मेरी पहली रेल यात्रा पर निबंध। Meri Paheli Rail Yatra Hindi Essay : मेरे पिता एक डॉक्टर हैं और अत्यंत व्यस्त रहते हैं। समय के अभाव के कारण हम लोगों का कहीं आने-जाने का कार्यक्रम कम ही बन पाता है। किंतु आखिर हम समाज में रहते हैं इसलिए पारिवारिक मित्रों-रिश्तेहारों के यहाँ जाना कभी-कभी आवश्यक हो जाता है।
मेरी पहली रेल यात्रा पर निबंध। Meri Paheli Rail Yatra Hindi Essay
मेरे पिता एक डॉक्टर हैं और अत्यंत व्यस्त रहते हैं। समय के अभाव के कारण हम लोगों का कहीं आने-जाने का कार्यक्रम कम ही बन पाता है। किंतु आखिर हम समाज में रहते हैं इसलिए पारिवारिक मित्रों-रिश्तेहारों के यहाँ जाना कभी-कभी आवश्यक हो जाता है। ऐसे मौकों पर पिताजी को समय निकालना ही पड़ता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि वे मुझे माताजी को साथ लेकर हो आने की हिदायत दे देते हैं और स्वयं नहीं जा पाते।
हमारे पास अपनी कार है अतः हमें कहीं भी आना-जाना हो तो ड्राइवर हमें वहाँ पहुँचा दे ता है कोई परेशानी नहीं होती लेकिन एक बार चाचा की बेटी की शादी के निमंत्रण में मुझे माताजी के साथ रेल से बनारस जाने का अवसर प्राप्त हुआ।
दरअसल हुआ यूँ कि पहले-से शादी की बातें तो पहले से ही चल रही थी लेकिन अचानक सब कुछ तय हो गया। चाचाजी ने देखा कि समय कम है और काम अधिक इसलिए उन्होंने टेलीफोन से ही वैवाहिक कार्यक्रम की सूचना दी और हमसे तुरंत ही बनारस पहुँचने का आग्रह किया।
मेरे माता-पिता ने निर्णय किया कि बनारस ट्रेन से ही जाना बेहतर होगा। मैंने घड़घड़ाकर पटरियों पर दौड़ती ट्रेन देखी तो थी परंतु कभी उस पर बैठने का अवसर नहीं मिला इसलिए मम्मी-डैडी के फैसले को सुनकर मेरा मन खुशी से बल्ले-बल्ले करने लगा। माताजी शादी की खरीदारी कर आईं और सामान की पैकिंग कर हम कार से नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुँच गए। हम स्टेशन पहुँचे तो शाम के सात बजे थे। जैसे ही हम कार से उतरे की तभी चार-पांच कुली दौड़कर हमारे पास आ गए। उसने हमसे पूछकर सामान उठाया और आगे-आगे चलने लगा। पिताजी ने पहले ही आरक्षण करवा लिया था अतः भारवाहक ने सामान हमारे आरक्षित डिब्बे में हमारी बर्थ तक पहुँचा दिया और भाड़ा लेकर चलता बना।
अभी गाड़ी खुलनें में दस मिनट बाकी थे। तभी उद्घोषणा हुई- यात्री कृपया ध्यान दे बनारस जाने वाली शिवगंगा एक्सप्रेस प्लटफॉर्म नम्बर चार पर खड़ी है। गाड़ी के भीतर सभी यात्रियों ने अपनी-अपनी सीट ग्रहण कर ली थी। कुछ यात्रियों को उनके मित्र और संबंधी विदा करने आए थे। वे आपस में या राजनीति, सिनेमा की बातें कर रहे थे या फिर नसीहतों का आदान-प्रदान कर रहे थे मैं खिड़की के पास बैठा-बैठा बाहर प्लेटफॉर्म का निरीक्षण कर रहा था। प्लेटफॉर्म पर चाय-नाश्ते की दुकान पर इक्का-दुक्का ग्राहक चीय पी रहे थे। बुक स्टॉल पर भी कुछ लोग पत्र-पत्रिकाएँ खरीद रहे थे। कुछ फेरीवाले भी घूम रहे थे। मैं यह सब बडी उत्सुकता से देख रहा था।
