भीष्म पितामह का जीवन परिचय। B hishma Pitamah Biography in Hindi नाम भीष्म पितामह, देवव्रत पिता शान्त...
भीष्म पितामह का जीवन परिचय। Bhishma Pitamah Biography in Hindi
नाम
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भीष्म पितामह, देवव्रत
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पिता
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शान्तनु
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माता
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गंगा
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पत्नी
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अविवाहित
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गुरु
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भगवान
परशुराम, वशिष्ठ
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‘‘पृथ्वी अपनी गंध को, अग्नि उष्णता (ताप) को, आकाश शब्द को, वायु स्पर्श को, जल आर्द्रता (नमी) को, चन्द्र शीतलता को, सूर्य तेज को, धर्मराज धर्म को छोड़ दें किन्तु भीष्म तीनों लोकों के राज्य या उससे भी महान सुख के लिए अपना व्रत नहीं छोड़ेगा ।’’ यह कथन उस महान दृढ़व्रती भीष्म का है जिसने अपने पिता के सुख के लिए आजन्म अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा की थी।
भीष्म अथवा भीष्म पितामह महाभारत के सबसे महत्वपूर्ण पात्रों में से एक थे। भीष्म हस्तिनापुर के महाराज शान्तनु एवं गंगा के पुत्र थे। इनके दूसरे नाम गाँगेय, शांतनव, नदीज, तालकेतु आदि हैं। इन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। कौरवों और पाण्डवों के पितामह होने के कारण इन्हें पितामह भी कहते हैं। भीष्म के बचपन का नाम देवव्रत था। इन्होंने वेदशास्त्र की शिक्षा वशिष्ठ से प्राप्त की थी। युद्ध एवं शस्त्र विद्या की शिक्षा इन्हें परशुराम से मिली थी। ये शस्त्र और शास्त्र दोनों में अत्यन्त निपुण थे।
एक बार की बात है महाराज शान्तनु आखेट के लिए गए। शिकार करते-करते वह यमुना नदी के तट पर पहुँच गए। वहाँ वह एक परम सुन्दरी कन्या को देखकर उस पर मुग्ध हो गये। महाराज शान्तनु ने उस कन्या के पिता निषादराज से विवाह की इच्छा व्यक्त की।
निषादराज ने कहा-‘‘मैं एक शर्त पर अपनी कन्या का विवाह आपसे कर सकता हूँ कि राजा की मृत्यु के पश्चात् मेरी कन्या का पुत्र गद्दी पर बैठेगा, देवव्रत नहीं ।’’ महाराज शान्तनु अपने पुत्र का यह अधिकार नहीं छीनना चाहते थे इसलिए वे हस्तिनापुर लौट आए। धीरे-द्दीरे महाराज की दशा सोचनीय होती गई। देवव्रत ने पिता की चिंता का कारण पता किया और निषादराज से अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह अपने पिता से करने का अनुरोध किया। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि-
"मैं शान्तनु पुत्र देवव्रत आज यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि आजीवन ब्रह्मचारी रहते हुए हस्तिनापुर राज्य की रक्षा करूँगा।" इस भीष्म प्रतिज्ञा के कारण देवव्रत का नाम भीष्म पड़ा।
तत्पश्चात् राजा शान्तनु का विवाह सत्यवती के साथ हो गया। सत्यवती के दो पुत्र हुए। एक का नाम था चित्रांगद तथा दूसरे का नाम था विचित्रवीर्य। शान्तनु की मृत्यु के पश्चात् सत्यवती का बड़ा पुत्र चित्रांगद हस्तिनापुर का राजा हुआ किन्तु शीघ्र ही एक युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई।
दूसरा पुत्र सिंहासन पर बैठा इसके तीन पुत्र थे-धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर। दुर्भाग्यवश वह भी थोड़े समय में काल-कवलित हो गया। अब कौन सिंहासन पर बैठे? कोई दूसरा उत्तराधिकारी नहीं था। इसलिए सबने भीष्म से राज्य स्वीकार करने का आग्रह किया किन्तु भीष्म ने इसे अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा-
