कुटीर उद्योग का महत्व। kutir udyog ka mahatva

कुटीर उद्योग का महत्व। kutir udyog ka mahatva : कुटीर उद्योग वह है जो पूर्ण रूप से या प्रमुख रूप से परिवार के सदस्यों द्वारा पूर्ण समय या आंशिक समय में व्यवसाय के रूप में चलाया जाता है। लघु उद्योग कई प्रकार के हैं। प्रथम श्रेणी में वे लघु उद्योग रखे जाते हैं जो कि काश्तकार को पूरक व्यवसाय प्रदान करते हैं¸ जैसे- हथकरघा¸ कपड़ा बुनना¸ दलिया बनाना¸ रस्सा बनाना आदि।

कुटीर उद्योग का महत्व। kutir udyog ka mahatva

kutir udyog ka mahatva
कुटीर उद्योग वह है जो पूर्ण रूप से या प्रमुख रूप से परिवार के सदस्यों द्वारा पूर्ण समय या आंशिक समय में व्यवसाय के रूप में चलाया जाता है। लघु उद्योग कई प्रकार के हैं। प्रथम श्रेणी में वे लघु उद्योग रखे जाते हैं जो कि काश्तकार को पूरक व्यवसाय प्रदान करते हैं¸ जैसे- हथकरघा¸ कपड़ा बुनना¸ दलिया बनाना¸ रस्सा बनाना आदि।

दूसरी श्रेणी में ऐसे ग्रामीण क्राफ्ट्स आते हैं¸ जैसे- लुहारगीरी¸ बढ़ईगीरी¸ घानियों के द्वारा तेल निकालना¸ मिट्टी के बर्तन बनाना¸ ग्राम चमड़ा कमाना उद्योग¸ व्यावसायिक जुलाहों द्वारा करघे द्वारा कपड़े बुनना¸ जूता बनाना¸ गलीचा बुन्ना आदि।

तीसरी श्रेणी में वे उद्योग रखे जा सकते हैं जो कि शहरी क्षेत्रों में उनमें लगे श्रमिकों को पूर्णकालिक रोजगार प्रदान करते हैं¸ जैसे- लकड़ी और आयवरी द्वारा पर कशीदाकारी¸ खिलौना बनाना एवं चांदी के तार बनाना। पीतल के बर्तन और अन्य प्रकार की सामग्री का निर्माण आदि।

आधुनिक तकनीकी युग में बहुत से पुराने कुटीर उद्योग पुराने पड़ गए हैं और आर्थिक सार्थकता खो चुके हैं। उनके स्थान पर नये उद्योग विकसित हुए हैं जो चलाने वालों को पूर्णकालिक रोजगार प्रदान कर सकते हैं। इलेक्ट्रॉनिक्स ने कुटीर उद्योग की धारणा में ही क्रांति ला दी है। बहुत से कार्य कंप्यूटर से किए जाने लगे हैं। बाजार में बहुत सी छोटी छोटी दुकानें और केंद्र खुल गए हैं जो इलेक्ट्रॉनिक टाइपिंग¸ प्रिंटिंग¸ चकमुद्रण¸ फोटोकॉपी आदि करके अच्छा व्यवसाय कर रहे हैं। इन छोटे छोटे व्यवसायों में रोजगार अवसर प्रदान करने की क्षमता है।

कुटीर उद्योगों की स्थापना हेतु तर्क

प्रथम- कुटीर उद्योग श्रम सघन होते हैं। कुटीर उद्योगों में विनियोग की गई राशि भारी उद्योग में लगी बराबर राशि से अधिक लोगों को रोजगार प्रदान कर सकती है। भारत जैसे देश में जहां आंशिक रोजगार युक्त या बेरोजगार लोगों की संख्या बहुत अधिक है यह महत्व की बात है।
जापान एक ऐसे देश का एकमात्र उदाहरण है जिसने बेरोजगारी के राक्षस को अधिकतम प्राप्य स्तर तक कुटीर और लघु उद्योग धंधों की स्थापना करके बहुत दूर भगा दिया है।

द्वितीय - सामान तैयार करने के लिए कुटीर उद्योगों को कम पूंजी विनियोग की आवश्यकता पड़ती है। उनको पूंजी सरल कहा जा सकता है। इस प्रकार पूंजी के प्रयोग में कुटीर उद्योगों में मितव्ययताएं करना संभव है क्योंकि भारत जैसे विकासशील देश में पूंजी की कमी है¸ कुटीर उद्योगों से औद्योगिकीकरण की दिशा में बहुत मदद मिलेगी¸ यदि अधिक से अधिक संख्या में इनकी स्थापना की जाए।