जब ट्रेन के चलने का समय हुआ तो फिर उद्घोषणा हुई- यात्री कृपया ध्यान दे बनारस जाने वाली शिवगंगा एक्सप्रेस रवाना हो रही है। विदा करने आए लोग ट्रेन से उतर गये। ट्रेन का हॉर्न बजा और पटरियों तथा पहिए के रगड़ने की आवाज उभरी तथा ट्रेन धीरे-धीरे चलने लगी। विदा करने वाले लोगों ने हाथ-हिलाकर अपने साथियों को विदाई दी।
रेल की रफ्तार धीरे-धीरे बढ़ने लगी। शहर की रोशनियाँ यूँ लगने लगीं जैसे ट्रेन के उलटी तरफ भाग रहीं हों। डिब्बे में कोलहल मचा था। आरक्षित डिब्बे में बहुत से ऐसे यात्री चढ़ आए थे जिन्हें गाजियाबाद उतरना था और उनका आरक्षण भी नहीं था। कई लोग खड़े-खड़े यात्रा कर रहे थे और गाड़ी धड़धड़ाती हुई आगे बढ़ती जा रही थी। तभी गाड़ी की रफ्तार धीमी पड़ने लगी। सहयात्रियों की बातों से पता चला कि गाजियाबाद आने वाला है। धीमी होते-होते ट्रेन यकायक झटके से रूक गई। गाजियाबाद वाले यात्री हड़बड़ाकर उतरने लगे। प्लटफॉर्म पर चाय वाले डिब्बों के पास आकर चाय गरम की हाँक लगाने लगे। तभी रेलवे केटरिंग विभाग का आदमी आकर यात्रियों से खाने का आर्डर ले गया।
गाजियाबाद से जब गाड़ी चली तो डुब्बे में भीड़ नहीं थी। कुछ देर बाद जिन यात्रियों ने खाना मँगवाया था उनका खाना लेकर पेंट्री वाला आ गया। माताजी घर से ही खाना लाई थी अतः हमने अपना वही खाना खाया। खाते-पीते रात के दस बज गए थे और मुझे नींद आने लगी थी। सबकी देखा-देखी मैं भी अपनी बर्थ पर सो गया।
सुबह उठा तो गाड़ी तेजी से चल रही थी। गाड़ी जब एक चौड़े पुल से गुजरी तो उसकी धड़ध़ाहट की आवाज और तेजी से आने लगी। पुल के दोनों किनारों पर के खंभे तेजी से आगे आते थे और खिड़की से नीचे देखा तो नदी देखकर तो मैंने डर से आँखें ही बंद कर ली। कुछ ही क्षणों में गाड़ी पुल पार कर गई और सब कुछ सामान्य हो गया।
डिब्बे में ही एक किनारे शौचालय था। चलती ट्रेन में नित्यक्रिया से निवृत्त होकर बैठे तो गाड़ी की रफ्तार धीमी होने लगी। पता लगा कानपुर आ गया। माताजी ने कुछ नाश्ता बैग में से निकाला जो उन्होंने सफ़र के लिए निकाला था तत्पश्चात हम-सभी ने चाय-नाश्ता किया। बाहर प्लटफॉर्म पर चाय वाले आवाजें लगा रहे थे की तभी गाड़ी चल पड़ी।
कानपुर से इलाहाबाद और फिर इलाहाबाद से बनारस जंक्शन पर आकर गाड़ी खड़ी हुई। हमें भी यहीं आना था और गाड़ी को भी यहीं तक आना था। कानपुर से यहाँ तक के सफर में तो जैसे दुनिया देख लेने का एहसास हो रहा था। नदी पहाड़ हरियाली वृक्ष खेत-खलिहान गाँव झोंपड़ी किसान जाने क्या-क्या देखता और उनको पीछे छोड़ता हुआ मैं यहाँ तक आ पहुँचा था। कानपुर से एक अंधा भिखारी ट्रेन में चढ़ा था और कबीर की साखियाँ तथा सूर के पद सुना रहा था। इलाहाबाद में दो भाई-बहन भीख माँगने चढ़े थे और फिन्मी गाने गा-गाकर भीख माँग रहे थे। मेरे मन में उन दोनों की तस्वीर बस गई थी। सच कहूँ बड़ा दुःख हुआ था आखिर वो भी तो मेरी ही तरह बच्चे थे। विचारों में खोया हुआ मैं बनारस पहँच गया था। तब से कई बार मैं ट्रेन में यात्रा कर चूका हूँ परन्तु इस यात्रा की यादें आज भी ऐसे हैं मानो कल ही सफ़र किया हो। यह यात्रा मेरे लिए हर तरह से यादगार थी। यहाँ चाचा जी हमें स्टेशन पर अगवानी करने आए थे। हम लोग फिर चाचा जी के साथ उनके घर चले गए।
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