"मनुष्य की प्रतिज्ञा सींक नहीं है जो झटके से टूट जाया करती है। जो बात एक बार कह दी गई उससे लौटना मनुष्य की दुर्बलता है चरित्र की हीनता है।"
भीष्म के चरित्र की यह विशेषता थी कि जो प्रतिज्ञा कर लेते थे, उससे नहीं हटते थे। उनके जीवन में इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं । जब महाभारत का युद्ध प्रारम्भ हुआ तो भीष्म कौरवों की ओर थे। कृष्ण पाण्डवों की ओर थे। युद्ध के पूर्व कृष्ण ने कहा ‘‘ मैं अर्जुन का रथ हाँकूँगा, लड़़ूँगा नहीं’’। भीष्म ने प्रतिज्ञा की ‘‘मैं कृष्ण को शस्त्र उठाने को विवश कर दूँगा।’’
"आजु जौ हरिहि न शस्त्र गहाऊँ,
तौ लाजौं गंगा जननी को शान्तनु सुत न कहाऔं।"
अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए भीष्म ने इतना घोर संग्राम किया कि पाण्डव सेना व्याकुल हो उठी। श्री कृष्ण क्रोधित हो गए और अपने हाथ में सुदर्शन चक्र लेकर बड़ी तेजी से भीष्म की ओर झपटे। श्रीकृष्ण के इस रूप को देखकर भीष्म बिल्कुल भी भयभीत नहीं हुए। भगवान श्रीकृष्ण को ऐसा करते देख अर्जुन रोकने के लिए उनके पीछे दौड़े। अर्जुन ने श्रीकृष्ण को आश्वस्त किया कि अब मैं युद्ध में ढिलाई नहीं करुंगा आप युद्ध मत कीजिए। अर्जुन की बात सुनकर श्रीकृष्ण शांत हो गए और पुन: अर्जुन का रथ हांकने लगे।। भीष्म की प्रतिज्ञा पूर्ण हुई। श्री कृष्ण ने भी भीष्म के पराक्रम और युद्ध कौशल की अत्यधिक प्रशंसा की।
भीष्म अत्यन्त पराक्रमी थे। महाभारत के युद्ध में इन्होंने दस दिन तक अकेले सेनापति का कार्य किया। कोई भी ऐसा योद्धा नहीं था जो भीष्म के शौर्य को ललकार सके। ‘
‘मैं शिखण्डी को सम्मुख देखकर धनुष रख देता हूँ।” - अपनी मृत्यु का उपाय बताना भीष्म की उदारता थी। शिखण्डी स्त्रीरूप में जन्मा था। कोई सच्चा शूर नारी पर प्रहार कैसे कर सकता था? अर्जुन ने शिखण्डी को आगे करके पितामह पर बाणों की वर्षा की। जब भीष्म रथ से गिरे, उनके शरीर का रोम-रोम बिंध चुका था। पूरा शरीर बाणों पर ही उठा रह गया। भीष्म ने घायल अवस्था में ही सूर्य के उत्तरायण होने तक अपने प्राण न त्यागने की प्रतिज्ञा की। (सूर्य की किरणें एक वर्ष में 6 माह भूमध्यरेखा के उत्तर में तथा 6 माह भूमध्यरेखा के दक्षिण में लम्बवत् पड़ती है। सूर्य के भूमध्यरेखा के दोनों ओर स्थित रहने की इस दशा को सूर्य का उत्तरायण और दक्षिणायन कहा जाता है।)
भीष्म पितामह प्रबल पराक्रमी होने के साथ-साथ महान राजनीतिज्ञ और धर्मज्ञ भी थे। शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म ने युधिष्ठिर को ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, धर्म एवं नीति का जो उपदेश दिया, वह महाभारत के शान्तिपर्व में संग्रहीत है। भीष्म के समान दृढ़प्रतिज्ञ व्यक्ति किसी भी देश और समाज को सदैव नई दिशा देते रहते हैं।
भीष्म की मृत्यु का कारण : महाभारत के अनुसार भीष्म काशी में हो रहे स्वयंवर से काशीराज की पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका को अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य के लिए उठा लाए थे। तब अंबा ने भीष्म को बताया कि मन ही मन किसी और का अपना पति मान चुकी है तब भीष्म ने उसे ससम्मान छोड़ दिया, लेकिन हरण कर लिए जाने पर उसने अंबा को अस्वीकार कर दिया। तब अंबा भीष्म के गुरु परशुराम के पास पहुंची और उन्हें अपनी व्यथा सुनाई।
अंबा की बात सुनकर भगवान परशुराम ने भीष्म को उससे विवाह करने के लिए कहा, लेकिन ब्रह्मचारी होने के कारण भीष्म ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। तब परशुराम और भीष्म में भीषण युद्ध हुआ और अंत में अपने पितरों की बात मानकर भगवान परशुराम ने अपने अस्त्र रख दिए। इस प्रकार इस युद्ध में न किसी की हार हुई न किसी की जीत। अगले जन्म में अंबा ने शिखंडी के रूप में जन्म लिया और भीष्म की मृत्यु का कारण बनी।
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