तृतीय - पूंजी के प्रयोग में मितव्ययताओं के अतिरिक्त कुटीर उद्योगों से ऐसी पूंजी का सृजन हो सकता है जोकि अन्यथा अस्तित्व में नहीं आती। ग्रामों में कुटीर उद्योगों का फैलाव लोगों में मितव्ययता एवं विनियोग की भावना को प्रोत्साहित करेगा। ऐसे बड़े उद्योगपतियों के उदाहरण हैं जिन्होंने छोटे से कुटीर उद्योग के प्रबंधक से कार्य प्रारंभ किया किंतु वे अपने लाभ का पुनः विनियोग करके वर्तमान स्तर तक पहुंचने में सफल हुए हैं। महान अमरीकन औद्योगिक शहंशाह फोर्ड ने 1 सीधे सादे और मामूली लोहार के रूप में कार्य प्रारंभ किया था।

चतुर्थ - कुटीर उद्योग दक्षता-सरल होते हैं। भारी उद्योगों में तरह-तरह के दक्ष फोरमैनों¸ इंजीनियरों¸ अकाउंटेंटों आदि के भारी तामझाम की आवश्यकता पड़ती है। पूंजी की भांति दक्षताओं की भी हमारे देश में बहुत कमी है और यह आवश्यक है कि उनके प्रयोग में किफायत बरती जाए।

पंचम - कुटीर उद्योग भारी उद्योगों की अपेक्षा आयातित मशीनरी आदि पर निर्भर रहते हैं। भारी उद्योगों में इन सामानों और मशीनरियों के आयात की आवश्यकता पड़ती है जिसके कारण भुगतान संतुलन की स्थिति अव्यवस्थित हो जाती है। इसके अतिरिक्त कुटीर उद्योगों में विनियोग करने से रिटर्न बहुत अधिक प्राप्त होता है। भारी उद्योगों में बहुत समय लगता है। जापान की वर्तमान समृद्धि प्रत्येक कस्बे और गांवों में बड़ी संख्या में औद्योगिक समूहों के स्पंदन के कारण है।

षष्ठम - कुटीर उद्योगों से धन एवं आर्थिक शक्ति के कुछ ही हाथों में केंद्रित होने की संभावना कम रहती है। इनसे आय एवं धन का अधिक सामान एवं न्यायोचित वितरण संभव होता है। भारी उद्योगों से आय और धन कुछ ही हाथों में केंद्रित होने की प्रवृत्ति होती है जो की समता पर आधारित समाज की स्थापना के विचार के ही विपरीत है।
सप्तम- कुटीर उद्योग में लगे हुए लोगों के आध्यात्मिक विकास में भी सहायता करते हैं। भारी उद्योग ने मानव जाति की मानवता को समाप्त कर दिया है और मनुष्य को कोरे भौतिकवाद से भर दिया है। किसी भी फलदायी व्यवसाय में जिससे आय भी पर्याप्त हो बराबर लगे रहने से मनुष्य का शैतान उससे दूर रहता है। गांधी जी का कुटीर उद्योगों के आध्यात्मिकता उत्पन्न करने वाली विशेषता में विश्वास था और इसलिए वह इसकी उन्नति के पक्षधर थे। खादी वस्त्रों के निर्माण और गांधी आदि आश्रमों में तैयार माल के विक्रय में लगे लोग अपनी सादगी¸ शिष्टता और परिमार्जित व्यवहार से ग्राहकों को प्रभावित करने में सफल होते हैं। छोटे से रूप में जिसकी आशा की जा सकती है। ये लोग आध्यात्मिक अनुशासन का परिचय देते हैं। दूसरी ओर वे लोग हैं जो पूंजी और काले धन से संतृप्त हैं जिसको उन्होंने बड़े उद्योगों के माध्यम से अर्जित किया है वे झूठी शान मारते हैं और बड़प्पन की भावना और घृणा उत्पन्न पैदा करने वाली आधुनिकता को उछालते हैं।

