गुरू गोविंद सिंह पर निबंध : भारतवर्ष के पश्चिमोत्तर सीमा का प्रहरी गुरू गोविद सिंह जिन्होंने देश और धर्म की रक्षा हेतु तन-मन-धन और जीवन सब कुछ बलिदान कर दिया। दुनिया में ऐसे व्यक्तित्व विरले ही हुए हैं। गुरू गोबिंद सिंह जी का जन्म विक्रमी संवत 1723 में मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी को अर्थात 24 दिसंबर 1666 को पटना में हुआ था। आपके पिता गुरू तेगबहादुर एवं माता गुजरी थी।
भारतवर्ष के पश्चिमोत्तर सीमा का प्रहरी पंचनद प्रदेश पंजाब
सदियों से विदेशी क्रमणकारियों से लोहा लेने वाले वीरों का गढ़ रहा है। पंजाब के
ऐसे ही यश्स्वी नायकों में से एक थे गुरू गोविद सिंह जिन्होंने देश और धर्म की
रक्षा हेतु तन-मन-धन और जीवन सब कुछ बलिदान कर दिया। दुनिया में ऐसे व्यक्तित्व
विरले ही हुए हैं।
गुरू गोबिंद सिंह जी का जन्म विक्रमी संवत 1723 में मार्गशीर्ष मास के
शुक्लपक्ष की सप्तमी को अर्थात 24 दिसंबर 1666 को पटना में हुआ था। आपके पिता गुरू
तेगबहादुर एवं माता गुजरी थी। इनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई।
औरंगजेब एक क्रूर और धर्मांध मुस्लिम शासक था। इस्लाम के
प्रचार-प्रसार के लिए वह बल प्रयोग को प्रोत्साहन देता था। उसके शासनकाल में हिंदू जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। उसके हुक्म से कश्मीर में पंडितों को बलपूर्वक इस्लाम
कबूल करने पर मजबूर किया जाने लगा तो उन्होंने जाकर गुरू तेगबहादुर के दरबार में
गुहार लगाई। तब गौ-ब्राह्मण और सनातन हिंदू धर्म की रक्षा हेतु ऩ्होंने दिल्ली
जाकर औरंगजेब को चुनौती दी कि यदि उसमें दम हो तो बह गुरू का धर्म-परिवर्तन करवाकर
दिखलाए। नतीजन गुरूजी को यातनाऐं देकर मार डाला गया।
इस प्रकार गुरू तेगबहादुर ने धर्मरक्षार्थ बलिदान दे दिया।
पिता के इस भयानक अंत की खबर जब नौ वर्ष के बालक गोविंद सिंह को मिली तो उसने कहा-
“गुरू
ने अपने रक्त से हिंदू धर्म के गौरव की रक्षा की। इस कलियुग में ऐसा महान बलिदान और
कौन करता?
उन्होंने अपनी जान देना कबूल कर लिया पर अपने विश्वास को त्यागना मंजूर नहीं किया।
”
बचपन में ही गोविंद सिंह ने रामयण महाभारत और पुराणों का
अध्ययन कर लिया था। वे श्रीराम श्रीकृष्ण भीम तथा अर्जुन के चरित्र से प्रभावित थे।
वह मानते थे कि नका जन्म भी रामायण महाभारत के इन नायकों की भाँति दुर्जनों के
विनाश तथा धर्म की रक्षा के लिए हुआ है।
गोविंद सिंह विद्वान थे कवि थे और साहित्य-प्रेमी भी थे। उनकी
इच्छा थी कि सभी हिंदू धर्म-ग्रंथों का ब्रजभाषा में अनुबाद हो। उन दिनों ब्रजभाषा
का प्रसार था और यह सब भाषओं का सिर मौर बनी हुई थी। उनरकी रचना ‘रामावतार’ तथा ‘कृष्णावतार’ इसका उदाहरण हैं।
वेद और हिंदी की तहर अरबी फारसी तथा पंजाबी भाषा में भी दक्षता प्राप्त की थी।
उनकी ‘चंडी
चरित्र’
पुस्तक में दुर्गा का मनोहारी स्तवन है।
गुरूजी के व्यक्तित्व में क्षात्रतेज और ब्रह्मतेज का अपूर्व
मिश्रम था। वे देश में सबसे पारंगत धनुर्धर थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘विचित्र नाटक’ में कई रहस्यों को
उजागर किया है। इसके अनुसार सत्य धर्म की रक्षा हेतु ईश्वर के आदेश से न्होंने
जन्म लिया था। और सिख गुरूओं की श्रृंखला और कुछ नहीं बल्कि रघुकुल का विस्तार था।
उसी रघुकुल का जिमसमें राम जन्में थे। मसलन प्रथम गुरू नानक देव और कोई नहीं अपितु
‘श्री
राम’के
पुत्र ’कुश’ थे तथा स्वयं गुरू
गोविंद सिंह ‘लव’ के अवतार थे।
अपनी इस आस्था और विश्वास के अनुसार न्होंने खालसा पंथ की स्थापना
की र सिखों को पंच ककार-केश कंघा कच्छा
कंकण और पंच-प्यारे की उपाधि दे कर उन्हें धर्म-रक्षा हेतु प्रेरित किया। इस
प्रकार उन्होंने देश और धर्म की रक्षा के ले समर्पित सैनिकों का एक पथक तैयार कर
लिया और मुगलों से लोहा लिया।
अजीत और जुझर नाम के उनके दोनों बड़े बेटे मुगलों से लड़ते हुए
उनकी आँखों के सामने शहीद हो गए तो गुरूजी ने ईश्वर को पुकारकर कहा- “हे प्रभु। जो
तुम्हारा था वह तुम्हें ही समर्पित कर दिया।”
गुरूजी के दो छोटे पुत्र जोरावर और फत्ते को मुगल सरदार वजीर
खाँ ने दीवार में चिनवाकर जिंदा दफन कर दिया। दोनों ने उफ नहीं की और बजाय मजहब
बदलने के जान देना कबूल कर लिया। गुरू गोविंद सिंह को जब यह ह्रदय-विदारक समाचार
मिला तो उन्होनें हाथ उठाकर प्रार्थना करते हुए कहा- “दोनों ने मेरे उस विश्वास की रक्षा की
जो मैंने उन्हें दिया था।”
गुरू गोविंद सिंह ने दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान केशव दास
नाम के साधु को देशधर्म की रक्षा हेतु लड़ने की प्रेरणा दी। गुरूजी से प्रेरित
होकर उसने मुगलों से लोहा लिया और देशधर्म पर मि मिटा। इतिहास में वह वीर बंदा
वैरागी के नाम से अमर हो गया।
गूरूजी ने दक्षिण भारत के प्रवास के दौरा नही नांदेड़ में 7
अक्टूबर 1708 को महासमाधि ले ली। दरअसल मुगलों के षडयंत्र से प्रेरित एक पठान
सरदार ने विश्वासघात किया। रात को सोते समय सने गुरूजी की पेट में कटार भोंक दी।
वह घाव तो भर गया किंतु एक भारी धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाते हुए वह घाव फिर से रिस
उठा और गुरूजी का देहावसान हो गया। इस प्रकार हिदुत्व की मशाल जलाने वाले
शलाकापुरूष गोविंद राय ने गुरूगोविंद सिहं होकर देश और धर्म की खातिर अपना सबकुछ
न्योछावर कर दिया।
जो बोले सो निहाल-सत श्री अकाल।
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