चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की कहानी। Chandragupta Vikramaditya in Hindi
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य बचपन से ही स्वाभिमानी थे। अपने पिता के जीवनकाल में ही उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया था। वह शक राजा द्वारा दिये गये इस अपमान को सह न सके। अपने वंश तथा भाभी के सम्मान के लिए उन्होंने शक राजा की हत्या कर दी।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य धर्मपरायण थे, किन्तु वे धर्मान्ध और असहिष्णु शासक नहीं थे। अन्य धर्मों का भी वह आदर करते थे। उनके शासन में धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेद-भाव या अत्याचार नहीं किया जाता था। दूसरे धर्मों के प्रति वह उदार एवं सहिष्णु थे। वह बौद्ध मतावलम्बियों को भी भूमि और धन दान देते थे।
महान विजेता होने के साथ-साथ वे सफल कूटनीतिज्ञ थे। वे जानते थे कि सुदूर दक्षिण के राज्यों पर नियंत्रण नहीं रखा जा सकता, इसलिए उन्होंने दक्षिण के राजाओं से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए जिससे उनके राज्य पर दक्षिण से आक्रमण का भय समाप्त हो गया। इस तरह वे अपनी बुद्धिमानी और राज्यों की सहायता से भारत से विदेशी जातियों को निकालने में सफल रहे।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य कला और संस्कृति के प्रति अनुराग रखते थे। उन्होंने विद्वानों को पूरा संरक्षण प्रदान किया। वह स्वयं विद्वानों का आदर करते थे। कहा जाता है कि उनके दरबार में नवरत्न थे। कालिदास उन नवरत्नों में श्रेष्ठ थे। चन्द्रगुप्त का मंत्री वीरसेन स्वयं व्याकरण, न्याय और राजनीति का मर्मज्ञ था। विक्रमादित्य स्वयं कला-प्रेमी और कलाओं के संरक्षक थे। गुप्तकाल में कला के विकास में उनका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान है।
अपनी महान विजयों के बाद चन्द्रगुप्त द्वितीय ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। पश्चिमोत्तर भारत के गण राज्यों को परास्त करने के कारण ही चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य को ‘गणारि’ (गणों का शत्रु) कहा गया है। मालवा की विजय चन्द्रगुप्त के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हुई। इससे उनके साम्राज्य की सीमाएँ समुद्र तट तक फैल गई। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने पूर्वी राज्यों तथा बंगाल के विद्रोही राजाओं को भी परास्त किया। इस तरह उनका साम्राज्य पश्चिम में पंजाब से लेकर पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में कश्मीर की दक्षिण सीमा से लेकर दक्षिण-पश्चिम में काठियावाड़ तथा गुजरात तक फैल गया। उनके शासन में शांति, सुव्यवस्था और समृद्धि थी।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के लिए ‘‘विक्रमादित्य’’, ‘‘सिंह-विक्रम’’, ‘‘परमाभागवत’’ और ‘‘गणरि’’ उपाधियों का प्रयोग किया गया है। वे एक पराक्रमी योद्धा और सफल विजेता थे। वे सचमुच गुप्त साम्राज्य के निर्माता थे। दिल्ली के मेहरौली नामक स्थान में स्थित लोहे की लाट आज भी चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की महान उपलब्धियों की याद दिलाती है।
चीनी यात्री फाह्यान चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल में ही भारत आया था। वह छः वर्ष तक भारत में रहा। फाह्यान ने तत्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक दशा का बहुत सुन्दर वर्णन किया है। उसकेे विवरण के अनुसार उस समय देश का शासनकाल अत्यन्त सुव्यवस्थित था, लोग शांतिपूर्ण और समृद्धिशाली जीवन बिता रहे थे। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने धार्मिक औषधालयों और यात्रियों के लिए निःशुल्क विश्रामशालाओं का निर्माण कराया। वे विष्णु के उपासक थे लेकिन उन्होंने बौद्ध और जैन धर्मों को भी प्रश्रय दिया। उस समय भारत के लोग धनी, धर्मात्मा और विद्याप्रेमी थे।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य अत्यन्त न्यायप्रिय शासक थे। उनकी न्यायप्रियता की अनेक कहानियाँ आज भी सारे भारत में प्रसिद्ध हैं। जिस विक्रमादित्य की न्यायनीति, उदारता, शौर्य और पराक्रम के बारे में बड़ी संख्या में किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, वह शायद हमारे यही चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ही थे। ऐसा माना जाता है कि विक्रम संवत् चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने ही चलाया था।
भारत का सांस्कृतिक विकास चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया था। इसके साथ ही इस युग के साहित्य में देश की समृद्धि के संकेत मिलते हैं।
इस तरह अपने पराक्रम, सुव्यवस्थित शासन, धार्मिक-सहिष्णुता, विद्यानुराग तथा कला प्रेम के द्वारा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने एक महान युग की महान संस्कृति के विकास और समृद्धि में स्मरणीय योग दिया। इसलिए चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का नाम भारतीय इतिहास मेें स्वर्णाक्षरों में अंकित है और गुप्त वंश का शासनकाल भारत के इतिहास का स्वर्ण युग कहलाता है।
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