश की राजधानी दिल्ली में नगरपालिका के कार्यालय में कार्य करते थे।
बड़ी बहिन अपने घर बार की हो गई थी। बाबा (दादा) हरद्वारीलाल गांव के एकमात्र
प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर थे।
आंगन कच्चा था। वही पीली मिट्टी का आंगन मेरे क्रीडा-स्थली
थी। एक बार भाई ने स्नेह से गोदी में लेने का प्रयास किया। उनके हाथ मारने की शैशवी-क्रीडाएं
हॉकी के किसी खिलाड़ी से कम ना थीं। मैं चारपाई पर पड़ा रो रहा था। वे खुश हो रहे थे। समझ रहे थे उनकी छेड़-छाड़ मुझे आह्वादित
कर रही है। थोड़ा और जोर लगाया। वे मुझे संभाल ना सके, मैं चारपाई से नीचे गिरा और
चीख मार कर माता को निमंत्रित करने का सहज और सरल उपाय यही था। मां दौड़ी आई और
पीली मिट्टी में सने मेरे शरीर को गोदी से चिपका लिया। भैया को डाँटा। भैया को पीटना
उनके बस की बात नहीं थी कारण भैया भी शिशु थे और थे मां के ह्रदयांश।
यद्यपि परिवार गरीब था, किंतु दूध और घी की कमीं नहीं थी।
माता ममता लुटाती थी। हम भोजन में अति कर जाते थे। परिणामतः पेट में अफारा और दूध उलट देना स्वभाव बन
गया था। घर के टोटके औषधि का रूप लेते। ममतामयी मां समीप बैठकर टुकुर टुकुर
निहारती और अपने लाल के अच्छा होने की प्रतीक्षा करती हुई मन्नतें मनाती।
घुटनों से चलते समय महल का पीला मिट्टी का प्रांगण हमारी
दौड़ का मैदान बना। अड़ोसी-पड़ोसी समवयस्क बच्चों के साथ एक दूसरे को हाथ मारने
में आनंद आता था। एक बार हमने सामने वाली ताई के बच्चे को वह हाथ मारा कि वह
चिल्ला उठा। ताई दौड़ी आई। उसको गोद में उठा लिया और क्रोध
में मुझे एक चपत रसीद कर दी। साथ ही तारा को छोरा बड्डा तेज सै का प्रमाण पत्र दे
दिया। यह सुनकर हमने भी रोना शुरु कर दिया। उधर माता ताई की करतूत देख रही थी। बस
फिर क्या था मां ने हमें गोद लिया और लगी ताई से झगड़ने। वाग्-युद्ध का दृश्य था
वह।
कुछ बड़े हुए। चलना प्रारंभ किया तो बच्चों से यारी दोस्ती
बढ़ी। परिचय का घर से बाहर निकलकर गली तक पहुंच गया। बाबा के डेढ़ फुट ऊंचे चबूतरे
पर चढ़ना हिमालय पर चढ़ने से कम न था। चढ़ने की कोशिश में गिरते और रो-रोकर
पुनः-पुनः चढ़ने का प्रयास करते। प्रसाद जी के शब्दों में-
स्निग्ध संकेतों में सुकुमार, बिछल, चला थक जाता तन हार।
छिड़कता अपना गीलापन, उसी रस में तिरता जीवन।।
गली की बिल्ली और कुत्ते हमारे लिए शेर और चीते थे। गली का
कुत्ता यदि जीभ निकालकर हमारे पीछे चलने लगता तो हमारी घिग्घी बँध जाती और नन्हे
कदमों की दौड़ से घर में घुस जाते।
गांव में बंदर बहुत थे। 1
दिन गली में चहल कदमी कर रहा था कि अचानक तीन से चार बंदर आ गए। लगे मुझे
घूमने, घूर-घूर कर धमकी देने। आंखों ने यह दृश्य देखा तो मुंह से चीख निकली, हृदय
गति तेज हो गई, नैनों ने नीर बरसाना शुरू कर दिया, हाथ पैर कांपने लगे। चीख सुन
पड़ोसिन आई और उसने बंदरों को डंडे दिखा कर भगा दिया। मेरी जान में जान आई।
बचपन कितना भोला और साधारण-से सामान्य ज्ञान से अनभिज्ञ
होता है इसका एक उदाहरण मुझे स्मरण है। एक रात मैं और बड़े भाई एक खटोले पर ही सो
रहे थे। ब्रह्म मुहूर्त का समय था। माँ मृत शिशु को गोदी में लिए रो रही थी। रोने
की सस्वर वाणी किसी कवि की पीड़ा से कम ना थी। ‘मैं तुझे दिल्ली ले जाती, पढ़ाती-लिखाती’-मृतक पुत्र को
लिए माँ न जाने क्या क्या कल्पना करती हुई रूदन कर रही
थी। प्रातः वह रूदन समाप्त हुआ। घर में क्या हुआ, क्यों हुआघर
में क्या हुआ, क्यों हुआ? मेरी समझ से बाहर था।
शैशव बीता। हम सोनीपर छोड़कर दिल्ली आ गए। बचपन आज भी सोनीपत के महल की चारदीवारी में किल्लोल कर
रहा होगा। बचपन की स्मृति आने पर मेरा मन प्रसाद जी के शब्दों में अपने आपसे पूछता
है-
आज भी है क्या नित्य किशोर उसी क्रीडा में भाव विभोर
श्रद्धा का वह अपनापन आज भी है क्या मेरा धन!