ऋतुराज वसंत पर निबंध : समय परिवर्तनशील है। प्रत्येक क्षण प्रकृति के अनेक रंग और छटाएँ हमें देखने को मिलती है। इससे जाड़ा, गरमी और बरसात क्रमशः एक के बाद एक आते ही रहते हैं।
समय परिवर्तनशील है। प्रत्येक क्षण हम अपने आसपास होने वाले
अनेक परिवर्तन को देखते और भोगते रहते हैं। पृथ्वी को सूर्य की
परिक्रमा करने में लगने वाले समय को एक वर्ष माना जाता है। इस एक वर्ष में सूर्य से पृथ्वी की घटती-बढ़ती दूरियों के अनुरूप प्रकृति के अनेक रंग और छटाएँ हमें
देखने को मिलती है। इससे जाड़ा, गरमी और बरसात क्रमशः एक के बाद एक आते ही रहते
हैं।
थोड़ा और सूक्ष्म विश्लेषण करे तो इन मौसमों के संधिकाल का और
पूरे होने का समय भी तो होता है। प्राचीन मनीषियों ने वर्ष में होने वाले इन मौसमी
बदलावों को ऋतु-चक्र नाम दिया था। इसके अनुसार वर्ष में छह ऋतुएं मानी गई हैं-
वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शिशिर, शीत व हेमंत।
युगों-युगों से
षड्ऋतुओं का यह क्रमिक चक्र अनवरत घटित होता आ रहा है। वसंत इन ऋतुओं का सिरमौर है
इसलिए इसे ऋतुराज कहते है। वसंत में फुलवारियाँ महकती है। रंग-बिरंगे फूलों से
वृक्ष और लताएँ आच्छादित हो उठती है। अमलतास चंपा जैसे फूलों वाले बड़े बृक्ष
फूलों से लदकर मानो मूर्तिमंत सौंदर्य हो उठते हैं। इस ऋतु में आमों के बाग-बगीचों की
छटा भी देखते ही बनती है। आम के वृक्षों में भँवरे आ जाते हैं और सुखद वासंती बयार
इन आम्रकुंजो से होकर बहती हुई इन बौरों-मंजरियों की खुशबू लेकर सुरभित हो जाती
है। कोयलिया कूकने लगती है। मधुमक्खियों की भिन्न-भिन्न और बौरों की गुन-गुन इन फूलों पर इठलाती हुई उड़ती फिर रही तितलियों की उड़ान के साथ संगत करती-सी लगती है। प्रकृति मानो सोलहों श्रृंगार कर उठती है।
इसी ऋतु में रंगो का त्योहार होली मनाया जाता है। यह फागुन
(फाल्गुन) के महीने में मनाया जाता है। मदमाती मस्ती से परिपूर्ण यौवन का मिलन और सम्मिलन का त्योहार इस रंगीन ऋतु मं बड़ा सुखद सा लगता है। इस दौरान प्रकृति की छटा पूरे यौवन में मदमाती अठखेलियाँ कर रही होती
है।
फागुन के मस्त महीने का अंत होली के रंगो से होता हैं। इससे पहले वसंत पंचमी का पूजन हो चुका होता है। विद्या की देवी सरस्वती की आराधना के बाद से होली के रंग अपनी रंगतें बिखेरना शुरू कर देते हैं। वातावरण में होली के गीत गूंजने लगते हैं और फाग की मस्ती के असर से बुड्ढा भी स्वयं को जवान समझने लगता है - "भरि फागुन बुढ़वा देवर लागे।"
फागुन के मस्त महीने का अंत होली के रंगो से होता हैं। इससे पहले वसंत पंचमी का पूजन हो चुका होता है। विद्या की देवी सरस्वती की आराधना के बाद से होली के रंग अपनी रंगतें बिखेरना शुरू कर देते हैं। वातावरण में होली के गीत गूंजने लगते हैं और फाग की मस्ती के असर से बुड्ढा भी स्वयं को जवान समझने लगता है - "भरि फागुन बुढ़वा देवर लागे।"
फाग और होली की मस्ती में डूबकर तथा राग-द्वेष भूलकर और आपस
में हिल-मिलकर सुख से रहने का संदेश देती है होली। वैसे होलिका और प्रह्लाद की कथा
का प्रसंग भी इसी पर्व से जुड़ा है।
ऋतुराज वसंत की सुषमा अगाध है। वसंत के वर्णन में कालिदास और
तुलसीदास से लेकर भरतव्यास तक के अनेक कवियों ने कलम चलाई है और उनको पढ़-सुनकर मन अक्सर अल्हड़ सौंदर्य की अनुभूति से सरस हो उठता है।
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