पर्यावरण की दृष्टि से देखे जाने पर यह कहा जा सकता है कि कुटीर उद्योग प्रायः प्रदूषण समस्याओं से मुक्त हैं। भारी उद्योग ने तो पूर्व में ही पर्यावरण को इतना क्षतिग्रस्त कर दिया है कि उसका उपचार होना कठिन है और विकसित देशों में अतिरिक्त उद्योगों की स्थापना बर्बादी को ही निमंत्रण देगी। मानव जाति का भविष्य अब कुटीर उद्योगों के साथ ही है और भारी उद्योगों के साथ तो बहुत ही कम।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत जैसे देश की अर्थव्यवस्था में कुटीर उद्योग बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं किंतु यह तभी हो सकता है जब कि उनके सामने आने वाली कठिनाइयों को पहचाना जाए और उनका निराकरण किया जाए।
कठिनाइयां- कुछ कठिनाइयां इस प्रकार है
  1. प्रथम - कुटीर उद्योग श्रमिक निरक्षरता एवं अज्ञानता के कारण एवं पुराने तौर तरीकों के प्रयोग के कारण कम कुशल हैं।
  2. द्वितीय - भारत के लोग बहुत गरीब हैं और उनको सस्ती पूंजी की सुविधाएं भी प्राप्त नहीं है।
  3. तृतीय - संगठित विपणन की व्यवस्था के अभाव में असहाय कारीगरों को अपने सामान को बेचने के लिए बिचौलियों पर निर्भर रहना पड़ता है।
  4. अंतिम - कुटीर उद्योगों को अभी तक बड़े उद्योगों से ज्यादा अच्छी गुणवत्ता की वस्तुओं का निर्माण करने में सफलता नहीं मिली है।

सुझाव - भारत के औद्योगिक ढांचे में इनके महत्वपूर्ण स्थान को दृष्टिगत रखते हुए आवश्यक है कि वर्तमान कमियों को ठीक करने और कठिनाइयों को दूर करने के लिए उपयुक्त कदम उठाए जाएं।
प्रथम- कारीगरों को उत्पादन के नए और किफायती तौर तरीकों की जानकारी कराई जानी चाहिए। भाड़ा क्रय प्रणाली के आधार पर आधुनिक उपकरण प्रचारित किए जाने चाहिए।
द्वितीय- उपर्युक्त उपायों द्वारा अच्छे कच्चे सामान की आपूर्ति सुनिश्चित की जानी चाहिए।
तृतीय- आसान शर्तों पर साख की आपूर्ति उपलब्ध कराई जानी चाहिए।
चतुर्थ- लघु उद्योगों द्वारा निर्मित सामान की उचित बिक्री के लिए प्रयास किए जाने चाहिए।
पंचम- कुटीर उद्योगों का बड़े उद्योगों के साथ समन्वय किया जाना अत्यंत आवश्यक है। कुटीर उद्योग बड़े उद्योगों के पूरक होने चाहिए
षष्टम- क्षेत्रों को आरक्षित करके या अन्य तरीकों से कुटीर उद्योगों को उपर्युक्त मात्रा में संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए। इन सुझावों को व्यवहार में परिवर्तित करने और उनको संयुक्त बनाने हेतु पांच चीजें आवश्यक हैं।
(1) लघु एवं कुटीर उद्योगों के क्षेत्र में सहकारिता के सिद्धांत का अंगीकृत करना 
(2) राजकीय सहायता की एक कारगर नीति 
(3) जनता में स्वदेशी भावना का प्रोत्साहन 
(4) कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित सामान की गुणवत्ता में सुधार 
(5) बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा कुटीर उद्योगों के क्षेत्र में प्रवेश पर प्रतिबंध जो कि दुर्भाग्यवश भारत में उपभोक्ता सामग्री के क्षेत्र में प्रवेश करने हेतु जुगाड़ लगा रहे हैं। संतोष का विषय है कि सरकार कुटीर उद्योगों की विकास की आवश्यकता के प्रति सजग है और विभिन्न योजनाओं में इसके लिए राजकीय प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए कदम उठाए गए हैं। इनको और अधिक सार्थक बनाया जाना चाहिए। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि निर्धनता से हमारी मुक्ति बड़ी सीमा तक कुटीर उद्योगों को एक शत प्रतिशत सफल आंदोलन बनाने पर निर्भर करती है। हमारे शासकों और राजनीतिज्ञों को उस सीमा का निर्धारण करने में बड़ी सावधानी बरतनी चाहिए जिसके परे भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने कार्य कलापों का विस्तार ना करें अन्यथा कुटीर उद्योग के हित इतनी बुरी तरह प्रभावित होंगे कि फिर उन्हें ठीक करना संभव नहीं होगा।

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